Book Title: Pragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प लेखक उपाध्याय श्री अमरमुनि वीरायतन, राजगीर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प उपाध्याय श्री अमरमुनि वीरायतन, राजगीर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प Print Sponsored by Jairaj Tarun Kamani grandson of late Sh. Bhupat Rai Kamani, Kolkata All Publication Rights Reserved with VEERAYATAN Rajgir-803116 Dist, Nalanda, Bihar, India प्रवचनकारः राष्ट्रसंत उपाध्याय कविरत्न श्री अमरचन्द्र महाराज मुद्रकः गोपसन्स पेपर्स लिमिटेड, नोएडा संस्करणः परिवर्द्धित एवं संशोधित तृतीय संस्करण, 2000 प्रति प्रकाशन-तिथि 30/09/2009 मूल्यः 50 रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण" +++++++++++ +++++++++++ प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प का अमृतपान सस्नेह समर्पित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसन्त कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज आशीर्वाद प्रदाता राष्ट्रसन्त उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज प्रबुद्ध विचारक, प्रज्ञा - पुरूष, तत्वज्ञ, महान दार्शनिक, साहित्य-शिल्पी एवं प्रखर वक्ता थे । आपका आगम, दर्शन, साहित्य एवं सैद्वान्तिक अध्ययन किसी पन्थ - परम्परा के क्षुद्र दायरे में सीमित नहीं था। समग्र भारतीय दर्शन एवं धर्मग्रन्थों के गम्भीर चिन्तन के साथ आगम तलस्पर्शी अध्ययन था । संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, बंगला और उर्दु भाषाओं के आप प्रकाण्ड विद्वान थे। जैन आगम, निर्युक्ति, चूर्णि, भाष्य एवं संस्कृत टीकाओं और जैन दर्शनशास्त्र का उन्होने गम्भीर अध्ययन किया था और उसके साथ ही वेद, आरण्यक, उपनिशद, गीता, वैदिक दर्शन, बौद्व दर्शन एवं त्रिपिटक का भी सांगोपांग अध्ययन किया था वे भारतीय वाड:मय के महान अध्येता, व्याख्याता एवं विवेचक थे और जीवन पर्यन्त आपकी पारदर्शी चिन्तन-धारा सतत प्रवहमान रही । विचार चिन्तन एवं निर्द्वन्द्वभाव से उसकी सही अभिव्यक्ति करना आपका सहज स्वभाव था। आपका वज्र उद्घोश रहा- धर्म परम्परागत चले आ रहे बाा आचार के विधि - निषेधपरक क्रिया-काण्डों में नहीं हैं। वह है, विवेक में, प्रज्ञा में, और अन्तर के भाव में । धर्म किसी स्थान, काल, वेश-भूषा एवं क्रिया - काण्डों में नहीं हैं, वह अक्षुण्ण, अखण्ड दिव्य आत्म-ज्योति है, जो जीवन के हर व्यवहार में झलकती रहनी चाहिए। उसे जीवन की धारा से अलग करना धर्म से विमुख करना हैं । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री चन्दनाजी आशीर्वादस्वरूपा एवं प्रेरणादायिणी दृढ़ता एवं साहस की साक्षात् प्रतिमूर्ति । कोमल किन्तु प्राप्त श्रम से कभी न थकनेवाली। बाधाओं से कभी न रूकनेवाली अजस्त्र गतिशील धारा। कला की देवी। रचनात्मक धर्म की प्रस्तोता। नई पीढ़ी की आशा। हर समस्या का समाधान। वीरायतन की संस्थापिका आचार्य श्री चन्दनाश्रीजी। भगवान् महावीर की पुण्य-स्मृति में प्रतिष्ठापित हमारी श्रद्वा का प्रतीकात्मक आदर्श ज्योति केन्द्र, धर्म, संस्कृति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की समस्याओं में अपना समीचीन समाधान प्रस्तुत कर जन जीवन के आध्यात्मिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक विकास और उत्थान की दिशा में निरन्तर प्रयासरत हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् प्रजामहर्षि राष्ट्रसंत पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज के ज्ञानमन्त्र - “ मनोपलापनयनार्थं, प्रातः सायं निरन्तरम् । स्वाध्यायामृतगंगायां, स्नातव्यं सर्वबन्धुभिः ॥ " के साथ नियमित रूप से स्वाध्याय किया है, जिससे प्राचीनकाल के तथा वर्तमानकालीन महामनीषियों का उनकी विशिष्टतम रचनाओं के माध्यम से साक्षात्कार हुआ है। और, मैंने पाया कि अमरमुनि बस अमरमुनि हैं। वे साक्षात् ज्ञान के पुञ्ज हैं। उनकी प्रखर तेजस्वी प्रज्ञारश्मियों से जीवन का कोई पहलू अछूता नहीं रहा। उनकी ऋतम्भरा प्रज्ञा में सत्य ही केवल उजागर हुआ है। उस पर कभी भी रूढ़-परम्परा सम्प्रदाय, दुराग्रह या सामाजिक भय के बादलों को मण्डराते हुए नहीं देखा गया। उनकी प्रज्ञा किसी प्रकार के मल से धूमिल या आच्छादित नहीं हुई। अतः पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक विषयों की तरह ही शास्त्रीय विषयों का भी सत्याभिमुख निरावृत्त लेखन उनकी विशेषताओं का निखार है। जिज्ञासु मुमुक्षुओं के आग्रह से " प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा" इस नाम से पुनः प्रकाशित हो रहा है। हार्दिक प्रसन्नता है। पूज्य गुरुदेव की प्रस्तुत पुस्तक निश्चित रूप से ज्ञान के परिष्कार एवं परिशोधन के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । संघ स्थापना दिवस 15/05/2009 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प आचार्य चन्दना वीरायतन, राजगीर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन आदरणीय श्री नवलमल फिरोदिया, जिन्हें सम्मान और आत्मीयता के साथ सभी "बाबा" कहते थे। "बाबा" के जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में “प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा” ग्रन्थ का प्रकाशन जिज्ञासु साधकों के लिए करते हुए परम प्रसन्नता हो रही हैं। प्रज्ञामहर्षि पूज्य गुरूदेव की अध्यात्मिक ऊँचाई, प्रखर ज्ञान, विश्वव्यापी आधुनिक मौलिक चिन्तन से अभिभूत थे। आचार्य चन्दनाश्रीजी की अजस्र करूणा, प्राणवान कार्यऊर्जा एवं सत्यानुलक्षी प्रज्ञा से प्रभावित थे। वीरायतन जब जब आते थे, प्रत्येक प्रवति में रसपूर्ण अभिरूचि से कार्य करते हुए भी घंटो पूज्य गुरूदेव के साथ गहरी ज्ञान चर्चा में निमग्न रहते थे। परम पूज्य गुरुदेव की ज्ञान संपदा को ग्रहण करने वाले योग्यतम व्यक्ति कोई हैं, तो सबको लगता था, वे “बाबा” है। बाबा का भी अत्यधिक आग्रहपूर्वक मन था पूज्य गुरूदेव के विचारों का प्रचार प्रसार हो। परम पूज्य गुरूदेव के क्रांतिकारी विचारों से लेखो का संकलन करके “पण्णा समिक्खए धम्म” पुस्तक को प्रथम आवृति, आदरणीय बाबा ने प्रकाशित की थी। -वीरायतन परिवार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नवलमल फिरोदिया जी मनोगत भौतिक विज्ञान ने नेत्रदीपक प्रगति की है। विज्ञान की हर एक करामात प्रयोगसिद्ध है। अतः धार्मिक, नैतिक, सामाजिक मान्यताएँ जब बुद्धि की अथवा अनुभूति की कसौटी पर नहीं उतरती तो आधुनिक जगत उनपर विश्वास रखने को अथवा उनको मानने को तैयार नहीं होता। ___ इसी प्रेक्ष में जैन समाज में भी शिक्षित एवं युवा पीढ़ी अर्थहीन परंपराएँ, क्रिया-कांड अथवा मान्यताओं के प्रति सर्वथा उदासीन है। इसका दायित्व अहंमन्य धर्मप्रमुखों की वैचारिक प्रतिबद्धता और जड़ता पर है। अपनी सांप्रदायिक प्रतिष्ठा और सस्ती लोकप्रियता बनी रहे, इसलिये वे अपने अनुयायिओं की अंधश्रद्धा का पोषण कर उनके अज्ञान को सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं। वे शास्त्र वचनों के आधार का आविर्भाव करते हैं, परन्तु शास्त्र किसको मानना चाहिए, शास्त्र की परिभाषा क्या है, शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय क्या है, इनकी प्रमाणित, तर्कसंगत तथा तत्त्वसंगत चर्चा करना टालते हैं। आचार तथा विचारों में क्या श्रेय है, क्या हेय है, ऐसे प्रश्न अनेकानेक बार भूतकाल में उपस्थित हुये, वर्तमान में भी हैं, और भविष्य में भी होते रहेंगे। इनका निर्णय कैसे किया जाय? क्या परंपरा और मान्यताओं के आधार पर किया जाय? क्या संदर्भ रहित शास्त्र वचनों के आधार पर किया जाय? । भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही श्रावस्ती नगरी में पार्श्वनाथ परंपरा के चतुर्थ पट्टधर केशी कुमार श्रमण ने गणधर गुरु गौतम के सामने ऐसे ही Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार विचार के प्रश्न उपस्थित किये थे। तब गुरु गौतम ने ऐसे प्रश्नों का निर्णय किस आधार पर करना चाहिये यह अत्यंत स्पष्टता से बताया है। उन्होंने महापुरुषों की परम्परा अथवा शास्त्रों की दुहाई नहीं दी। उन्होंने कहा - पण्णा समिक्खए धम्मं तत्तं तत्त विनिच्छय।। (उत्तराध्ययन 23/25) विनाणे समागम्म धम्म साहणमिच्छिय।। (उत्तराध्ययन 23/31) "अपनी निजी प्रज्ञा से काम लो। देश काल के परिवेश में पुरागत मान्यताओं को परखो। प्रज्ञा ही धर्म के सत्य की सही समीक्षा कर सकती है। तत्त्व और अतत्त्व को परखने की प्रज्ञा एवं विज्ञान के सिवा और कोई कसौटी नहीं है"। प्रज्ञा याने गहराई से तत्त्व को जानने की क्षमता। विज्ञान याने चिंतन और अनुभूतिजन्य विशेष ज्ञान। इनको उपार्जन करने के लिए सत्यनिष्ठा से, तटस्थ भाव से, उन्मुक्त चिंतन मनन करना चाहिये। यह वे ही कर सकते हैं, जिन्होंने विविध तत्त्वज्ञान प्रणालियों का गहराई से तौलनिक अध्ययन एवं सतत मंथन किया हो और जिनकी वृत्ति गंभीर, शिव और सौम्य हो 'ससमय परसमय विऊ गंभीरो दित्तिमं शिवो सोमो' । परमपूज्य गुरुदेव उपाध्याय कविश्री अमर मुनिजी प्रगाढ़ विद्वान एवं मूलग्राही प्रखर विचारक है। ज्ञान तथा विज्ञान के अथाह सागर की गहराइओं में उतरकर उन्होंने अपनी प्रखर प्रज्ञा से, अनुभूतियों से चिंतन, मनन तथा मंथन करके रसग्रहण किया हैं आप प्रज्ञामहर्षि है। आपकी विचारधारा सत्यान्वेषी, स्वतंत्र एवं क्रांतिकारी है। वर्तमान में धर्म के नाम पर परम्परा और क्रियाकाण्ड के जंजाल खड़े कर भ्रांतियाँ फैलायी जाती हैं। पूज्य गुरुदेव ने ऐसे अनेकों विषयों एवं मामलों की अपनी प्रखर प्रज्ञा से समीक्षा कर विचार प्रवर्तक एवं प्रमाणों के साथ समय समय पर लिखा है। ऐसे कुछ लेखों का संग्रह प्रकाशित किया जाय ऐसी जिज्ञासुओं की बड़े प्रमाण पर मांग रही है। उसकी पूर्ति के लिये 'वीरायतन' का यह अल्प प्रयत्न है। आशा है समाज को संभ्रमित करने वाली अनेक भ्रांत मान्यताओं एवं विवाद्य विषयों को समझने में इस प्रकाशन का ग्राह्य होगा। -नवलमल फिरोदिया Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "प्रज्ञासे धर्म की समीक्षा " पुस्तक में प्रज्ञामहर्षि पूज्य गुरूदेव राष्ट्रसन्त उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज के क्रान्तिकारी विचारपूर्ण लेखो का संकलन हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में आप देखेगें पूज्य गुरूदेव की सत्यानुलक्षी प्रज्ञा ने महावीर के सिध्दान्तों को जीया है। वे साक्षात् ज्ञानमूर्ति हैं। ज्ञान सागर उन्होने मथा हैं। अतः प्रबुद्ध मनीषी, ज्ञानपिपासु मुमुक्षुओं प्रस्तुत पुस्तक के लिए अत्याग्रह था। ज्ञान सागर की गहराई से प्राप्त मणिमुक्ताओं के प्रकाश में साध् क रूढिवादिता एवं भ्रान्तियों के कुहासे में अपनी साधना आसानी से कर सकेगा। इस विश्वास के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन हो रहा है। पूज्य गुरूदेव के आशीर्वाद से एवं आचार्य चन्दनाश्री जी की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में वीरायतन ने तीर्थक्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं में, सेवा शिक्षा के क्षेत्र में बहुआयामी कार्य किया है। आचार्यश्रीजी की प्रेरणा से वीरायतन साहित्य प्रकाशन में कार्यरत हैं । सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा गत 50 वर्ष से पूज्य गुरूदेव के साहित्य का प्रकाशन कर रहा है। मौलिक साहित्य प्रकाशन में सन्मति ज्ञानपीठ का महत्वपूर्ण योगदान है। सुगाल एण्ड दामाणी, चैन्नई ने भी पूज्य गुरूदेव के साहित्य का प्रकाशन किया है जिसे विद्वतवर्ग एवं सामान्य लोगों ने बहुत पसंद किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्रकाशन में भी वीरायतन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष श्री सुगालचंदजी एवं उनके पुत्र श्री प्रसन्न और श्रीमति किरण (सुगाल एण्ड दामाणी) का महत्वपूर्ण आत्मीय सहयोग प्राप्त हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रायोजक श्री जयराज तरूण कामाणी का वीरायतन परिवार की ओर से अभिनंदन करता हूँ। उन्होने श्री भूपतभाई की स्मृति में पूज्य गुरूदेव के इस सैद्धान्तिक ग्रन्थ का प्रकाशन कराया हैं । प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय भूपतराय हीराचन्द कामाणी भव्यात्मा के प्रति, उनके सत्कर्म के प्रति प्रमोदभाव एवं जन-जन में सद्भाव का प्रचार हो, इस भाव से पिताश्री भूपतभाई के प्रति ज्ञानवर्द्विनी श्रद्धांजली अर्पित की है। यह एक आदर्श प्रस्तुत किया है। ___ 12/5/1925 को अमरेली सौराष्ट्र निवासी श्री भूपतभाई कामाणी बचपन में ही माता पिता तथा चार बहनों के साथ बंगाल आये और कलकत्ता को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। पिता के स्वर्गवास के बाद 16 वर्ष की उमर में व्यवसाय संभाला और माताश्री कंकुबेन के धार्मिक, सामाजिक सेवा के संस्कार इतने प्रबल थे कि 19 वर्ष में समाजसेवा का व्रत धारण कर लिया। धर्मपत्नी श्री सविता बेन ने पूरा साथ दिया। 