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________________ ( ५६ ) ने परिक्कम ए बन्ने करवां, विवेक राखवो, कायोत्सर्ग कर घो, वली तप, व्रत पर्यायच्छेद, सर्व व्रत पर्यायछेक क्षेत्रव्हार, तथा लींगव्हार रहेतुं ॥ ४५ ॥ हार वे विनयनुं स्वरूप कहे बे. ( आर्यावृत्तम् ) ती बहुमाणो व- सजणणं जासणमन्नवायस्स आसायण परिहाणो, विपन संखेवर्ड एसो 114011 शब्दार्थः - जक्ती करवी, हृदयमां प्रेम राखवो, गुरा गावा, श्रवर्णवादनुं गोपaj, आशांतनानो त्याग करवो. ए प्रमाणे संकेपथी विनय को बे. ॥ ५० ॥ हवे दश प्रकारे वैयावच्च कहे बे. आयरियनवद्याय - तव स्सिसे हे गिलाणसासु ॥ समणुन्नसंघ कुलगण -- वेयावच्चं हवई दसहा ॥ ५२ ॥ शब्दार्थः - आचार्यनी उपाध्यायनी, तपस्वीनी, शिष्यानी, रोगीनी, साधुनी, साधर्मीनी, संघनी, एक साधुनी ने गणनी एम वैयावच्च दश प्रकारे थाय छे. ॥ ५१ ॥ . हवे ध्यानना जेद कहे बे. घाणं च विदं खलु, अत्तं रूदं तदेव धम्मं च ॥ सुक्कं पुण पत्तेयं, चक्रविदं चैव नाय ॥ ५२ ॥ शब्दार्थः ध्यान निश्चय चार प्रकारनुं बे. आर्तध्यान, रौअध्यान तेमज धर्मध्यान थने शुक्लध्यान वली ते प्रत्येक चार प्रकारनुं निश्चय जावुं ॥ ५२ ॥ - हवे निर्जरा तत्त्वनो विचार कहे छे.. बारसविहं तवो नि-राय बंधो य चजविगप्पोय ॥ पयश्वी जागो-पयेसनेएहिं नायबो ॥५३॥
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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