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________________ __ . (१७१) कोवि न अवमन्निनाश, न य गविक गुणेहिं निअएहि न य विम्दन वहिजार, बहुरयणा जेणिमा पुदवी ॥श्शा शब्दार्थः-कोश्ने पण अपमान न श्रापवं, तेम पोताना गुणथी गर्व पण न करवो. वली मनमां आश्चर्य पण न पाम. कारण के, था पृथ्वी बहु रत्मवाली . ॥ २२ ॥ आरंजिज्ज लहुअं, किज्ज कज्ज महंत मविपन्हा।। न य जकरिसो किज्जइ, लग्न गुरुअत्तणं जेण ॥२३॥ शब्दार्थ-प्रथम श्रारंज थोमो करवो अने पालथी म्होर्ट कार्य पण करवं. वली पोतार्नु नत्कृष्टपणुं न करवू के, जेथी म्होटाश्पणुं पामीये, ॥ २३ ॥ काज्जा परमप्पा, अप्पसमाणो गणिज्ज परो॥॥ किज्जन रागदोसो, बिन्निज्ज तेण संसारो ॥३॥ शब्दार्थ- परमात्मानुं ध्यान करवू, बीजाने पोतानां समान गणवा, राग द्वेष पण न करवो, तेथी संसार बेदाइ जाय . श्व नवएसरयणमालं, जो एवं ग्व सुनिअकंठे॥ सो नर सिवसुहलबा, वनयले रम सहाई॥२५॥ शब्दार्थः-जे पुरुष या प्रमाणे उपदेशरत्नमालाने पोता. ना कंठने विषे स्थापन करे; तेनां वक्षस्थलमा मोद सुखनों लक्ष्मी पोतानी का प्रमाणे कोमा करे ॥ २५ ॥ ॥इति उपदेश रत्न कोष.॥ ॥ अथ शाश्वताजिन नामादि संख्या स्तवन॥ सिरि जसहा वक्ष्माणं चंदाणण वारिसेण जिणचंदं । नमिदं सासय जिण नव-ण संख परिकित्तणं काई । शब्दार्थ-सामान्य केवलीनी मध्ये चंप समान श्री रुपन
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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