1936 में महात्मा गांधी से सम्पर्क क्या हुआ कि जीवन ही बदल गया। 1947 के हिन्दु-मुस्लिम दंगो में जहाँ दोनो समुदाय के लोग मरने मारने को तत्पर थे वहां शक्ति-संपन्न मजबूत इरादे वाले भूपतभाई अपने साथियों के साथ रातदिन ट्रको में उन्हें सुरक्षित स्थान पर लाकर भोजन, वस्त्र, आवास आदि की व्यवस्था महिनों तक प्रदान करायी। परम्पूज्य गुरूदेव एवं आचार्य श्री जी के प्रति अनन्य श्रद्धाभक्ति तथा उनके क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित थे। अतः वे किसी पन्थ, सम्प्रदाय में आबद्व नहीं थे। विभिन्न धर्मों एवं जातियों द्वारा संचालित अनेक धार्मिक सामाजिक संस्थाओं, विद्यालयों, अस्पतालों एवं सामाजिक कार्यो में महत्वपूर्ण योगदान देकर उन्हें यशस्वी एवं प्रगतिशील बनाया। गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी जैन समाज, बंगाल का प्रबुद्ध वर्ग इनकी सेवाओं की मुक्त मन से Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसा करता है। सभी अपना आत्मीय मानते है। कामाणी जैन भवन, भवानीपुर कलकत्ता के 16 वर्ष तक वे प्रमुख पद पर रहें। रूढ़ पंरपरावदियों की आलोचना सहकर संस्था को सफलता के शिखरों पर पहुंचाया। उनकी दृष्टि में व्यक्ति की अपेक्षा संस्था का हित सर्वोपरि था। __ अपनी गुरू-भक्ति और सेवा के संस्कारो की पावन गंगा को उन्होंने पूरे परिवार में प्रवाहित रखा। श्री भूपतभाई की तरह ही उनके सुयोग्य पुत्र, पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, पौत्र, पौत्रियाँ आदि सभी वीरायतन के प्रति समर्पित हैं। श्रध्देय आचार्यश्रीजी के हम सदैव ऋणी रहेगें। उनके आर्शीवाद से यह प्रकाशन संभव हो सका हैं। आशा है, चिन्तनशील प्राज्ञचेता जिज्ञासु प्रस्तुत पुस्तक का अवश्य लाभ उठायेंगे। तनसुखराज डागा महामंत्री वीरायतन शरद् पूर्णिमा, 3 अक्टुबर 2009 श्री तनसुखराज डागा - प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम 1. पण्णा समिक्खए धम्म 2. क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 3. क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका समाधान ___ भगवान् महावीर ने गंगा महानदी क्यों पार की? 5. भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 6. धर्मयुद्ध का आदर्श 7. ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत् अग्नि है? 8. पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 9. पर्युषण और केशलोच 106 137 10. शास्त्रीय विचार चर्चा : दीक्षाकालीन केशलोचः कहाँ गायब हो गया? 153 11. कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा 161 12. यह एक नया पागलपन 170 174 13. आज की महती अपेक्षा : परिवार नियोजन 14. सन्मति-तीर्थ की स्थापना 179 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णा समिक्खए धम्म धर्म शब्द जितना अधिक व्यापक स्तर पर प्रचलित है और उसका उपयोग किया जा रहा है, उतनी ही उसकी सूक्ष्मतर विवेचना नहीं की जा रही है। इस दिशा में उचित प्रयत्न जो अपेक्षित हैं, वे नहीं के बराबर हैं और जो कुछ हैं भी, वे मानव चेतना को कभी-कभी धुंधलके में डाल देते हैं। धर्म क्या है? इसका पता हम प्रायः विभिन्न मत-पंथों, उनके प्रचारक गुरुओं एवं तत्तत् शास्त्रों से लगाते हैं। और, आप जानते हैं, मत-पंथों की राह एक नहीं है। अनेक प्रकार के एक-दूसरे के सर्वथा विरुद्ध क्रिया-काण्डों के नियमोपनियमों में उलझे हुए हैं, ये सब। इस स्थिति में किसे ठीक माना जाए और किसे गलत? धर्म गुरुओं एवं शास्त्रों की आवाजें भी अलग-अलग हैं। एक गुरु कुछ कहता है, तो दूसरा गुरु कुछ और ही कह देता है। इस स्थिति में विधि-निषेध के विचित्र चक्रवात में मानव-मस्तिष्क अपना होश खो बैठता है। वह निर्णय करे, तो क्या करे? यह स्थिति आज की ही नहीं, काफी पुरातन काल से चली आ रही है। महाभारतकार कहता है-श्रुति अर्थात् वेद भिन्न-भिन्न हैं। स्मृतियों की भी ध्वनि एक नहीं है। कोई एक मुनि भी ऐसा नहीं है, जिसे प्रमाण रूप में सब लोक मान्यता दे सकें। धर्म का तत्त्व एक तरह से अंधेरी गुफा में छिप गया है " श्रुतिर्विभिन्ना - स्मृतयो विभिन्नाः नैकोमुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् । विश्व जगत् में यत्र-तत्र अनेक उपद्रव, विरोध, संघर्ष, यहाँ तक कि नर-संहार भी अतीत के इतिहास में देखते हैं। आज भी इन्सान का खून बेदर्दी से बहाया जा रहा है। अतः धर्म-तत्त्व की समस्या का समाधान कहाँ है, इस पर कुछ-न-कुछ चिन्तन करना आवश्यक है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव, धरती पर के प्राणियों में सर्व-श्रेष्ठ माना गया है। उससे बढ़कर अन्य कौन श्रेष्ठतर प्राणी है? स्पष्ट है, कोई नहीं है। चिन्तन-मनन करके यथोचित निर्णय पर पहुँचने के लिए उसके पास जैसा मन-मस्तिष्क है, वैसा धरती पर के किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। मानव अपनी विकास-यात्रा में कितनी दूर तक और ऊँचाइयों तक पहुँच गया है, यह आज सबके सामने प्रत्यक्ष है। कोई स्वप्न या कहानी नहीं है। आज मानव ऊपर चन्द्रलोक पर विचरण कर रहा है और नीचे महासागरों के तल को छू रहा है। एक-एक परमाणु की खोज जारी है। यह सब किसी शास्त्र या गुरु के आधार पर नहीं हुआ है। इसका मूल मनुष्य के मन की चिन्तन-यात्रा में ही है। अतः धर्म-तत्त्व की खोज भी इधर-उधर से हटाकर मानव-मस्तिष्क के अपने मुक्त चिन्तन पर ही आ-खड़ी होती है। यह मैं नई बात नहीं कर रहा हूँ। आज से अढाई हजार वर्ष से भी कहीं अधिक पहले श्रावस्ती की महती सभा में दो महान् ज्ञानी मुनियों का एक महत्त्वपूर्ण संवाद है। मुनि हैं –केशी और गौतम। मैं देखता हूँ कि उक्त संवाद में कहीं पर भी अपने-अपने शास्ता एवं शास्त्रों को निर्णय के हेतु बीच में नहीं लाया गया है। सब निर्णय प्रज्ञा के आधार पर हुआ है। वहाँ स्पष्ट है, जो गौतम के द्वारा उपदिष्ट है कि प्रज्ञा के द्वारा ही ध र्म की समीक्षा होनी चाहिए। सूत्र है-"पण्णा समिक्खए धम्म" अर्थात् प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा करने में समर्थ है। और धर्म है भी क्या? तत्त्व का अर्थात् सत्यार्थ का विशिष्ट निश्चय ही धर्म है। और यह विनिश्चय अन्ततः मानव की प्रज्ञा पर ही आधारित है। शास्त्र और गुरु संभवतः कुछ सीमा तक योग दे सकते हैं। किन्तु, सत्य की आखिरी मंजिल पर पहुँचने के लिए तो अपनी प्रज्ञा ही साथ देती है। 'प्र' अर्थात् प्रकृष्ट, उत्तम, निर्मल और 'ज्ञा' अर्थात् ज्ञान। जब मानव की चेतना पक्ष-मुक्त होकर इधर-उधर की प्रतिबद्धताओं से अलग होकर सत्याभिलाषी चिन्तन करती है, तो उसे अवश्य ही, धर्म तत्त्व की सही दृष्टि प्राप्त होती है। यह ऋतम्भरा प्रज्ञा है। ऋत् अर्थात् सत्य को वहन करने वाली शुद्ध ज्ञान चेतना। योग दर्शनकार पतंजलि ने इसी संदर्भ में एक सूत्र उपस्थित किया है-'ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा', 1, 48. उक्त सूत्र की व्याख्या भोजवृत्ति में इस प्रकार है "ऋतं सत्यं विभर्तिं कदाचिदपि न विपर्ययेणाच्छाद्यते सा ऋतंभरा प्रज्ञा तस्मिन्सति भवतीत्यर्थः।" 2 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जो कभी भी विपर्यय से आच्छादित न हो, वह सत्य को धारण करने वाली प्रज्ञा होती है। माना कि साधारण मानव की प्रज्ञा की भी एक सीमा है। वह असीम और अनन्त नहीं है। फिर भी उसके बिना यथार्थ सत्य के निर्णय का अन्य कोई आधार भी तो नहीं है। अन्य जितने आधार हैं, वे तो सूने जंगल में भटकाने जैसे हैं और परस्पर टकराने वाले हैं। अतः जहाँ तक हो सके अपनी प्रज्ञा के बल पर ही निर्णय को आधारित रखना चाहिए | अन्तिम प्रकाश उसीसे मिलेगा। शास्त्रों से भी निर्णय करेंगे, तब भी प्रज्ञा की अपेक्षा तो रहेगी ही। बिना प्रज्ञा के शास्त्र मूक हैं? वे स्वयं क्या करेंगे। इस सम्बन्ध में एक प्राचीन मनीषी ने कहा है- “ जिस व्यक्ति को अपनी स्वयं की प्रज्ञा नहीं है, उसके लिए शास्त्र भी व्यर्थ है। शास्त्र उसका क्या मार्गदर्शन कर सकता है? अन्धा व्यक्ति यदि अच्छा-से-अच्छा दर्पण लेकर अपना मुख मण्डल देखना चाहे, तो क्या देख सकता है" " यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पण : किं करिष्यति ।। शास्त्र के लिए प्राकृत में 'सुत्त' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके संस्कृत रूपान्तर अनेक प्रकार के हैं, उनमें सुत्त शब्द का एक संस्कृत रूपान्तर सुप्त भी होता है। यह रूपान्तर अच्छी तरह विचारणीय है। सुत्तं अर्थात् सुप्त है, यानी सोया हुआ है। सोया हुआ कार्यकारी नहीं होता है। उसके भाव को एवं परमार्थ को जगाना होता है और वह जागता है, चिन्तन एवं मनन से अर्थात् मानव की प्रज्ञा ही उस सुप्त शास्त्र को जगाती है। उसके अभाव में वह केवल शब्द है, और कुछ भी नहीं । अतः प्राचीन विचारकों ने शास्त्र के साथ भी तर्क को संयोजित किया है। संयोजित ही नहीं, तर्क को प्रधानता दी गई है। प्राचीन मनीषी कहते हैं कि, जो चिन्तक तर्क से अनुसंधान करता है, वही धर्म के तत्त्व को जान सकता है, अन्य नहीं । युक्ति - हीन विचार से तो धर्म की हानि ही होती है। “यस्तर्केणानुसंधत्ते, स धर्मे वेद नेतरः । युक्तिहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते ।। " प्रस्तुत संदर्भ में मेरा भी एक श्लोक है, जिसका अभिप्राय है कि शास्त्रों को अच्छी तरह स्पष्टतया चिन्तन करके ही ग्रहण करना चाहिए । चिन्तन के द्वारा पण्णा समिक्ख धम्मं 3 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही शास्त्र शिवत्व की उपलब्धि का हेतु होता है। चिन्तन के अभाव में केवल शब्द- प्रधान शास्त्र शिव नहीं, अपितु शव ही रह जाता है। शव अर्थात् मृत, मुर्दा मृत को चिपटाये रहने से अन्ततः जीवित भी मृत ही हो जाता है। मृत की उपासना में प्राणवान ऊर्जा कैसे प्राप्त हो सकती है? 