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________________ ( १४ ) शब्दार्थः चेतना, त्रस ने स्थावर ए जेदोए करीने वली त्रण वेद, चार गति, पांच इंद्रिय थने व काये करीने जीवो एक प्रकारना, वे प्रकारना, ऋण प्रकारना, चार प्रकारना, पांच प्रकारना व प्रकारना छाने जाणवा. ॥ ३ ॥ वे बीजा प्रकारथी जीवतवना चौद नेद कहे बे. एगिंदिय सुहुमियरा, सन्नियरपिंदियाय य सबितिचकं॥ अपजत्ता पत्ता, कमेण चउदस जियठाणा ॥ ४ ॥ शब्दार्थः सूक्ष्म ने वादर एवा एकेंद्रिय, बादर बेइंद्रिय, तेरिंडियाने चरिंद्रिय, संझी ने श्रसंज्ञी पंचेंद्रिय एसात जेद पर्याप्ता अने पर्याप्ता. जेथी अनुक्रमे जीवना चौद जेद होय ॥ हवे जीवनुं लक्षण कहे बे. (अनुष्टुप् वृत्तम् ) नाणं च दंसणं चैव, चरितं च तवो तदा ॥ वीरियं वनगो अ, एअं जीवस्स लकणम् ॥ ५ ॥ शब्दार्थः - ५ ज्ञान, ४ दर्शन, ७ चारित्र छाने २ तप तेमज २ वीर्य ने १२ उपयोग ए प्रकारे जीवनुं लक्षण बे. ॥ ५ ॥ हवे पर्याप्तिनुं स्वरूप कहे बे. ( श्रार्यावृत्तम् ) आदार शरीर इंदिय, पती आणपाणनासमणे ॥ चन पंच पंच बप्पा, इग विगलास न्नि सन्नियं ॥६॥ शब्दार्थः – आहारपर्याप्त), शरीरपर्याप्ती, इंद्रियपर्याप्तो, श्वासो पर्याप्ती, भाषापर्याप्ती, मनपर्याप्ती. तेमां चार पर्याप्ती एकेंडियनो, पांच पर्याप्ती विकलेंडियनी, पांच पर्याप्त असं झीमी ने पर्याप्त संज्ञी जीवोनी होय बे ॥ ६ ॥
SR No.023442
Book TitlePrakaranmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Vadhvanwala
PublisherBhogilal Tarachand Shah
Publication Year1909
Total Pages242
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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