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( ६४ ) श्रुतज्ञानने प्रामाधिकारमां सर्व सिद्धनी स्तुति जापवी. तिचादिव वीर, नवमे दसमे य उद्ययंत थुई || हवाइ इगदिसि, सुदिठि सुरसमा चरिमे ॥४८॥
शब्दार्थः - नवमा अधिकारमां तीर्थपति श्री वीर प्रजुनी स्तुति ने दशमा अधिकारमां रेवताचलनी स्तुति जाणवी. तथा गीयारमा अधिकारमां अष्टापदादिकनो अने बेला अधि कारमा सुदृष्टि देवताना स्मरणरूप स्तुति जाणवी. ॥४५॥ नव दिगारा इह ललि विश्वरा वित्तियइ अणुसारा तिमि सुयपरंपरया, बायन दसमो इगारसमो ॥४६॥
शब्दार्थ - ए बार अधिकारमां १-३-४-५-६-७-८-७-१२- ए नव अधिकार ललित विस्तार नामना जाप्यनी वृत्ति श्रादिना अनु सारे जाणवा ने २-१०-११. ए त्रण श्रुतनी परंपराथी जाणवा. आवस्य चुलीए, जं नणियं सेसया जहिचाए ॥ ते जयंता वि, हिगारा सुयमया चैव ॥ ४ ॥ शब्दार्थः – जेम श्रावश्यक सूत्रनी चूर्णने विषे कयुं बे तेवितादि रोष अधिकार इच्छा प्रमाणे जाणवा. ते कारण माटे नचित सेल इत्यादिक गाथाथी पण ते सर्व अधिकार निश्वेश्रुत
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मय जाणवा• ॥ ४७ ॥
बी सुयचयाइ, अन्न वन्न तहिं चेव ॥ सकते पढिन, दवारिदवसरि पयमचो ॥ ४८ ॥
शब्दार्थः - बीजो श्रुतस्तवादि अधिकार अर्थथ श्रुतस्तवमां वर्णव्यो बे. वली शक्रस्तवना ते जे कहेलो बे ते द्रव्य अरिहंतमे वांदवाना अक्सरे प्रगट अर्थपणे जाणवो ॥ ४८ ॥