44 " शास्त्रं सुचिन्तितं ग्राह्यं, चिन्तनाद्धि शिवायते । अन्यथा केवलं शब्द प्रधानं तु शवायते ।। " भारतीय चिन्तन - धारा में प्रज्ञावाद का नाद अनुगुंजित है । बौद्ध - साहित्य तो प्रज्ञापारमिता का विस्तार से वर्णन है ही । जब तक प्रज्ञा पारमिता को नहीं प्राप्त कर लेता है, तब तक वह बुद्धत्व को नहीं प्राप्त हो सकता। जैन - संस्कृति में भी प्रज्ञा पर ही अनेक स्थानों में महत्त्वपूर्ण बल दिया गया है। स्वयं भगवान् महावीर के लिए भी प्रज्ञा के विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं। बहुत दूर न जाएँ, तो सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध का वीरथुई नामक अध्ययन हमारे समक्ष है। उसमें गणधर सुधर्मा कहते हैं से भून्ने - वे महान् प्रज्ञावाले हैं। कासव आपन्ने - महावीर साक्षात् सत्य के द्रष्टा आसुप्रज्ञावाले हैं। से पन्नया अक्खय सागरे वा वे प्रज्ञा से अक्षय सागर के समान हैं। - अन्यत्र भी आगम साहित्य में प्रज्ञा शब्द का प्रयोग निर्मल ज्ञान - चेतना के लिए प्रयुक्त है। यह प्रज्ञा किसी शास्त्र आदि के आधार पर निर्मित नहीं होती है। यह ज्ञानावरण कर्म के क्षय या क्षयोपशम से अन्त:स्फूर्त ज्ञान - ज्योति होती है। वस्तुत: इसी के द्वारा सत्य का साक्षात्कार होता है। इसके अभाव में कैसा भी कोई गुरु हो, और कैसा भी कोई शास्त्र हो, कुछ नहीं कर सकता। इसीलिए भारत का साधक निरन्तर 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के प्रार्थना सूत्र की रट लगाए रहता है। अज्ञान ही तमस् है और तमस् ही मृत्यु है । बुद्ध इसे प्रमाद शब्द के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। कहते हैं - प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत है'अप्पमाओ अमतपदं, पमाओ मच्चुनो पदं । " धम्मपद, 2, 1. यह अप्रमाद क्या है? प्रमाद का अभाव होकर जब प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होती है, तब अप्रमाद की भूमिका प्राप्त होती है। और, इसी में साध क अमृतत्व की उपलब्धि करता है। 4 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प 44 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय धर्म और दर्शन में ऋषि शब्द का प्रचुर प्रयोग हुआ है। स्वय भगवान् महावीर को भी परम महर्षि कहा गया है ___ “अणुत्तरगं परमं महेसी।" सूत्रकृतांग, 1, 6, 17. अन्यत्र भी अनेक प्रज्ञावान मुनियों के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग हुआ है। हरिकेशबल मुनि की स्तुति करते हुए कहा गया ___ "महप्पसाया इसिणो हवन्ति।" -उत्तराध्ययन, 12, 31. आज जानते हैं, ऋषि शब्द का क्या अर्थ है? ऋषि शब्द का अर्थ है-सत्य का साक्षात-द्रष्टा। ऋषि सत्य का श्रोता कदापि नहीं होता, प्रत्युत् अपने अन्तःस्फूर्त प्रज्ञा के द्वारा सत्य का द्रष्टा होता है। कोष-साहित्य में ऋषि का अर्थ यही किया गया है। वह अन्तःस्फूर्त कवि, मुनि, मन्त्र-द्रष्टा और प्रकाश की किरण है। कवि शब्द का अर्थ काव्य का रचयिता ही नहीं, अपितु ईश्वर-भगवान् भी होता है। इस सम्बन्ध में ईशोपनिषद् कहता है “कविर्मनीषिपरिभू स्वयंभू" उक्त विवेचन का सार यही है कि सत्य की उपलब्धि के लिए मानव की अपनी स्वयं प्रज्ञा ही हेतु हैं प्रज्ञा के अभाव में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं ध र्म आदि सब तमसाच्छन्न हो जाते हैं। और इसी तमसाच्छन्न स्थिति में से अन्ध -मान्यताएँ एवं अन्ध-विश्वास जन्म लेते हैं, जो अन्ततः मानव-जाति की सर्वोत्कृष्टता के सर्वस्व संहारक हो जाते हैं। अतीत के इतिहास में जब हम पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि प्रज्ञा के अभाव में मानव ने कितने भयंकर अनर्थ किए हैं। हजारों ही नहीं, लाखों महिलाएँ, पति के मृत्यु पर पतिव्रता एवं सतीत्व की गरिमा के नाम पर पति के शव के साथ जीवित जला दी गई हैं। आज के सुधारशील युग में यदा-कदा उक्त घटनाएँ समाचार पत्रों के पृष्ठों पर आ जाती हैं। यह कितना भयंकर हत्या काण्ड है, जो धर्म एवं शास्त्रों के नाम पर होता आ रहा है। देवी-देवताओं की प्रस्तर मूर्तियों के आगे मूक-पशुओं के बलिदान की प्रथा भी धार्मिक परम्पराओं के नाम पर चालू है। एक-एक दिन में देवी के आगे सात-सात हजार बकरे काट दिए जाते हैं। और, हजारों नर-नारी, बच्चे, बूढे, पण्णा समिक्खए धम्म 5 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौजवान हर्षोल्लास से नाचते-गाते है एवं देवी के नाम की जय-जयकार करते हैं। लगता है कि मानव के रूप में कोई दानवों का मेला लगा है। विचार - चर्चा करें और विरोध में स्वर उठाएँ तो झटपट कोई शास्त्र लाकर सामने खड़ा कर दिया जाता है। और, पण्डे - पुरोहित धर्म - ध्वंस की दुहाई देने लगते हैं। पशु ही क्यों, सामूहिक नर-बलि तक के इतिहास की ये काली घटनाएँ हमें भारतीय इतिहास में मिल जाती हैं और आज भी मासूम बच्चों के सिर काट कर देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि के रूप में अर्पित कर दिए जाते हैं। अन्ध-विश्वासों की परम्परा की कथा बड़ी लम्बी है। कहीं ग्रामीण महिलाएँ सर्वथा नग्न होकर वर्षा के लिए खेतों में हल जोतने का अभिनय करती हैं। ओर, कहीं पर पशु बलि एवं नरबलि तक इसके लिए दे दी जाती है। प्रज्ञा - हीन धर्म के चक्कर में भ्रमित होकर लोगों ने आत्मपीड़न का कष्ट भी कम नहीं उठाया है । वस्त्रहीन नग्न होकर हिमालय में रहते हैं। जेठ की भयंकर गर्मी में चारों ओर धूनी लगाते हैं। कांटे बिछाकर सोते हैं। जीवित ही मुक्ति के हेतु गंगा में कूद कर आत्म-हत्या कर लेते हैं। और, कुछ लोग तो जीवित ही भूमि में समाधि लेकर मृत्यु का वरण भी करते हैं। और, कुछ आत्मदाह करने वाले भी कम नहीं हैं। लगता है, मनुष्य आँखों के होते हुए भी अंधा हो गया है। धर्म रक्षा के नाम पर वह कुछ भी कर सकता है या उससे कुछ भी कराया जा सकता है। धर्म और गुरुओं के नाम पर ऐसा भयंकर शहीदी झनून सवार होता है कि अपने से भिन्न धर्म - परम्परा के निरपराध लोगों की सामूहिक हत्या तक करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। ये सब उपद्रव देव - ‍ - मूढ़ता, गुरु-मूढ़ता तथा शास्त्र-मूढ़ता के कारण होते हैं । प्रज्ञा ही, उक्त मूढ़ताओं को दूर कर सकती है। किन्तु, धर्म के भ्रम में उसने अपना या समाज का भला-बुरा सोचने से इन्कार कर दिया है। अतः अपेक्षा है, प्रज्ञा की अन्तर् - ज्योति को प्रज्वलित करने की । बिना ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुए, यह भ्रम का सघन अन्धकार कथमपि दूर नहीं हो सकता। अतः अनेक भारत के प्रबुद्ध मनीषियों ने ज्ञान - ज्योति को प्रकाशित करने के लिए प्रबल प्रेरणा दी है। श्रीकृष्ण तो कहते हैं- “ज्ञान से बढ़कर विश्व में अन्य कुछ भी पवित्र नहीं है" 6 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।" अज्ञान तमस् को नष्ट करने के लिए ज्ञान की अग्नि ही सक्षम है। श्रीकृष्ण और भी बल देकर कहते हैं-“हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठ समूह को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान रूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है- . "यथैधासि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्व-कर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।" -गीता, 4, 37 उपनिषद् साहित्य में सर्व प्रथम मौलिक स्थान ईशोपनिषद् का है। यह उपनिषद् यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय है। उसका एक सूत्र वचन है-'विद्ययाऽमृतमश्नुते' अर्थात् विद्या से ही अमृत-तत्त्व की उपलब्धि होती है। तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर ने भी ज्ञान-ज्योति पर ही अत्यधिक बल दिया है। मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने अन्य किसी बाह्य क्रिया-काण्ड विशेष की चर्चा न करके मुनित्व के लिए सम्यग्-ज्ञान की ही हेतुता को स्वीकृत किया है नाणेण य मुणी होई। –उत्तराध्ययन, 25, 32. श्रमण आवश्यक सूत्र में एक पाठ है, जो हर भिक्षु को सुबह सायं प्रतिक्रमण के समय उपयोग में लाना होता है। वह पाठ है "मिच्छतं परियाणामि सम्मत्तं-उवसंपज्जामि। अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि। अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि।" पाठ लम्बा है। उसमें का कुछ अंश ही यहाँ उद्धृत किया गया है। इसका भावार्थ है-“मैं मिथ्यात्व का परित्याग करता हूँ और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ और सम्यक्-ज्ञान को स्वीकार करता हूँ।" कितने उदात्त वचन हैं ये। काश, यदि हम इन वचनों पर चलें, तो फिर धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्डों के भ्रम का अंधेरा मानव-मस्तिष्क को कैसे भ्रान्त कर सकता है? अपेक्षा है, आज प्रज्ञावाद के पुनः प्रतिष्ठा की ! जन-चेतना में प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित होते ही जाति, पंथ तथा राष्ट्र के नाम पर आए दिन पण्णा समिक्खए धम्म 7 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने वाले उग्रवादी या आतंकवादी जैसे उपद्रवों के काले बादल सहसा छिन्न-भिन्न हो सकते हैं। और, मानव अपने को मानव के रूप में पुनः प्रतिष्ठित कर सकता है। मृत होती हुई मानवता को जीवित रखने के लिए स्वतन्त्र चिन्तन के रूप में प्रज्ञा की ऊर्जा ही काम दे सकती "नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" संदर्भ 1. उत्तराध्ययन, 23, 25. 2. धम्मं तत्त विणिच्छयं। --उत्तराध्ययन, 23, 25 वही. 3. सुत्तं तु सुतमेव उ। -अर्थेन अबोधितं सुप्तमिव सुप्तं प्राकृतशैल्या सुत्त। -बृहत्कल्प भाष्य एवं टीका, 309 * प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 | क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? ___ अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही मानव जीवन के मुख्य प्रश्न हैं और बहुत गहरे हैं। जीवन के साथ दोनों का घनिष्ठ संबंध होते हुए भी आज दोनों को भिन्न भूमिकाओं पर खड़ा कर दिया गया है। अध्यात्म को आज कुछ विशेष क्रियाकांडों एवं तथाकथित चालू मान्यताओं के साथ जोड़ दिया गया है और विज्ञान को सिर्फ भौतिक अनुसंधान एवं जगत् के बहिरंग विश्लेषण तक सीमित कर दिया गया है। दोनों ही क्षेत्रों में आज एक वैचारिक प्रतिबद्धता आ गई है, इसलिए एक विरोधाभास सा खड़ा हो गया है, आज के तथाकथित धार्मिकजन विज्ञान को सर्वथा झूठा और गलत बता रहे हैं और विज्ञान भी बेरहमी के साथ धार्मिकों की तथाकथित अनेक मान्यताओं को झकझोर रहा है। अपोलो-8 अभी-अभी चन्द्रलोक में परिक्रमा करके आ गया है, वहाँ के चित्र भी ले आया है। अपोलो-8 के तीनों अमरीकी अंतरिक्ष यात्रियों ने आँखों देखी स्थिति बताई है कि-वहाँ पहाड़ों और गड्ढों से व्याप्त एक सुनसान वीरान धरातल है और उनकी घोषणा को रूस जैसे प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने भी सत्य स्वीकार किया है; परन्तु हमारा धार्मिक वर्ग एक सिरे से दूसरे सिरे तक आज इन घोषणाओं से काफी चिंतित हो उठा है। मेरे पास बाहर से अनेक पत्र आये हैं, बहत से जिज्ञास प्रत्यक्ष में भी मिले हैं-सबके मन में एक ही प्रश्न तरंगित हो रहा है-"अब हमारे शास्त्रों का क्या होगा? हमारे शास्त्र तो चंद्रमा को एक महान् देवता के रूप में मानते हैं, सूर्य से भी लाखों मील ऊँचा' चन्द्रमा का स्फटिक रत्नों का विमान है, उस पर सुंदर वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत देव-देवियाँ हैं। चन्द्र विमान एक लाख योजन ऊँचे मेरु पर्वत के चारों ओर भ्रमण करता है। चन्द्र मे जो काला धब्बा दिखाई देता है वह मृग का चिह्न है। हमारे शास्त्रों के इन सब वर्णनों का अब क्या होगा? वहाँ जाने वाले तो बताते हैं, चित्र दिखाते हैं, कि चन्द्र में केवल पहाड और खड्डे हैं. किसी यात्री से किसी देवता की मुलाकात भी वहाँ नहीं हुई, यह क्या बात है? ये वैज्ञानिक झूठे हैं या शास्त्र? क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 9 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र झूठे कैसे हो सकते हैं? यह भगवान् ! की वाणी है, सर्वज्ञ की वाणी है । " विज्ञान व अध्यात्म का क्षेत्र मैं सोचता हूँ, धार्मिक के मन में आज जो यह अकुलाहट पैदा हो रही है, धर्म के प्रतिनिधि तथाकथित शास्त्रों के प्रति उसके मन में जो अनास्था एवं विचिकित्सा का ज्वार उठ रहा है, उसका एक मुख्य कारण है - वैचारिक प्रतिबद्धता ! कुछ परंपरागत रूढ़ विचारों के साथ उसकी धारणा जुड़ गई है, कुछ तथाकथित ग्रंथों और पुस्तकों को उसने धर्म का प्रतिनिधि शास्त्र समझ लिया है, वह न तो इसका ठीक तरह बौद्धिक विश्लेषण कर सकता है और न ही विश्लेषण प्राप्त सत्य के आधार पर उनके मोह को ठुकरा सकता है। वह बार-बार दुहराई गई धारणा एवं रूढ़िगत मान्यता के साथ बँध गया है, प्रतिबद्ध हो गया है, बस, प्रतिबद्धता - आग्रह ही उसके मन की विचिकित्सा का कारण है। यह शास्त्र की चर्चा करने से पहले एक बात हमें समझ लेनी है कि अध्यात्म और विज्ञान राम-रावण जैसे कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। दोनों ही विज्ञान हैं, एक आत्मा का विज्ञान है तो दूसरा प्रकृति का विज्ञान है । अध्यात्म विज्ञान के अंतर्गत आत्मा के शुद्धाशुद्ध स्वरूप, बंधमोक्ष, शुभाशुभ परिणतियों का ह्रास - विकास आदि का विश्लेषण आता है। और विज्ञान, जिसे मैं प्रकृति का विज्ञान कहना ठीक समझता हूँ, इसमें हमारे शरीर, इंद्रिय, मन, इनका संरक्षण - पोषण एवं चिकित्सा आदि, तथा प्रकृति का अन्य मार्मिक विश्लेषण समाहित होता है। दोनों का ही जीवन की अखंड सत्ता के साथ संबंध है। एक जीवन की अंतरंग धारा का प्रतिनिधि है तो एक बहिरंग धारा का । अध्यात्म का क्षेत्र मानव का अंतःकरण, अंतस्चैतन्य एवं आत्मतत्त्व रहा है, जबकि आज के विज्ञान का क्षेत्र प्रकृति के अणु से लेकर विराट् खगोल- भूगोल आदि का प्रयोगात्मक अनुसंधान करना है, इसलिए वह हमारी भाषा में बहिरंग ज्ञान है, जबकि अंतरंग चेतना का विवेचन, विशोधन एवं ऊर्ध्वकरण करना अध्यात्म का विषय है, वह अंतरंग ज्ञान है । इस दृष्टि से विज्ञान व अध्यात्म में प्रतिद्वंद्विता नहीं, अपितु पूरकता आती है। विज्ञान प्रयोग है, अध्यात्म योग है। विज्ञान सृष्टि की, परमाणु आदि की चमत्कारी शक्तियों का रहस्य उद्घाटित करता है, प्रयोग द्वारा उन्हें हस्तगत करता है, और अध्यात्म उन शक्तियों का कल्याणकारी उपयोग करने की दृष्टि देता है। 