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________________ (१७) था कहेला आत्मस्वरूतुं ज्ञान थवा पूर्वे देहादिकने विषे प्रा. स्मबुझिना मथी म्हारुं चेष्टित हतुं. ॥१॥ यथासौ चेष्टते स्थाणौ, निवृत्ते पुरुषप्रदे॥ तथा चेष्टोऽस्मि देदादौ, विनिवृत्तात्मविन्रमः॥॥ . शब्दार्थः-जेवी रीते ( थांजलामां नत्पन्न थयेली पुरुष ब्रांतिवालो ) पुरुष, पुरुषारोप निवृत पामेला जम पदार्थमां नप कार तथा अपकार न करवारूप जे चेष्टा करे डे तेवी रीते दे. हादिकमां निवृत पामी डे पात्मन्त्रांति जेने एवी चेष्टा वालो हुं यश्श. ॥१२॥ येनात्मनानुनयेऽद-मात्मनैवात्मनात्मनि ॥ . सोऽहं न तन्न सा नासौ, नैको न छौ न वा बहुः२३ शब्दार्थः--जे चैतन्यस्वरूप श्रात्माए करीने हुँ पोतानां स्वरूपने विषे पोताने जाणवाना स्वनाववाला श्रात्मावमेज अनुन्नव करूं हूँ के, ते हुं पुरुष, स्त्री के नपुंसक नथी. वली एक बे अथवा बहु नथी, ॥२३॥ .. यदनावे सुषुप्तोऽहं, यन्नावे व्युबितः पुनः॥ .. अतींज्यिमनिर्देश्य, तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२४॥ शब्दार्थ-जे पोताने जाणवा योग्य शुरू स्वरूपने न पाम वारूप. गाढ निसाथी सूतेलो आने वलो जे पोताने जाणवा योग्य शुद्ध स्वरूपने पामवारूप जागी नठेलो ले ते ढुं इंजियोने अग्राह्य, वाणीने अगोचर अने पोताथीज जाणवा योग्य ढुं ॥ ॥ दीयंते त्रैव रागाद्या-स्तत्वतो मां प्रपश्यतः॥ बोधात्मानं ततःकश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः॥ २५॥ शब्दार्थः श्राज जन्मने विषे ज्ञान स्वरूप एवा मने तत्व
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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