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________________ ( २०३ ) परत्राहंमतिः स्वस्मायुतो बध्नात्यसंशयम् ॥ स्वस्मिन्नहंमतियुत्वा, परस्मान्मुच्यते बुधः ॥ ४३ ॥ शब्दार्थ शरीरने विषे आत्मबुद्धिवालो बहिरात्मा श्रात्म स्वरूपथी ष्ट थइने खरेखर बंधन पामे वे छाने श्रात्मस्वरूपने विषे श्रात्मबुद्धिवालो अंतरात्मा शरीरादिकथी जूदो थने मुक्ति पामे बे. ॥ ४३ ॥ दृश्यमानमिदं मूढ स्त्रिलिंगमवबुध्यते ॥ इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ॥ ४४ ॥ शब्दार्थ - बहिरात्मा था देखाता पुरुष, खो खने नपुंसक रूप त्रय लिंगने त्रिलिंगरूप माने बे ने अंतरात्मा अनादिसिद्ध धने विकल्पादिके वर्जित एवा श्रात्मत्वनेज मानेबे ॥ ४४ ॥ जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं, विविक्तं जावयन्नपि ॥ पूर्व विज्रमसंस्काराद्व्रांतिं नूयोऽपि गच्छति ॥ ४५ ॥ शब्दार्थ - अंतरात्मा श्रात्मतस्वने जाणतो बतो तथा शरीरा दिकथी जूडुं मानतो बतो पण पूर्व विक्रमना संस्कारची फरीने पण जांति पामे वे ॥ ४५ ॥ अचेतनमिदं दृश्य -- मदृश्यं चेतनं ततः ॥ - क रुष्यामि क्व तुष्यामि, मध्यस्थोऽहं जवाम्यतः ॥४६॥ शब्दार्थः श्रा देखातुं एवं शरीरादि जम बे ने न दे खातुं एवं श्रात्मस्वरूप चैतन्यरूप बे, माटे हुं कोना कोन खने कोना नपर संतोष करूं. तेथी दवे हुं मध्यस्थरूप पानं तु. ४६ त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् ॥ नांतर्बहिरुपादानं, न त्यागो निष्टितात्मनः ॥ ४७ ॥
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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