10 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव चेतना को विकसित, निर्भय वह निर्द्वन्द्व बनाने की दृष्टि अध्यात्म के पास है। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों का कब, कैसे, कितना और किसलिए उपयोग करना चाहिए, इसका निर्णय अध्यात्म देता है, वह भौतिक प्रगति को विवेक की आँख देता है-फिर कैसे कोई विज्ञान और अध्यात्म को विरोधी मान सकता है? हमारा प्रस्तुत जीवन केवल आत्ममुखी होकर नहीं टिक सकता, और न केवल बहिर्मुखी ही रह सकता है। जीवन की दो धाराएँ हैं, एक बहिरंग, दूसरी अंतरंग। दोनों धाराओं को साथ लेकर चलना, यही तो जीवन की अखंडता है। बहिरंग जीवन में विशृंखलता नहीं आये, द्वंद्व नहीं आये, इसके लिए अंतरंग जीवन की दृष्टि अपेक्षित है। अंतरंग जीवन आहार-विहार आदि के रूप में बहिरंग से, शरीर आदि से, सर्वथा निरपेक्ष रहकर चल नहीं सकता, इसलिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। भौतिक और आध्यात्मिक सर्वथा निरपेक्ष दो अलग-अलग खंड नहीं हो सकते, बल्कि दोनों को अमुक स्थिति एवं मात्रा में साथ लेकर ही चला जा सकता है, तभी जीवन सुंदर, उपयोगी एवं सुखी रह सकता है। इस दृष्टि से मैं सोचता हूँ तो लगता है-अध्यात्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान दोनों ही जीवन के अंग हैं, फिर इनमें विरोध और द्वंद्व की बात क्या रह जाती है? यही आज का मुख्य प्रश्न है ! शास्त्र बनाम ग्रन्थ जैसा मैंने आपसे कहा-भौतिक विज्ञान के कुछ भूगोल-खगोल संबंधी अनुसंधानों के कारण धर्मग्रन्थों की कुछ मान्यताएँ आज टकरा रही हैं, वे असत्य सिद्ध हो रही हैं, और उन ग्रंथों पर विश्वास करने वाला वर्ग लड़खड़ा रहा है, अनास्था से जूझ रहा है। सैकड़ों वर्षों से चले आये ग्रन्थों और उनके प्रमाणों को एक क्षण में कैसे अस्वीकार कर लें और कैसे विज्ञान के प्रत्यक्ष सिद्ध तथ्यों को झुठलाने का दुस्साहस कर लें। बस, यह वैचारिक प्रतिद्वंद्विता का संघर्ष ही आज धार्मिक मानस में उथल-पुथल मचाए जा रहा है। जहाँ-जहाँ परंपरागत वैचारिक प्रतिबद्धता, तर्कहीन विश्वासों की जड़ता विजयी हो रही है, वहाँ-वहाँ विज्ञान को असत्य, भ्रामक और सर्वनाशी कहने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं है। मैं समझता हूँ, इसी भ्रांति के कारण विज्ञान को धर्म का विरोधी एवं प्रतिद्वंद्वी मान लिया गया है और धार्मिकों की इसी अंधप्रतिबद्धता एवं नफरत के उत्तर में नई क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 11 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशा के उग्र विचारकों ने धर्म को एक मादक अफीम करार दिया है। पाखंड और असत्य का प्रतिनिधि बता दिया है। यदि हम संतुलित होकर समझने-सोचने का प्रयत्न करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि तथाकथित धर्मग्रन्थों की मान्यता के साथ विज्ञान के अनुसंध न क्यों टकरा रहे है? इस संदर्भ में दो बातें हमें समझनी होंगी-पहली यह कि शास्त्र की परिभाषा क्या है, उसका प्रयोजन और प्रतिपाद्य क्या है? और दूसरी यह कि शास्त्र के नाम पर चले आ रहे प्रत्येक ग्रन्थ, स्मृति, पुराण और अन्य संदर्भ पुस्तकों को अक्षरशः सत्य माने या नहीं? ग्रंथ और शास्त्र में भेद है पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि शास्त्र एक बहु पवित्र एवं व्यापक शब्द है, इसकी तुलना में ग्रंथ का महत्त्व बहुत कम है। यद्यपि शब्दकोष की दृष्टि से ग्रंथ और शास्त्र को पर्यायवाची शब्द माना गया है, किंतु व्याकरण की दृष्टि से ऐसा नहीं माना जा सकता, उनके अर्थ में अवश्य ही मौलिक अंतर रहता है। शास्त्र और ग्रंथ को भी मैं इस प्रकार दो अलग-अलग शब्द मानता हूँ। शास्त्र का संबंध अंतर से है, सत्यं शिवं सुन्दरम् की साक्षात् अनुभूति से है, स्व-पर कल्याण की मति-गति-कृति से है, जबकि ग्रन्थ के साथ ऐसा नियम नहीं है। शास्त्र सत्य के साक्षात् दर्शन एवं आचरण का उपदेष्टा होता है, जबकि ग्रन्थ इस तथ्य के लिए प्रतिनियत नहीं है। शास्त्र और ग्रंथ के संबंध में यह विवेक यदि हमारी बुद्धि में जग गया तो फिर विज्ञान और अध्यात्म में, विज्ञान और धर्म में तथा विज्ञान और शास्त्र में कोई टकराहट नहीं होगी, कोई किसी को असत्य एवं सर्वनाशी सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करेगा। धर्मग्रन्थों के प्रति, चाहे वे जैन सूत्र हैं, चाहे स्मृति और पुराण हैं, आज के बुद्धिवादी वर्ग में एक उपहास की भावना बन चुकी है, और सामान्य-श्रद्धालु वर्ग में उनके प्रति अनास्था पैदा हो रही है-इसका कारण यही है कि हमने शास्त्र की मूल मर्यादाओं को नहीं समझा, ग्रंथ का अर्थ नहीं समझा और संस्कृत, प्राकृत में जो भी कोई प्राचीन कहा जानेवाला ग्रंथ मिला, उसे शास्त्र मान बैठे, भगवद्वाणी मान बैठे, और गले से खूब कसकर बाँध लिया कि यह हमारा धर्मग्रंथ है, यह ध्रुव सत्य है, इसके विपरीत जो कुछ भी कोई कहता है, वह झूठ है, गलत है। 12 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि सऊदी अरब में सबसे पहले टेलीफोन के तार की लाइन डाली जा रही थी तो वहाँ धर्मगुरु मौलवी लोगों ने बड़ा भारी विरोध किया। धार्मिक जनता को भड़काया कि यह शैतान का काम है, कुरान शरीफ के हुक्म के खिलाफ है। वाद-विवाद उग्र हो चला, इधर-उधर उत्तेजना फैलने लगी तो वहाँ के तत्कालीन बुद्धिमान बादशाह इब्न सऊदी ने फैसला दिया कि-"इसकी परीक्षा होनी चाहिए कि दरअसल ही यह शैतान का काम है या नहीं। इसके लिए दो मौलानाओं को नियत किया गया कि वे क्रमशः टेलीफोन पर कुरान की आयतें पढ़ें। यदि शैतान का काम होगा तो वे पवित्र आयतें तार से उस पार सुनाई नहीं देंगी, यदि सुनाई दी तो वह शैतान का काम नहीं होगा।" आप जान सकते हैं, क्या प्रमाणित हुआ? वही प्रमाणित हुआ, जो प्रमाणित हो सकता था। सत्य के समक्ष भ्रांत धारणाओं के दावे कब तक टिक सकते हैं? धर्मग्रन्थों के प्रति इस प्रकार का जो विवेकहीन बँधा बँधाया दृष्टिकोण है, यह केवल भारत को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण धार्मिक विश्व को जकड़े हुए है। यह सब कब से चला आ रहा है, कहा नहीं जा सकता। ग्रंथों से चिपटे रहने की इस जड़ता ने कितने वैज्ञानिकों को मौत के घाट उतरवाया, कितने को देश त्याग करवाया? यह इतिहास के पृष्ठों पर आज भी पढ़ा जा सकता है। ग्रंथ : संकलन मात्र हाँ, तो मैंने कहा-मानव मस्तिष्क में विचारों की यह प्रतिबद्धता ग्रन्थ ने पैदा की है। ग्रन्थ का अर्थ-ग्रन्थि ! गाँठ ! जैन भिक्षु को, श्रमण को निर्ग्रन्थ कहा गया है। अर्थात् उसके भीतर में मोह, आसक्ति आदि की कोई गाँठ नहीं होती, ग्रन्थि नहीं होती। गाँठ तब डाली जाती है जब कुछ जोड़ना होता है, संग्रह करना होता है। कुछ इधर से लिया, कुछ उधर से लिया, गाँठ डाली, जुड़ गया, या जोड़ लिया और गाँठ लगाई-इस प्रकार लेते गए, जोड़ते गए और ग्रन्थ तैयार होते गए। ग्रन्थ शब्द के इसी भाव को हिन्दी की 'गूंथना' क्रिया व्यक्त करती है। माली फूलों को धागे में पिरोता है तब एक फूल लिया, गाँठ डाली, फिर फूल लिया, और फिर गाँठ डाली, इस प्रकार पिरोता जाता है, गांठें डालता जाता है और माला तैयार हो जाती है। बिना गाँठे डाले माला तैयार नहीं होती। इसी प्रकार विचारों की गाँठे जोड़े बिना ग्रन्थ भी कैसे तैयार होगा? इसका अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के लिए मौलिक चिंतन की अपेक्षा नहीं रहती, वह तो एक संकलन क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 13 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र है, विचारों एवं मान्यताओं के मनकों की माला है। शास्त्र के सम्बन्ध में यह बात नहीं हो सकती। शास्त्र : सत्य का साक्षात् दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में मैंने आपसे बताया-वह सत्य का साक्षात् दर्शन होता है। सत्य सदा अखण्ड, संपूर्ण एवं समग्र मानव चेतना को स्पर्श करने वाला होता है। हमारी संस्कृति में 'सत्य' के साथ 'शिव' संलग्न रहता है। सत्य के दर्शन में सृष्टि की समग्र चेतना के कल्याण की छवि प्रतिबिम्बित रहती है। भौतिक विज्ञान भी सत्य का उद्घाटन करता है, किन्तु उसके उद्घाटन में केवल बौद्धिक स्पर्श होता है, समग्र चैतन्य की शिवानुभूति का आधार नहीं होता, इसीलिए मैं उसे धर्मशास्त्र की सीमा में नही मान सकता। शास्त्र के सम्बन्ध में हमारी यह भी एक धारणा है कि शास्त्र आर्षवाणी अर्थात् ऋषि की वाणी है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा की है-सत्य का साक्षात् द्रष्टा, ऋषि होता है। ऋषि-दर्शनात्। हर साधक ऋषि नहीं कहलाता, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा और तर्कशुद्ध ज्ञान के द्वारा जो सत्य की स्पष्ट अनुभूति कर सकता है, वही वस्तुतः ऋषि है। इसलिए वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा के रूप में अंकित किया गया है। हाँ, तो मैं कहना यह चाहता हूँ कि भारत की वैदिक एवं जैन परंपरा में आर्षवाणी का अर्थ साक्षात् सत्यानुभूति पर आधारित शिवत्व का प्रतिपादक मौलिक ज्ञान होता है। शास्त्र का उपदेष्टा आँख मूंदकर उधार लिया हुआ शिवत्व शून्य ज्ञान नहीं देता। उसका सर्व-जन-हिताय उपदेश अन्त:स्फूर्त निर्मल ज्ञान के प्रवाह से उद्भूत होता है, जिसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से होता है। आत्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन स्वरूप आलोक को व्यक्त करना एवं आत्मस्वरूप पर छाई हुई विभाव परिणतियों की मलिनता का निवारण करना यही आर्षवाणी का मुख्य प्रतिपाद्य होता है। जैन परम्परा के महान् प्रतिनिधि आगमवेत्ता आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण से जब पूछा गया कि शास्त्र किसे कहते हैं ? तो उन्होंने बताया सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमायावतो सत्य। जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं 14 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का अनुशासन किया जा सके, वह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास् धातु से बना है, जिसका अर्थ-शासन, शिक्षण, उद्बोधन ! अतः शास्त्र का अर्थ हुआ-जिस तत्त्वज्ञान के द्वारा आत्मा अनुशासित होता है, उबुद्ध होता है, वह तत्त्वज्ञान शास्त्र है। आचार्य जिनभद्र की यह व्याख्या उनकी स्वतन्त्र कल्पना नहीं है, इसका आध पर जैन आगम है। आगम में भगवान् महावीर की वाणी का यह उद्घोष हुआ है कि-जिसके द्वारा आत्मा जागृत होती है, तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, वह शास्त्र है। उत्तराध्ययन सूत्र, जो भगवान् महावीर की अंतिम वाणी माना जाता है, उसके तीसरे अध्ययन में चार बातें दुर्लभ बताई गई हैं-"माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं"' अर्थात् मनुष्यत्व, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम-पुरुषार्थ ! आगे चलकर बताया गया है कि श्रुति अर्थात् शास्त्र कैसा होता है?-"जं सोच्चा पडिवति तवं खंतिमहिंसयं" --जिसको सुनकर साधक का अंतर्मन प्रतिबद्ध होता है, उसमें तप की भावना जागृत होती है और फलतः इधर-उधर बिखरी हई अनियंत्रित उद्दाम इच्छाओं का निरोध किया जाता है। इच्छा निरोध से संयम की ओर प्रवृत्ति होती है, क्षमा की साधना में गतिशीलता आती है-वह शास्त्र है। इस संदर्भ में इतना बता देना चाहता हूँ कि 'खंति' आदि शब्दों की भावना बहुत व्यापक है-इसे भी समझ लेना चाहिए। क्षमा का अर्थ केवल क्रोध को शांत करने तक ही सीमित नहीं है, अपितु कषायमात्र का शमन करना है। जो क्रोध का शमन करता है, मान का शमन करता है, माया और लोभ की वृत्तियों का शमन करता है, वही सच्चा 'क्षमावान्' है। 'क्षमा' का मूल अर्थ 'समर्थ' होना भी है, जो कषायों को विजय करने में सक्षम अर्थात् समर्थ होता है, जो क्रोध, मान आदि की वृत्तियों को विजय कर सके, मन को सदा शांत-उपशांत रख सके-वह 'क्षमावान्' कहलाता है। शास्त्र का लक्ष्य श्रेयभावना शास्त्र की प्रेरकता में तप और क्षमा के साथ अहिंसा शब्द का भी उल्लेख किया गया है। अहिंसा की बात कहकर समग्र प्राणिजगत् के श्रेय एवं कल्याण की भावना का समावेश शास्त्र में कर दिया गया है। भगवान् महावीर क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 15 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अहिंसा को 'भगवती' कहा है । " महान् श्रुतधर आचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को परब्रह्म कहा है। 2 इसका मतलब है- अहिंसा एक विराट् आध्यात्मिक चेतना है, समग्र प्राणिजगत् के शिवं एवं कल्याण का प्रतीक है। आपको याद है - इसीलिए मैं 'सत्यं' के साथ 'शिवं' की मर्यादा भी बतला चुका हूँ । अहिंसा हमारे 'शिवं' की साधना है। करुणा, कोमलता, सेवा, सहयोग, मैत्री और अभय- ये सब अहिंसा की ही फलश्रुतियाँ हैं। हाँ तो, इस प्रकार शास्त्र की परिभाषा हुई कि तप, क्षमा एवं अहिंसा के द्वारा जीवन को साधने वाला, अंतरात्मा को परिष्कृत करने वाला जो तत्त्वज्ञान है, वह शास्त्र है। शास्त्र का प्रयोजन शास्त्र की परिभाषा समझ लेने पर इसका प्रयोजन क्या है? यह भी स्पष्ट हो जाता है। भगवान् शास्त्र का प्रवचन किसलिए करते है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी आर्य सुधर्मा ने कहा है - " सव्व- जग-जीवरक्खण- दट्ट्याए भगवया पावयणं सुकहियं "13 समस्त प्राणिजगत् की सुरक्षा एवं दया भावना से प्रेरित होकर उसके कल्याण के लिए भगवान ने उपदेश किया। 44 1113 परिभाषा और प्रयोजन कहीं भिन्न-भिन्न होते हैं और कहीं एक भी। यहाँ परिभाषा में प्रयोजन स्वतः निहित है । यों शास्त्र की परिभाषा में ही शास्त्र का प्रयोजन स्पष्ट हो गया है और अलग प्रयोजन बतला कर भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि शास्त्र का शुद्ध प्रयोजन विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है। शास्त्र के इस प्रयोजन को जैन भी मानते हैं, बौद्ध और वैदिक भी मानते हैं, ईसाई और मुसलमान भी यही बात कहते है कि ईसा और मुहम्मद साहब दुनिया की भलाई के लिए प्रेम और मुहब्बत का पैगाम लेकर आये । मैं समझता हूँ शास्त्र का यह एक ऐसा व्यापक और विराट् उद्देश्य है, जिसे कोई भी तत्त्वचिंतक चुनौती नहीं दे सकता। जैन श्रुत परम्परा के महान् ज्योतिर्धर आचार्य हरिभद्र के समक्ष जब शास्त्र के प्रयोजन का प्रश्न आया तो उन्होंने भी यही बात दुहरा कर उत्तर दिया मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः | 14 16 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसे उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अंत:करण में स्थित काम क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र तथा निर्मल बना देता है। इस प्रकार भगवान् महावीर से लेकर एक हजार से कुछ अधिक वर्ष तक के चिंतन में शास्त्र की यही एक सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत हुई कि “जिसके द्वारा आत्म-परिबोध हो, आत्मा अहिंसा एवं संयम की साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, उस तत्त्वज्ञान को शास्त्र कहा जाता है।" शास्त्र के नाम पर अब मैं जरा अपनी पिछली बात को दुहरा ढूँ। मानवता के सार्वभौम चिंतन एवं विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के कारण आज यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि इन शास्त्रों का क्या होगा? विज्ञान की बात का उत्तर क्या है, इन शास्त्रों के पास ! पहली बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि जैसी कि हमने शास्त्र की परिभाषा समझी है, वह स्वयं में एक विज्ञान है, सत्य है। तो क्या विज्ञान, विज्ञान को चुनौती दे सकता है? सत्य सत्य को चुनौती दे सकता है? नहीं ! एक सत्य दूसरे सत्य को काट नहीं सकता, यदि काटता है, तो वह सत्य ही नहीं है। फिर यह मानना चाहिए कि जिन शास्त्रों को हमारा मानवीय चिंतन, तथा प्रत्यक्ष विज्ञान चुनौती देता है, वे शास्त्र नहीं हो सकते, वे शास्त्र के नाम पर पलने वाले ग्रंथ या किताबें हैं। चाहे वे जैन आगम हैं, या श्रुति स्मृतियाँ और पुराण हैं, चाहे पिटक हैं या बाइबिल एवं कुरान हैं। मैं पुराने या नये किन्हीं भी विचारों की अंध प्रतिबद्धता स्वीकार नहीं करता। शास्त्र या श्रुति-स्मृति के नाम पर, आँख भीचकर किसी चीज को सत्य स्वीकार कर लेना मुझे सह्य नहीं है। मुझे ही क्या, किसी भी चिंतक को सह्य नहीं है। और फिर जो शास्त्र की सर्वमान्य व्यापक कसौटी है, उस पर वे खरे भी तो नहीं उतर रहे हैं। जिन धर्म शास्त्रों ने धर्म के नाम पर पशुहिंसा' एवं नरबलि का प्रचार किया,6 मानव-मानव के बीच में घृणा एवं नफरत की दीवारें खड़ी की, क्या वह सत्यद्रष्टा ऋषियों का चिंतन था? मानवजाति के ही एक अंग शूद्र के लिए कहा गया कि-वह जीवित श्मशान है। उसकी छाया से भी बचना चाहिए, तो क्या अखंड मानवीयता की अनुभूति वहाँ पर कुछ भी हुई होगी? जिस नारी ने मातृत्व का महान क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 17 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौरव प्राप्त करके समग्र मानव जाति को अपने वात्सल्य से प्रीणित किया, उसके लिए यह कहना कि "न स्त्रीभ्यः कश्चिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति वै-स्त्रियों से बढ़कर अन्य कोई दुष्ट नहीं है । क्या यह धर्म का अंग हो सकता है? वर्ग-संघर्ष, जाति-विद्वेष एवं सांप्रदायिक घृणा के बीज बोने वाले ग्रंथों ने जब मानव चेतना को खंड-खंड करके यह उद्घोष किया कि "अमुक संप्रदाय वाले का स्पर्श होने पर शुद्धि के लिए-सचैलो जलमाविशेत् कपड़ों सहित ही पानी में डुबकी लगा लेनी चाहिए"-तब क्या उनमें कहीं आत्म-परिबोध की झलक थी? मैंने बताया कि ऋषि वह है, जो सत्य का साक्षात्द्रष्टा एवं चिंतक है, प्राणिमात्र के प्रति जो विराट् आध्यात्मिक चेतना की अनुभूति कर रहा है क्या उस ऋषि या श्रमण के मुख से कभी ऐसी वाणी फूट सकती है? कभी नहीं ! वेद, आगम और पिटक जहाँ एक ओर मैत्री का पवित्र उद्घोष कर रहे हैं, क्या उन्हीं के नाम पर, उन्हीं द्रष्टा ऋषि व मुनियों के मुख से मानव-विद्वेष की बात कहलाना शास्त्र का गौरव है? शास्त्रों के नाम पर जहाँ एक ओर ऐसी बेतुकी बातें कही गई, वहाँ दूसरी ओर भूगोल-खगोल के संबंध में भी बड़ी विचित्र, अनर्गल एवं असंबद्ध कल्पनाएँ खड़ी की गई हैं। पृथ्वी, समुद्र, सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्र आदि के संबंध में इतनी मनमोहक किन्तु प्रत्यक्ष बाधित बातें लिखी गई है कि जिनका आज के अनुसंधानों के साथ कोई संबंध नहीं बैठता। मैं मानता हूँ कि इस प्रकार की कुछ धारणाएँ उस युग में व्यापक रूप से प्रचलित रही होंगी, श्रुतानुश्रुत परम्परा या अनुमान के आधार पर जन समाज उन्हें एक दूसरे तक पहुँचाता आया होगा। पर क्या उन लोकप्रचलित मिथ्या धारणाओं को शास्त्र का रूप दिया जा सकता है? शास्त्र का उनके साथ क्या संबंध है? मध्यकाल के किसी विद्वान ने संस्कृत या प्राकृत ग्रंथ के रूप में कुछ भी लिख दिया, या पुराने शास्त्रों में अपनी ओर से कुछ नया प्रक्षिप्त कर दिया और किसी कारण उसने वहाँ अपना नाम प्रकट नहीं किया, तो क्या वह शास्त्र हो गया? उसे धर्मशास्त्र मान लेना चाहिए? उसे भगवान् या ऋषियों की वाणी मानकर शिरोधार्य कर लेना चाहिए? उत्तरकालीन संकलन वैदिक साहित्य का इतिहास पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उत्तरकाल में कितने बड़े-बड़े धर्मग्रन्थों की रचनाएँ हुईं। स्मृतियाँ, पुराण, महाभारत 18 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और गीता, जिन्हें आज का धार्मिक मानस ऋषियों की पवित्र वाणी एवं भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश मान रहा है, वह कब, कैसे, किन परिस्थितियों में रचे गये, या परिवर्धित किये गए, और रचनाकार एवं परिवर्धनकार ने भले ही विनम्र भाव से ऐसा किया हो, फलत: अपना नामोल्लेख भी नहीं किया हो, पर यह सब गलत हुआ है। मैं बताना चाहता हूँ कि जिस महाभारत को आज आप धर्मशास्त्र मानते हैं, और व्यासऋषि के मुख से निःसृत, गणपति द्वारा संकलित मानते हैं, वह प्रारम्भ में केवल छोटा-सा इतिहास ग्रंथ था, जिसमें पांडवों की विजय का वर्णन होने से 'जय' नाम से प्रख्यात था। जब इसका दूसरा संस्करण ई. पू. 176 के पूर्व तैयार हुआ तो उसका नाम भारत रखा गया, ओर बहुत समय बाद प्रक्षिप्त अंशों की वृद्धि होते-होते वह महाभारत बन गया । | आज की गीता का समूचा पाठ, क्या सचमुच में ही कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया गया श्रीकृष्ण का उपदेश है, या बाद के किसी विद्वान की परिवर्द्धित रचना या संकलन है? मनुस्मृति जो हिंदुओं का मानव धर्मशास्त्र कहलाता है, अपने आज के रूप में किस मनु की वाणी है, किसने उसे बनाया? ये तथ्य आज इतिहास से छिपे नहीं रहे हैं । 