SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १०२ ) सिंगारतरंगाए, विलासवेलाइ जुवणजलाए || के के जयंमि पुरिसा, नारीनइए न बुडंति ॥३६॥ शब्दार्थ - मां शृंगार रूप कल्लोलो बे, विलास रूप वेलो बे ने जोबन रूप जल बे एवी स्त्री रूप नदीमां नथी बूडया एवा जगत्मा कोण कोण पुरुषो बे ? ॥ ३६ ॥ सोस दुरिच्प्रद, कवमकुमीमदिलिया किलेसकर] ॥ वर विशेयणरणी, दुखखाणी सुरूपमिवका ॥३७॥ शब्दार्थ:-शोकनी नदी, पापनी गुफा, कपटनी कुंमी, क्लेशनी करना ने वैररूप श्रग्निने प्रगट करवा माटे श्ररण नाकाष्ट समान एवी स्त्री दुःखनी खाद्य बे श्रने सुखनी प्रतिपक्षी (शत्रु) बे. प्रमुमिण परिकम्मो, सम्मं को नाम नासिनं तरई ॥ वम्मदसर पसरोदे, दिठिचोदे मयबीणं ॥ ३८ ॥ शब्दार्थः--नथी करी मननी सारी शुद्धि जेणे एवो कयो पुरुष मृगाक्षी स्त्रीना कामबाण वरसावनार नजरना सपाटामांथी. बरोबर रीते बच शके ? ॥ ३८ ॥ परिदरसु तन तासिं, दिठि दिहिविसस्सव यहिस्स || जं रमणि नयणबाणा, चरित्तपाणे विणासंति ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:--ते कारण माटे दे जीव ! दृष्टिविष सर्पना जेवी बे दृष्टि जेनी एवी ने जे स्त्रीनां नयन रूपी बाणो चारित्र रूप प्राणनो विनाश करे बे तेत्री स्त्रीनो तुं त्याग कर. ||३|| सिद्धंत जलहि पारं-- गवि विजिइंदिजवि सूरोवि ॥ दढचित्तो वि बलिकर, जुवइ पिसाई दि खुड्डादिं ॥४०॥ शब्दार्थ:-- सिद्धांत रूप समुद्रने पार पामेलो, विशेषे करी जीतो बे इंद्रियो जेणे, शूरो अने दृढ चित्तवालो एवो पुरुष पण युवति रूप कुद्र पिसाचणीथी बलाय . ॥ ४० ॥
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy