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________________ ( १०६ ) देदेष्वात्मधिया जाताः पुत्रनार्यादिकल्पनाः ॥ संपत्तिमात्मनस्तानिर्मन्यते दा दतं जगत् ॥ १४ ॥ श०दार्थः - देदने विषे श्रात्मबुद्धि करवाथी पुत्र जार्यादि कल्पना थइ बे ने ते अनात्मिय कल्पनाथी पुत्र जार्यादिने आत्मानी संपत्ति माने बे. हाय हाय ! एज कारणे पोतानां स्वरूपना ज्ञानथी नृष्ट थयेलुं जगत् नाश पाम्युं डे अर्थात् बहिरात्मा रूप बन्युं छे. ॥ १४ ॥ मूलं संसारः खस्य, देह एवात्मधोस्ततः ॥ वक्त्वनां प्रविशेत्तर्व हिरव्यावृत्तेंद्रियः ॥ १५ ॥ ३ शब्दार्थः-- शरीर एज आत्मा एवी जे बुद्धि तेज संसारना दुःखनुं कारण बे माटे ते शरीर एज आत्मा एवी बुद्धिने त्यजी दइ बहार प्रवृत्त ने इंद्रियो जेनी एवो पुरुष अंतर मां प्रवेश करे बे. अर्थात् आत्माने विषे आत्मबुद्धि करे बे ॥ १५ ॥ मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम् ॥ तान्प्रपद्यादमिति मां, पुरा वेद न तत्त्वतः ॥ १६ ॥ शब्दार्थ- पोताथी ( श्रात्मस्वरूप यं । ) चवीने हूं इंद्रियद्वारे करीने विषय विषे पलो ढुं. अर्थात् प्रवृत्त ययेलो बुं. माटे ते विषयाने ( मने उपकार करनारा बे, एवा विचारथी ) अंगीकार करीने अनादि कालयी हुं मने पोताने तत्वथ जाण तो नयी ॥ १६ ॥ एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं, त्यजेदंतरशेषतः ॥ एष योगः समासेन, प्रदीपः परमात्मनः ॥ १७ ॥ शब्दार्थ:--ए प्रमाणे कला न्यायथी पुत्र, स्त्री, धन धा•न्यादि लक्षणवाली वहिर्वाणीने त्यजी दइने पढो ( हुं कर्त्ता हुं
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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