22 मैं इन धर्मग्रन्थों का, जिनमें काफी अच्छा अंश जीवन-निर्माण का भी है, किसी सांप्रदायिक दृष्टि से विरोध नहीं कर रहा हूँ किंतु, यह बताना चाहता हूँ कि मध्यकाल में जिस किसी विद्वान ने जो कुछ संस्कृत में लिख दिया या उसे कहीं प्रक्षिप्त कर दिया, उसे हम धर्मशास्त्र मानकर उसके खूंटे से अपनी बुद्धि को बाँध लें, यह उचित नहीं । उन ग्रन्थों में जो विशिष्ट चिंतन एवं दर्शन है, समग्र मानव जाति के कल्याण का जो संदेश है, उसका मैं बहुत आदर करता हूँ, और इसीलिए उनका स्वाध्याय व प्रवचनभी करता हूँ। किन्तु इस संबंध में इस वैचारिक प्रतिबद्धता को मैं उचित नहीं समझता कि उनमें जो कुछ लिखा है, वह अक्षरश: सत्य है । उत्तरकाल में आगमों की संकलना मैं सत्य के संबंध में किसी विशेष चिंतन धारा में कभी प्रतिबद्ध नहीं रहा, सदा उन्मुक्त एवं स्वतंत्र चिंतन का पक्षपाती रहा हूँ, इसलिए जो बात वैदिक ग्रंथों के संबंध में कह सकता हूँ, वह जैन ग्रंथों के संबंध में भी कहते हुए मुझे संकोच नहीं है। इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मैं इस तथ्य को मानता हूँ कि प्रत्येक क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 19 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म परम्परा में समय-समय पर परिवर्तन होते आये हैं, सही के साथ कुछ गलत विचार भी आये हैं और यथावसर उनका परिष्कार भी हुआ है। इसी दिशा में जैन आगमों की मान्यता के सम्बन्ध में मतभेदों की एक लंबी परम्परा भी मेरे समक्ष खड़ी है। उसमें कब, क्या, कितने परिवर्तन हुए, कितना स्वीकारा गया और नकारा गया, इसका भी कुछ इतिहास हमारे सामने आज विद्यमान है। नन्दी सूत्र, जिसे कि आप आगम मानते हैं और भगवान् के कहे हुये शास्त्रों की कोटि में गिनते हैं, वह भगवान् महावीर से काफी समय बाद की संकलना है। उसके लेखक या संकलन कर्ता आचार्य देववाचक थे। भगवान् महावीर और आचार्य देववाचक के बीच के सुदीर्घ काल में देश में कितने बड़े-बड़े परिवर्तन आये, कितने भयंकर दर्भिक्ष पडे, राजसत्ता में कितनी क्रांतियाँ और परिवर्तन हुए, धार्मिक परंपराओं में कितनी तेजी से परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुए, इसकी एक लंबी कहानी है। किन्तु हम उस एक हजार वर्ष पश्चात् संकलित सूत्र को और उसमें उल्लिखित सभी शास्त्रों को भगवान् महावीर की वाणी स्वीकार करते हैं। यह भी माना जाता है कि उपांगों की संकलना महावीर के बहुत बाद में हुई, और प्रज्ञापना जैसे विशाल ग्रंथ के रचयिता भी एक विद्वान आचार्य भगवान् महावीर के बहुत बाद हुए हैं। दशवैकालिक, और अनुयोगद्वार सूत्र भी क्रमशः आचार्य शय्यंभव और आर्यरक्षित की रचना सिद्ध हो चुके हैं। यद्यपि इन आगमों में बहुत कुछ अंश जीवनस्पर्शी है, पर भगवान् महावीर से उनका सीधा संबंध नहीं, यह निश्चत है। मेरे बहुत से साथी इन उत्तरकालीन संकलनाओं को इसलिए प्रमाण मानते हैं कि इनका नामोल्लेख अंग साहित्य में हुआ है और अंग सूत्रों का सीध । सम्बन्ध महावीर से जुड़ा हुआ है। मैं समझता हूँ कि यह तर्क सत्य स्थिति को अपदस्थ नहीं कर सकता, हकीकत को बदल नहीं सकता। भगवती जैसे विशालकाय अंग सूत्र में महावीर के मुख से यह कहलाना कि-'जहा पण्णवणाए'-जैसा प्रज्ञापना में कहा है, किस इतिहास से संगत है? प्रज्ञापना, रायपसेणी और उववाई के उद्धरण भगवान महावीर अपने मुख से कैसे दे सकते है? जबकि उनकी संकलना बहुत बाद में हुई है? इस तर्क का समाधान दिया जाता है कि बाद के लेखकों व आचार्यों ने 20 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक लेखन से बचने के लिए संक्षिप्त रुचि के कारण स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख कर दिया है। जब यह मान लिया है कि अंग आगमों में भी आचार्यों का अंगुलीस्पर्श हुआ है, उन्होंने संक्षिप्तीकरण किया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि कहीं-कहीं कुछ मूल से बढ़ भी गया है, विस्तार भी हो गया है? मैं नहीं कहता कि उन्होंने कुछ ऐसा किसी गलत भावना से किया है, भले ही यह सब कुछ पवित्र प्रभुभक्ति एवं श्रुत महत्ता की भावना से ही हुआ हो, पर यह सत्य है कि जब घटाना संभव है, तो बढ़ाना भी संभव है । और, इस संभावना के साक्ष्य रूप प्रमाण भी आज उपलब्ध हो रहे हैं। भूगोल - खगोल महावीर की वाणी नहीं यह सर्व सम्मत तथ्य आज मान लिया गया है कि मौखिक परम्परा एवं स्मृतिदौर्बल्य के कारण बहुत-सा श्रुत विलुप्त हो गया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि सर्व साधारण में प्रचलित उस युग की कुछ मान्यताएँ भी आगमों के साथ संकलित कर दी गई हैं ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि ऐसा होना संभव है, और वह हुआ है। उस युग में भुगोल, खगोल, ग्रह, नक्षत्र, नदी, पर्वत आदि के संबंध में कुछ मान्यताएँ आम प्रचलित थीं, कुछ बातें तो भारत के बाहरी क्षेत्रों में भी अर्थात् इस्लाम और ईसाई धर्मग्रन्थों में भी इधर-उधर के सांस्कृतिक रूपान्तर के साथ ज्यों की त्यों उल्लिखित हुई हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि ये धारणाएँ सर्वसामान्य थीं। जो जैनों ने भी लीं, पुराणकारों ने भी लीं और दूसरों ने भी ! उस युग में उनके परीक्षण का कोई साधन नहीं था, इसलिए उन्हें सत्य ही मान लिया गया और वे शास्त्रों की पंक्तियों के साथ चिपट गई! पर बाद के उस वर्णन को भगवान् महावीर के नाम पर चलाना क्या उचित है? जिस चंद्रलोक के धरातल के चित्र आज समूचे संसार के हाथों में पहुँच गए हैं और अपोलो 8 के यात्रियों ने आँखों से देखकर बता दिया है कि वहाँ पहाड़ हैं, ज्वालामुखी के गर्त हैं, श्री - हीन उजड़े भूखण्ड हैं, उस चंद्रमा के लिए कुछ पुराने धर्म ग्रन्थों की दुहाई देकर आज भी यह मानना कि वहाँ सिंह, हाथी बैल और घोड़ों के रूप में हजारों देवता हैं, और वे सब मिलकर चन्द्र विमान को वहन कर रहे है; 23 कितना असंगत एवं कितना अबौद्धिक है? क्या यह महावीर की वाणी, एक सर्वज्ञ की वाणी हो सकती है? जिन गंगा आदि नदियों की इंच-इंच भूमि आज क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 21 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाप ली गई है उन नदियों को आज भी लाखों मील के लंबे चौड़े विस्तार वाली बताना, क्या यह महावीर की सर्वज्ञता एवं भगवत्ता का उपहास नहीं है? ___ आज बहुत से जिज्ञासु मुझसे पूछ रहे हैं, बहुत से तर्कप्रेमी श्रावकों के प्रश्न आ रहे हैं, उनसे भी और आप सभी से मैं यह कहना चाहता हूँ कि आज हमें नये सिरे से चिन्तन करना चाहिए। यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर सत्य का सही मूल्यांकन करना चाहिए। दूध और पानी की तरह यह अलग-अलग कर देना चाहिए कि भगवान की वाणी क्या है? महावीर के वचन क्या है? एवं उसमें उत्तरकालीन विद्वानों की संकलना क्या है? यह साहस आज करना होगा, कतराने और सकुचाने से सत्य पर पर्दा नहीं डाला जा सकेगा। आज का तर्क प्रधान युग निर्णायक उत्तर मांगता है और यह उत्तर धर्मशास्त्रों के समस्त प्रतिनिधियों को देना होगा। मैं समझता हूँ कि आज के युग में भी आपके मन में तथाकथित शास्त्रों के अक्षर -अक्षर को सत्य मानने का व्यामोह है, तो महावीर की सर्वज्ञता को अप्रमाणित होने से आप कैसे बचा सकेंगे? यदि महावीर की सर्वज्ञता को प्रमाणित रखना है, तो फिर यह विवेकपूर्वक सिद्ध करना ही होगा कि महावीर की वाणी क्या है? शास्त्र का यथार्थ स्वरूप क्या है? और वह शास्त्र कौन-सा है? अन्यथा आनेवाली पीढी कहेगी कि महावीर को भूगोल-खगोल के संबंध में कुछ भी अता-पता नहीं था, उन्हें स्कूल के एक साधारण विद्यार्थी जितनी भी जानकारी नहीं थी ! शास्त्रों की छंटनी करनी होगी प्रश्न उपस्थित होता है, हम कौन होते हैं, जो महावीर की वाणी की छंटनी कर सकें? हमें क्या अधिकार है कि शास्त्रों का फैसला कर सकें कि कौन शास्त्र हैं और कौन नहीं ! ____ मेरा उत्तर है, हम महावीर के उत्तराधिकारी हैं, भगवान् का गौरव हमारे अन्तर्मन में समाया हुआ है, भगवान् की अपभ्राजना हम किसी भी मूल्य पर सहन नहीं कर सकते। हम त्रिकाल में भी यह नहीं मान सकते कि भगवान् ने असत्य प्ररूपणा की है। अतः जो आज प्रत्यक्ष में असत्य प्रमाणित हो रहा है, या हो सकता है, वह भगवान का वचन नहीं हो सकता इसलिए हमें पूरा अधिकार है कि यदि कोई भगवान् को, भगवान् की वाणी को चुनौती देता है तो हम 22 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथार्थ सत्य के आधार पर उसका प्रतिरोध करें, उस चुनौती का स्पष्ट उत्तर दें कि सचाई क्या है? . विज्ञान ने हमारे शास्त्रों की प्रामाणिकता को चुनौती दी है। हमारे कुछ बुजुर्ग कहे जाने वाले विद्वान मुनिराज या श्रावक जिस ढंग से उस चुनौती का उत्तर दे रहे हैं कि असली चन्द्रमा बहुत दूर है। कुछ यह भी कहते हैं कि यह सब झूठ है, वैज्ञानिकों का, नास्तिकों का षड्यन्त्र है, केवल धर्म की निन्दा करने के लिए। -मैं समझता हूँ, इस प्रकार के उत्तर निरे मजाक के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जिस हकीकत को प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों के वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं, बाल की खाल उतारने वाले तार्किक भी आदर पूर्वक उसे मान्य कर रहे हैं, धरती पर रहे लाखों लोगों ने भी टेलिविजन के माध्यम से चन्द्र तक आने-जाने का दृश्य देखा है, उस प्रत्यक्ष सत्य को हम यों झूठला नहीं सकते। और न नकली-असली चन्द्रमा बताने से ही कोई बात का उत्तर हो सकता है। प्रतिरोध करने का यह तरीका गलत है, उपहासास्पद है। शास्त्रों की गरिमा को अब इस हिलती हुई दीवार के सहारे अधिक दिन टिकाया नहीं जा सकता। मैं पूछता हूँ कि आपको शास्त्रों की परख करने का अधिकार क्यों नहीं है? कभी एक परम्परा थी, जो चौरासी आगम मानती थी, ग्रन्थों में उसके प्रमाण विद्यमान हैं। फिर एक परम्परा खड़ी हई, जो चौरासी में से छंटनी करती-करती पैंतालीस तक आ गई। भगवान महावीर के लगभग दो हजार वर्ष बाद फिर एक परम्परा ने जन्म लिया, जिसने पैंतालीस को भी अमान्य ठहराया और बत्तीस आगम माने। मैं पूछता हूँ-धर्मवीर लोंकाशाह ने, पैंतालीस आगमों में से बत्तीस छाँट लिए, क्या वे कोई बहुत बड़े श्रुतधर आचार्य थे? क्या कोई विशिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हुआ था उन्हें? क्या उन्हें कोई ऐसी देववाणी हुई थी कि अमुक शास्त्र शास्त्र है, और अमुक नहीं फिर उन्होंने जो यह निर्णय किया और जिसे आज आप मान रहे हैं, वह किस आधार पर था? सिर्फ अपनी प्रज्ञा एवं दृष्टि से ही तो यह छंटनी उन्होंने की थी ! तो आज क्या वह प्रज्ञा और वह दृष्टि लुप्त हो गई है? आज किसी विद्वान में वह निर्णायक शक्ति नहीं रही? या साहस नहीं है? अथवा वे अपनी श्रद्धा-प्रतिष्ठा के भय से भगवद्वाणी का यह उपहास देखते हुए भी मौन हैं? मैं साहस के साथ कह देना चाहता हूँ कि आज वह निर्णायक घड़ी आ पहुँची है कि 'हाँ' या 'ना' में स्पष्ट निर्णय करना होगा। क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 23 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक प्रतिबद्धता एवं शाब्दिक व्यामोह को तोड़ना होगा, और यह कसौटी करनी ही होगी कि भगवद्वाणी क्या है और उसके बाद का अंश क्या है? विचार प्रतिबद्धता को तोड़िए मैं आपसे कह देना चाहता हूँ कि किसी भी परम्परा के पास ग्रन्थ या शास्त्र कम- अधिक होने से जीवन के आध्यात्मिक विकास में कोई अंतर आने वाला नहीं है। यदि शास्त्र कम रह गए तो भी आपका आध्यात्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो सकता है, विकसित हो सकता है, और शास्त्र का अंबार लगा देने पर भी आप बहुत पिछड़े हुए रह सकते हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए जिस चिंतन और दृष्टि की आवश्यकता है, वह तो अंतर से जागृत होती है। जिसकी दृष्टि सत्य के प्रति जितनी आग्रहरहित एवं उन्मुक्त होगी, जिसका चिंतन जितना आत्ममुखीन होगा, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकेगा। मैंने देखा है, अनुभव किया है-ग्रन्थों एवं शास्त्रों को लेकर हमारे मानस में एक प्रकार की वासना, एक प्रकार का आग्रह, जिसे हठाग्रह ही कहना चाहिए, पैदा हो गया है। आचार्य शंकर ने विवेक चूडामणि में कहा है-देह वासना एवं लोकवासना के समान शास्त्रवासना भी यथार्थ ज्ञान की प्रतिबंधक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे ही 'दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेद्यः सतामपि,'-कहकर दृष्टिरागी के लिए सत्य की अनुसंधित्सा को बहुत दुर्लभ बताया है। हम अनेकांत दृष्टि और स्याद्वाद विचार पद्धति की बात-बात पर जो दुहाई देते हैं, वह आज के राजनीतिकों की तरह केवल नारा नहीं होना चाहिए, हमारी सत्य दृष्टि बननी चाहिए, ताकि हम स्वतंत्र, अप्रतिबद्ध प्रज्ञा से कुछ सोच सकें। जब तक दृष्टि पर से अंध-श्रद्धा का चश्मा नहीं उतरेगा, जबतक पूर्वाग्रहों के खूटे से हमारा मानस बंधा रहेगा-तब तक हम कोई भी सही निर्णय नहीं कर सकेंगे। इसलिए युग की वर्तमान परिस्थितियों का तकाजा है कि हम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर नये सिरे से सोचें ! प्रज्ञा की कसौटी हमारे पास है, और यह कसौटी भगवान महवीर एवं गणधर गौतम ने, जो स्वयं सत्य क साक्षात्द्रष्टा एवं उपासक थे, बतलाई है-"पण्णा समिक्खए धम्म23 प्रज्ञा ही धर्म की, सत्य की समीक्षा कर सकती है, उसी से तत्त्व का निर्णय किया जा सकता है। 