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(४२ ) मणुच्या दीहकालिख, दिठिवानवर सिच्या केवि ॥ हवे सामा व गाथाथी गति संज्ञा कहे . पपतिरि मणुच् चिय, च विहदेवेसु गवं ति ॥ ३३ शब्दार्थः-- मनुष्य ने दीर्घकालिकी संज्ञा होयबे ने केटलाक मनुष्यने दष्टिवादोपदेसिकी संज्ञा पण होय बे. (इति संज्ञाद्वार) पर्याप्ता पंचेंद्रिय एवा तिर्यंच ने मनुष्य निश्चे चार प्रकारना देवताने विषे जाय. ॥ ३३ ॥
संखान पत्त --दितिरियन रेसु तदेव पत्ते ॥ जूदगपत्तेयवणे, एएसुचि सुरागमणं ॥ ३४॥
शब्दार्थः – संख्याता श्रायुष्यवाला पर्याप्ता पंचेंडि तिर्यंच मनुष्य विषे, तेमज पर्याप्ता पृथ्वी काय, अप्काय ने प्रत्ये क वनस्पति काय ए पांचने विषे निश्चे देवतानुं नृत्पन्न यतुं यायडे. पत्तसंखगनय--तिरीयनरा निरयसत्तगे जंति ॥ निरवहा एए--सु उप्पति न सेसेसु ॥३५॥
शब्दार्थः - पर्याप्ता ने संख्याता श्रायुष्यवाला गर्भज तिर्यच भने मनुष्यो, सात नरकने विषे नृत्पत्र थायडे याने नरकमांथी निकलेला जीवो ए बेने विषे उत्पन्न याय बे. बाकीना ired विषे उत्पन्न न थाय. ॥ ३५ ॥ पुढवीच्या वणस्स -मने नारयविवजिया जीवा ॥ स ववति, नियनियकम्माणुमाणेणं ॥ ३६॥
शब्दार्थः - पृथ्वी काय, अप्काय अने वनस्पतिकायनी मध्ये मारकीने वर्जीने सर्वे जीवो पोत पोतानां कर्मना 'अनुमा नथ | उत्पन्न थाय बे. ॥ ३६ ॥ पुढवाइदसपएसु, पुढवाकवणस्सई जंति ॥