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(१४७) प्र० जय शुं ? उ माया; प्र शरण करवा योग्य शुं ? उस. त्य; प्र० फुःख शुं ? न० लोन; प्र० सुख शुं ? नु संतोष. बुझिअचमनयए विणीयं, कुछ कुशीलं नयए अकित्ति॥ संनिन्नचित्तं नयए अतबी, सबेहोयं संनयर सिरिय ५
शब्दार्थः--बुद्धि सरल अने विनयवंतने सेवे डे क्रोध तथा कृ. शीलने अकोर्ति सेवे डे, नग्न चित्तवालाने अलक्ष्मी (निर्धनपणुं) सेवे ने श्रने सत्यमा रहेलाने सर्व प्रकारे लक्ष्मो सेवे ॥५॥ चयंति मित्ताणि नरं कयध्धं, चयंति पावाइ मुणिं जयंतं॥ चयंति सुक्काणि सराणि हंसा, चएइ बुद्धि कुवियं मणुस्सं
शब्दार्थः-कृतघ्न माणसने मित्रो त्यजी दे ले जितेंज्यि मुनिने पापो त्यजो दे , सूका गयेखा तलावने इंसो त्यजो दे डे श्रने क्रोधवाला माणसने बुद्धि त्यजी दे ॥६॥ असंपदारे कहिए विलावो, अश्यले कहिए विलावो विरिकतचित्ते कहिए विलावो,बहुकुसोसे कहिए विलावो
शब्दार्थः-प्रसावधानने धर्मादि कहे ते विलाप , गइ वातनुं कहे ते विलाप डे, खेदचित्तवालाने हित वचन कहेवू ते विलाप डे अने कुशिष्यने बहु कहेवु ए पण विलाप . ॥७॥ उष्टाहीवा दंपरा हवंति, विजाहरा मंतपरा हवंति ॥ मुरका नरा कोवपरा दवंति, सुसाहुणो तत्तपरा दवंति G __ शब्दार्थः-इष्ट राजाले दंग करवामां तत्पर होय बे, विद्यावंत पुरुषो मंत्र साधनमां तत्पर होय , मूर्ख पुरुषो क्रोध क. रवामां तत्पर होय छे अने उत्तम साधुन तत्व ग्रहण करवामां तत्पर होय . ॥ ७॥ सोहानवे जग्गतवस्स खंतो, समादिजोगोपसमस्यसोहा।