24 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र- स्वर्ण की परख प्रज्ञा एक कसौटी है, जिस पर शास्त्र रूप स्वर्ण की परख की जा सकती है। और वह परख होनी ही चाहिए। हम में से बहुत से साथी हैं, जो कतराते हैं, कि कहीं परीक्षा करने से हमारा सोना पीतल सिद्ध न हो जाए ! मैं कह देना चाहता हूँ कि इस में कतराने की कौन-सी बात है ? यदि सोना वस्तुतः सोना है, तो वह सोना ही रहेगा, और यदि पीतल है तो उस पर सोने का मोह आप कब तक किए रहेंगे? सोने और पीतल को अलग-अलग होने दीजिए- इसी में आप की प्रज्ञा की कसौटी का चमत्कार है। जैन आगमों के महान् टीकाकार आचार्य अभयदेव ने भगवती सूत्र की टीका की पीठिका में एक बहुत बड़ी बात कही है, जो हमारे संपूर्ण भगवद् वाणी की कसौटी हो सकती है। प्रश्न है कि आप्त कौन है? और उनकी वाणी क्या है? आप्त भगवान् क्या उपदेश करते हैं? उत्तर में कहा गया है कि- जो मोक्ष का अंग है, मुक्ति का साधन है, आप्त भगवान् उसी यथार्थ सत्य का उपदेश करते हैं। आत्मा की मुक्ति के साथ जिसका प्रत्यक्ष या पारम्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका उपदेश भगवान् कभी नहीं करते। यदि उसका भी उपदेश करते हैं, तो उनकी आप्तता में दोष आता है। 24 यह एक बहुत सच्ची कसौटी है, जो आचार्य अभयदेव ने हमारे समक्ष प्रस्तुत की है। इससे भी पूर्व लगभग चौथी - पाँचवीं शताब्दी के महान तार्किक, जैन तत्त्वज्ञान को ~ दर्शन का रूप देने वाले आचार्य सिद्धसेन ने भी शास्त्र की एक कसौटी निश्चित् की थी आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥25 44 “जो वीतराग - आप्त पुरुषों के द्वारा जाना परखा गया है, जो किसी अन्य वचन के द्वारा अपदस्थ - हीन नहीं किया जा सकता और जो तर्क तथा प्रमाणों से खंडित नहीं हो सकने वाले सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, जो प्राणिमात्र के कल्याण के निमित्त से सार्व अर्थात् सार्वजीनन - सर्वजन हितकारी होता है, एवं क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 25 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म साधना के विरुद्ध जाने वाली विचारसरणियों का निरोध करता है- वही सच्चा शास्त्र है।" तार्किक आचार्य ने शास्त्र की जो कसौटी की है, वह आज भी अमान्य नहीं की जा सकती। वैदिक परम्परा के प्रथम दार्शनिक कपिल एवं महान् तार्किक गौतम ने भी जब शब्द को प्रमाण कोटि में माना, तो पूछा गया शब्द प्रमाण क्या है? तो कहा-'आप्त का उपदेश शब्द प्रमाण है !' आप्त कौन? तत्त्व का यथार्थ उपदेष्टा आप्त है।26 जिसके वचन में पूर्वापर विरोध, असंगति-विसंगति नहीं होती, और जो वचन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध नहीं जाता, खंडित नहीं होता-वही आप्त वचन है। आचार्य ने उक्त कथन पर से सिद्ध हो जाता है कि किसका, क्या वचन मान्य हो सकता है और क्या नहीं। जो वचन यथार्थ नहीं है, सत्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है, वह भले कितना ही विराट एवं विशाल ग्रंथ क्यों न हो, उसे 'आप्तवचन' कहने से इन्कार कर दीजिए। इसी में आप्त की और आपकी प्रामाणिकता है, प्रतिष्ठा है। हम स्वयं निर्णय करें तर्क शास्त्र की ये सूक्ष्म बातें मैंने आपको इसलिए बताई हैं कि हम अपनी प्रज्ञा को जागृत करें, और स्वयं परखें कि वस्तुतः शास्त्र क्या है, उसका प्रयोजन क्या है? और फिर यह भी निर्णय करें कि जो अपनी परिभाषा एवं प्रयोजन के अनुकूल नहीं है, वह शास्त्र, शास्त्र नहीं है। उसे और कुछ भी कह सकते हैं-ग्रन्थ, रचना, कृति कुछ भी कहिए, पर हर किसी ग्रन्थ को भगवद् वाणी या आप्तवचन नहीं कह सकते। शास्त्र की एक कसौटी, जो उत्तराध्ययन सूत्र से मैंने आपको बतलाई, जिसमें कहा गया है-तप, क्षमा एवं अहिंसा की प्रेरणा जगाकर आत्म दृष्टि को जागृत करने वाला शास्त्र है। यह इतनी श्रेष्ठ और सही कसौटी है कि इसके आध पर पर भी यदि हम वर्तमान में शास्त्र का निर्णय करें तो बहुत ही सही दिशा प्राप्त कर सकते हैं। बहुत से जिज्ञासुओं और मेरे साथी मुनियों के समक्ष मैंने जब कभी अपने ये विचार एवं तर्क उपस्थित किए तो वे कतराने से लगते हैं, कि बात तो ठीक है, पर यह कैसे कहें कि अमुक आगम को हम शास्त्र नहीं मानते ! इससे 26 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत हलचल मच जाएगी, श्रावकों की श्रद्धा खत्म हो जाएगी, धर्म का ह्रास हो जाएगा। मैं जब उनकी उक्त ढिचुस्त एवं भीरुता भरी बातें सुनता हूँ तो मन झुंझला उठता है-यह क्या कायरता है? यह कैसी मनोवृत्ति है हमारे मन में ! समझते हैं कि बात सही है, पर कह नहीं सकते। चूँकि लोग क्या कहेंगे? मैं समझता हूँ-इसी दब्बू मनोवृत्ति ने हमारे आदर्शों को गिराया है, हमारी संस्कृति का पतन किया है। यही मनोवृत्ति वर्तमान में पैदा हुई शास्त्रों के प्रति अनास्था एवं धर्म विरोधी भावना की जिम्मेदार है। भगवद्भक्ति या शास्त्र-मोह बहुत वर्ष पहले की बात है, मैं देहली में था। वहाँ के लाला उमरावमलजी एक बहुत अच्छे शास्त्रज्ञ, साथ ही तर्कशील श्रावक थे। उनके साथ प्रायः अनेक शास्त्रीय प्रश्नों पर चर्चा चलती रहती थी। एक बार प्रसंग चलने पर मैंने कहा-“लालाजी ! मैं कुछ शास्त्रों के सम्बन्ध में परम्परा से भिन्न दृष्टि रखता हूँ ! मैं यह नहीं मानता कि इन शास्त्रों का अक्षर-अक्षर भगवान् ने कहा है। शास्त्रों में कुछ अंश ऐसे भी हैं, जो भगवान् की सर्वज्ञता के साक्षी नहीं हैं। भूगोल-खगोल को ही ले लीजिए ! यह सब क्या है?" मैंने यह कहा तो लालाजी एकदम चौके और बोले - "महाराज ! आपने यह बात कैसे कही ! ऐसा कैसे हो सकता है?" इस पर मैंने उनके समक्ष शास्त्रों के कुछ स्थल रखे, साथ ही लम्बी चर्चा की, और फिर उनसे पूछा-"क्या ये सब बातें एक सर्वज्ञ भगवान की कही हुई हो सकती है? हो सकती हैं, तो इनमें परस्पर असंगतता एवं विरोध क्यों है? सर्वज्ञ की वाणी कभी असंगत नहीं हो सकती और यदि असंगत है तो वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती।" । लालाजी बुजुर्ग होते हुए भी जड़ मस्तिष्क नहीं थे, श्रद्धा प्रधान होते हुए भी तर्कशून्य नहीं थे। उन्होंने लम्बी तत्त्वचर्चा के बाद अन्त में मुक्त मन से कहा-"महाराज! इन चांद-सूरज के शास्त्रों से भगवान् का सम्बन्ध जितना जल्दी तोड़ा जाये उतना ही अच्छा है। वरना इन शास्त्रों की श्रद्धा बचाने गये तो कहीं भगवान की श्रद्धा से ही हाथ न धो बैठे !" मैं आपसे भी यही पूछना चाहता हूँ कि आप इन चन्द्र, सूर्य, सागर एवं क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 27 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमेरु की चर्चा करने वाले शास्त्रों को महत्त्व देना चाहते हैं या भगवान् को ? आपके मन में भगवद्भक्ति का उद्रेक है या शास्त्र मोह का? आप कहेंगे शास्त्र नहीं रहा, तो भगवान् का क्या पता चलेगा? शास्त्र ही तो भगवान् का ज्ञान कराते हैं। बात ठीक है, शास्त्रों से ही भगवान् का ज्ञान होता है। हम आत्मा हैं और भगवान् परमात्मा हैं। आत्मा परमात्मा में क्या अन्तर है? अशुद्ध और शुद्ध स्थिति काही तो अन्तर है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही भगवान् है, भगवान् का स्वरूप है। इस प्रकार भगवान् का स्वरूप आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है । और जो शास्त्र आत्मस्वरूप का ज्ञान करानेवाला है, आत्मा से परमात्मा होने का मार्ग बताने वाला है, जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता का पथ दिखाने वाला है, वास्तव में वही धर्मशास्त्र है, और उसी धर्मशास्त्र की हमें आवश्यकता है। किन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र आत्मस्वरूप की जगह आत्म-विभ्रम का कारण खड़ा कर देता है, हमें अन्तर्मुख नहीं, अपितु बहिर्मुख बनाता है, उसे शास्त्र की कोटि में रखने से क्या लाभ है? वह तो उल्टा हमें भगवत् श्रद्धा से दूर खदेड़ता है, मन को शंकाकुल बनाता है, और प्रबुद्ध लोगों को हमारे शास्त्रों पर, हमारे भगवान् पर अंगुली उठाने का मौका देता है। आप तटस्थ दृष्टि से देखिए कि ये भूगोल - खगोल सम्बन्धी चर्चाएँ, ये चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत और समुद्र आदि के लम्बे चौड़े वर्णन करने वाले शास्त्र हमें आत्मा को बन्धन मुक्त करने के लिए क्या प्रेरणा देते हैं? आत्मविकास का कौन-सा मार्ग दिखाते हैं? इन वर्णनों से हमें तप, त्याग, क्षमा, अहिंसा आदि का कौन-सा उपदेश प्राप्त होता है? जिनका हमारी आध्यात्मिक चेतना से कोई सम्बन्ध नहीं, आत्म-साधना से जिनका कोई वास्ता नहीं, हम उन्हें शास्त्र मानें तो क्यों? उन्हें भगवद्वाणी सर्वज्ञ का उपदेश माने तो क्यों ? किस आधार पर ? मैंने प्रारम्भ में एक बात कही थी कि जैन एवं वैदिक परंपरा के अनेक ग्रंथों का निर्माण या नवीन संस्करण ईसापूर्व की पहली शताब्दी से लेकर ईसा पश्चात् चौथी पाँचवी शताब्दी तक होता रहा है। उस युग में जो भी प्राकृत या संस्कृत में लिखा गया उसे धर्म शास्त्र की सूची में चढ़ा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव की स्वतंत्र तर्कणा एक तरह से कुण्ठित हो गई और श्रद्धावनत होकर मानव ने हर किसी ग्रन्थ को शास्त्र एवं आप्तवचन मान लिया। 28 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की कोई भी परम्परा इस बौद्धिक विकृति से मुक्त नहीं रह सकी। श्रद्धाधिं क्य के कारण हो सकता है प्रारम्भ में यह भूल कोई भूल प्रतीत न हुई हो, पर आज इस भूल के भयंकर परिणाम हमारे समक्ष आ रहे हैं। भारत की धार्मिक प्रजा आज उन तथाकथित धर्मशास्त्रों की जकड़ में इस प्रकार प्रतिबद्ध हो गई है कि न कुछ पकड़ते बनता है और न कुछ छोड़ते बनता है। मेरा यह कथन शास्त्र की अवहेलना या अप्रभाजना नहीं, किन्तु एक सत्य हकीकत है, जिसे जानकर, समझकर हम शास्त्र के नाम पर अन्ध-शास्त्र प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाएँ। जैसा मैंने कहा - शास्त्र तो सत्य का उद्घाटक होता है, असत्य धारणाओं का संकलन शास्त्र नहीं होता। मैं तत्त्वद्रष्टा ऋषियों की वाणी को पवित्र मानता हूँ, महाश्रमण महावीर की वाणी को आत्म-स्पर्शी मानता हूँ-इसलिए कि वह सत्य है, ध्रुव है। किन्तु उनके नाम पर रचे गये ग्रन्थों को, जिनमें कि अध्यात्म चेतना का कुछ भी स्पर्श नहीं है, सत्यं शिवं की साक्षात् अनुभूति नहीं है, मैं शास्त्र नहीं मानता। " कुछ मित्र मुझे अर्धनास्तिक कहते हैं, मिथ्यात्वी भी कहते हैं, मैं कहता हूँ अर्धनास्तिक का क्या मतलब? पूरा ही नास्तिक क्यों न कह देते ? अगर सत्य का उद्घाटन करना और उसे मुक्त मन से स्वीकार कर लेना, नास्तिकता है, तो वह नास्तिकता अभिशाप नहीं, वरदान है। मेरा मन महावीर के प्रति अटूट श्रद्धा लिए हुए है, सत्य द्रष्टा ऋषियों के प्रति एक पवित्र भावना लिए हुए है, और यह श्रद्धा ज्यों-ज्यों चिंतन की गहराई का स्पर्श करती है, त्यों-त्यों अधिक प्रबल, अधिक दृढ़ होती जाती है । मैं आज भी उस परम ज्योति को अपने अन्तरंग में देख रहा हूँ और उस पर मेरा मन सर्वतोभावेन समर्पित हो रहा है। भगवान् मेरे लिए ज्योति स्तम्भ हैं, उनकी वाणी का प्रकाश मेरे जीवन के कण-कण में समाता जा रहा है। किन्तु भगवान् की वाणी क्या है, और क्या नहीं, यह मैं अपने अन्तर्विवेक के प्रकाश में स्पष्ट देखकर चल रहा हूँ। भगवान् की वाणी वह है, जो अन्तर में सत्य श्रद्धा की ज्योति जगाती है, अन्तर में सुप्त ईश्वरत्व को प्रबुद्ध करती है, हमारी अन्तश्चेतना को व्यापक एवं विराट् बनाती है । भगवद् वाणी की स्फुरणा आत्मा की गति - प्रगति सम्बन्धित है, सूर्य, चन्द्र आदि की गति से नहीं। सोने-चाँदी के पहाड़ों की ऊँचाई-नीचाई से नहीं, नदी नालों एवं समुद्रों की गहराई - लम्बाई से नहीं । ऋषियों क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 29 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वाणी विश्वमैत्री एवं विराट् चेतना की प्रतिनिधि है, उसमें वर्ग संघर्ष, जाति- विद्वेष एवं असत्कल्पनाओं के स्वर नहीं हो सकते । भगवान् की वाणी में जो शाश्वत सत्य का स्वर मुखरित हो रहा है, उसको कोई भी विज्ञान, कोई भी प्रयोग चुनौती नहीं दे सकता, कोई भी सत्य का शोधक उसकी अवहेलना नहीं कर सकता । किन्तु हम इस अज्ञान में भी नहीं रहें कि भगवान् की वाणी के नाम पर, आप्तवचनों के नाम पर, आज जो कुछ भी लिखा हुआ प्राप्त होता है, वह सब कुछ साक्षात् भगवान् की वाणी है, जो कुछ लिपिबद्ध है वह अक्षर-अक्षर भगवान् का ही कहा हुआ है। प्राकृत एवं अर्धमागधी के हर किसी ग्रन्थ पर महावीर की मुद्रा लगा देना, महावीर की भक्ति नहीं, अवहेलना है। यदि हम सच्चे श्रद्धालु हैं, भगवद् भक्त हैं, तो हमें इस अवहेलना से मुक्त होना चाहिए। और यह विवेक कर लेना चाहिए कि जो विचार, जो तथ्य, जो वाणी सिर्फ भौतिक जगत् के विश्लेषण एवं विवेचना से संबंधित है, साथ ही प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित भी है, वह भगवान् की वाणी नहीं है, वह हमारा मान्य शास्त्र नहीं है। हाँ, वह आचार्यों द्वारा रचित या संकलित ग्रन्थ, काव्य या साहित्य कुछ भी हो सकता है, किन्तु शास्त्र नहीं । मैं समझता हूँ मेरी यह बात आपके हृदय में मुश्किल से उतरेगी। आप गहरा ऊहापोह करेंगे, कुछ तो मुझे कुछ का कुछ भी कहेंगे । इसकी मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है। सत्य है कि आज के उलझे हुए प्रश्नों का समाधान इसी दृष्टि से हो सकता है। मैंने अपने चिन्तन-मनन से समाधान पाया है, और अनेक जिज्ञासुओं को भी दिया है, मैं तो मानता हूँ कि इसी समाधान के कारण आज भी मेरे मन में महावीर एवं अन्य ऋषि मुनियों के प्रति श्रद्धा का निर्मल स्रोत उमड़ रहा है मेरे जीवन का कण-कण आज भी सहज श्रद्धा के रस से आप्लावित हो रहा है। और मैं तो सोचता हूँ, मेरी यह स्थिति उन तथाकथित श्रद्धालुओं से अधिक अच्छी है जिनके मन में तो ऐसे कितने ही प्रश्न संदेह में उलझ रहे हैं, किन्तु वाणी में शास्त्र श्रद्धा की धुंआधार गर्जना हो रही है। जिनके मन में केवल परम्परा के नाम पर ही कुछ समाधान हैं, जिनकी बुद्धि पर इतिहास की अज्ञानता के कारण विवेकशून्य श्रद्धा का आवरण चढ़ा हुआ है, उनकी श्रद्धा कल टूट भी सकती है, और न भी टूटे तो कोई उसकी श्रेयस्कता मैं नही समझता । किन्तु विवेकपूर्वक जो श्रद्धा जगती है, चिन्तन से स्फुरित होकर जो ज्योति प्रकट होती 30 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उसी का अपने और जगत् के लिए कुछ मूल्य है। उस मूल्य की स्थापना आज नहीं तो कल होगी, अवश्य होगी। संदर्भ : 1. चंद्रप्रज्ञप्ति 18/3 2. जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति, ज्योतिष चक्राधिकार 8 3. चंद्रप्रज्ञप्ति 20/2 4. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्योतिष चक्राधिकार 5. चन्द्रप्रज्ञप्ति 20/14 6. निरुक्त 2/11 7. साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभूवुः। निरुक्त 1/20 8. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 1384 शासु-अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम् टीका 9. उत्तराध्ययन 3/1 10. उत्तराध्ययन 3/8 11. प्रश्न व्याकरण 2/1 12. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्। स्वयंभूस्तोत्र 13. प्रश्न व्याकरण 2/1-7 14. योगबिन्दु प्रकरण 2/9 15. यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा। __ यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।। -मनुस्मृति 5/39 16. वाल्मीकि रामायण (शुनः शेप) बालकाण्ड, सर्ग 62 17. वसिष्ठ धर्मसूत्र 4/3 18. यस्तु छायां श्वपाकस्य ब्राह्मणो ह्यधिरोहति। तत्र स्नानं प्रकुर्वीत घृतं प्रास्य विशुध्यति।। अत्रि. 288-289, याज्ञ. 2/30 (मिताक्षरा में उद्धृत) 19. महा. अनु. 38/12 20. बौद्धान् पाशुपतांश्चैव लोकायतिकनास्तिकान्। विकर्मस्थान् द्विजान् स्पृष्ट्वा सचैलो जलमाविशेत्।। -स्मृतिचंद्रिका पृ.118 21. (क) दिग्विजय पर्व, संभवतः 176 ई.पू. से पहले का है। -भा. इ. रू. पृ. 1003 क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 31 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) महाभारत का वर्तमान संस्करण सातवाहन युग में तैयार हुआ। (ई.पू. 1 ई. तक) भा. इ. रू..पृ.1003 22. मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति सातवाहन युग की कृति है। -भारतीय इतिहास की रूपरेखा (जयचन्द्र विद्यालंकार) भा. 2/पृ. 1001 23. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ज्योतिषचक्राधिकार, चंद्र ऋद्धि वर्णन। 23. उत्तरा. 23/25 24. नहि आप्तः साक्षाद् पारंपर्येण वा यन्न मोक्षाङ्गं तद् प्रतिपादयितुमुत्सहते अनाप्तत्वप्रसंगात्। ___ -आचार्य अभयदेव, भगवती वृत्ति 1/1/ 25. न्यायावतार 9 26. आप्तोपदेशः शब्दः -सांख्यदर्शन 1/101 -न्यायदर्शन 1/1/7 आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापययिषा प्रयुक्त उपदेष्टा..... -न्यायदर्शन वात्स्यायन भाष्य 32 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 | क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? -शंका समाधान प्रश्न-आजकल समाज में, खासकर साधु वर्ग में काफी हल्ला है कि आपने शास्त्रों को चुनौती दी है? उत्तर-मैंने तो शास्त्रों को चुनौती नहीं दी है। भला शास्त्रों को मैं या और कोई भी चुनौती कैसे दे सकता है? शास्त्र का अर्थ धर्मशास्त्र है। यह एक ऐसा शब्द है, जिसके पीछे साधक की पवित्र धर्म-भावना रही हुई है। आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणाओं का मूल स्रोत है शास्त्र। वस्तुतः वही भगवद्वाणी है। आध्यात्मिकता से शून्य कोरे भौतिक वर्णन ग्रन्थ हो सकते है, शास्त्र नहीं। यदि कोई चुनौती दे सकता है तो वह ग्रन्थों को दे सकता है, शास्त्रों को नहीं। सर्वप्रथम फरवरी 1969 में प्रकाशित मेरे लेख का शीर्षक ही है 'क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? ' उक्त शीर्षक में 'क्या' का प्रयोग ही बता रहा है कि शास्त्रों को चुनौती नहीं दी जा सकती। और इस बात का स्पष्टीकरण मैंने उस लेख में ही कर दिया था। फिर भी पता नहीं, लोग ऐसा क्यों कहते है? लोगों की बात छोड़िए, बात है संयमी मुनिराजों की। क्या तो उन्होंने पूरा लेख पढ़ा नहीं है, यदि पढ़ा है तो उसे अच्छी तरह समझा नहीं है। और तो क्या शीर्षक का भाक भी अच्छी तरह नहीं समझ सके हैं। यदि वस्तुतः समझ गए हैं तो उनके मन में कुछ और ही बात है। क्या बात है, मैं क्या बताऊँ। प्रश्न-सम्यग् दर्शन (सैलाना) आपके सम्बन्ध में उक्त लेख को लेकर बड़ी अभद्र चर्चा कर रहा है। डोशी जी काफी बौखलाये हुए हैं। आप इस सम्बन्ध में क्या सोचते है? उत्तर-मैं क्या सोचता हूँ, मुझे तो कुछ पंक्तियाँ पढ़ते ही हँसी आने लगती है। भद्र या अभद्र का कोई प्रश्न नहीं, चर्चा तो हो। पर वह तो चर्चा ही नहीं है। गालियाँ देना, चर्चा नहीं है। मनुष्य जब अन्दर में रिक्त हो जाता है, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिकार के लिए जब उसे कोई ठोस तर्क, युक्ति या प्रमाण नहीं मिलता, तो वह अभद्र शब्दों का प्रयोग कर अपने मन की कुण्ठा और खीझ बाहर निकालता है। और कुछ नहीं । श्री डोशीजी क्या कहते हैं, इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं । निन्दा और गालियों से, जो डोशी जी जैसे आलोचकों के ब्रह्मास्त्र है, मैंने न कभी अपना पथ बदला है, न बदलूँगा। मुझे अपनी प्रतिष्ठा उतनी नहीं, जितनी कि सत्य की प्रतिष्ठा प्रभावित करती है। मैं यदि चाहता तो सस्ती लोकप्रियता अपने साथियों से भी कहीं अधिक बटोर सकता था। मैं ऐसा कोई बुद्ध नहीं हूँ, जो यह सब न समझ पाता हूँ। तथाकथित लोकप्रियता, श्रद्धा, भक्ति और जय-जयकार बहुत ही सस्ते दामों में मिल सकते हैं। इसके लिए मुझे कुछ नहीं करना होता, केवल जन - साधारण की 'हाँ में हाँ मिलानी होती है, जी- हुजूरी करनी होती है, प्रचलित परम्पराओं के प्रति श्रद्धा सुरक्षित रखने की दुहाई देनी होती है, बस ! पर, यह सब करना, मेरे रक्त में नहीं है। प्रश्न- कुछ लोग कहते हैं कि आप डोशी जी को उत्तर क्यों नहीं देते ? उत्तर - किस बात का दूँ? उच्चस्तरीय कोई सुन्दर विचार चर्चा हो, शालीनता के साथ शंका-समाधान का प्रसंग हो तो मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हूँ। केवल डोशी जी ही नहीं, हर किसी के साथ विचार क्षेत्र में उतर सकता हूँ। परन्तु श्री डोशी जी विचार चर्चा कहाँ करते हैं? गालियाँ देते हैं, और वह भी बहुत फूहड़पन से। आप ही बताइये, इन गालियों का क्या उत्तर दूँ मैं? श्री डोशी जी गाली दे सकते है, चूँकि उनके पास गालियाँ हैं । मेरे पास गालियाँ है ही नहीं, दूँ तो क्या दूँ? जिसके पास जो है, वह वही तो दे सकता है। जो नहीं है, वह कैसे दे सकता है? इसी भाव का एक प्राचीन श्लोक है, सम्भव है, कभी आपने पढ़ा हो या कहीं सुना हो : " ददतु ददतु गालीर्गालिमन्तो भवन्तो, वयमिह तदभावाद् गालिदानेऽप्यशक्ताः । जगति विदितमेतद् दीयते विद्यमानं, 11 न हि शशक- विषाणं कोऽपि कस्मै ददाति । । ' प्रश्न- अमरीकनों द्वारा की गई चन्द्रयात्रा के संबंध में डोशी जी ने जो लिखा है, वह आपके विचार में क्या है? 34 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर - गत फरवरी की अमर भारती में सर्व प्रथम इस दिशा में मैंने ही चर्चा उठाई थी। मेरा आशय था - चन्द्रयात्रा के लिए वैज्ञानिक प्रयत्न प्रगतिशील है। हमारे चन्द्र- प्रज्ञप्ति आदि कुछ सूत्र, जो भगवान् महावीर के बहुत समय पश्चात् इधर-उधर से संकलित किये गये हैं, उनकी मान्यताएँ गलत प्रमाणित हो रही हैं और होंगी । अतः उन्हें आचार्यकृत माना जाए, वे भगवद्वाणी नहीं हैं। वस्तुतः वे भगवाणी हैं भी नहीं। मैंने अनेक पुष्ट प्रमाणों के साथ अपना विचार पक्ष उपस्थित किया था। डोशी जी उसे मेरी धृष्टता कहते हैं और लगभग छह महीने की बड़ी लम्बी अवधि के बाद 5 अगस्त 1969 में आकर उत्तर देने के लिए अपने पवित्र लेखन का श्रीगणेश करते हैं। इस बीच उन्हें श्री प्रभुदास भाई और शंकराचार्य जी की ओर से कुछ लिखा जो मिल गया है, डूबते को तिनके का सहारा | यह कुछ भी हो, मुझे इससे क्या लेना-देना है? प्रस्तुत की चर्चा है। सम्यग् दर्शन (5 सितम्बर 1969 ) में पहले तो डोशी जी यह शंका ही करते हैं, कि " जिसे वैज्ञानिक चन्द्रमा कह कर उस पर पहुँचना बतलाते है, वह वास्तव में चन्द्रमा ही है या और कुछ?" और फिर साथ ही उसी पंक्ति में कहते हैं कि " यदि मान लिया जाए कि वह चन्द्रमा ही है तो वैज्ञानिकों ने उसके ऊपर के एक हिस्से का कुछ दृश्य देखा और स्पर्श किया । समग्र रूप नहीं देखा । " आप देख सकते है यह भी कोई ढंग है कुछ लिखने का ? डोशी जी को तो यह सिद्ध करना चाहिए था कि वैज्ञानिक चन्द्रमा पर नहीं गए हैं। क्योंकि इसके विरुद्ध हमारे शास्त्र के ये प्रमाण हैं, ये तर्क हैं। वैज्ञानिक झूठे हैं, परंतु डोशी जी तो 'यदि' की आड़ में बस झटपट चन्द्र पर जाना स्वीकार कर लेते हैं और आखिर तक स्वीकार के ही स्वर में बहकते रहते हैं। डोशीजी चन्द्रमा को पहाड़ की उपमा देते हैं और देवताओं को उसके अंदर गुफा में बैठा हुआ-सा बतलाते हैं । बलिहारी है सूझबुझ की ! इसके लिए उन्होंने शास्त्र भी देखे हैं या नहीं? श्रद्धेय बहुश्रुत पं. समर्थमल जी महाराज से भी कभी पूछा है या नहीं? शास्त्र तो ऐसा नहीं कहते हैं। वे तो चन्द्रमा को स्फटिक रत्नों का विमान बताते हैं, और पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में चार-चार हजार बैल, हाथी, घोड़े और सिंह जुते हुए कहते हैं। ये सब तो वैज्ञानिकों को नहीं मिले। मिले हैं पत्थर, मिली है काली भुरभुरी मिट्टी, जिसका उल्लेख डोशी क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 35 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी स्वयं करते हैं। वैज्ञानिकों ने इस दृश्य चन्द्रमा के ऊपर और नीचे से होकर कई चक्कर लगाये हैं। उन्हें कहीं भी हाथी, घोड़े नहीं मिले। डोशीजी कहते हैं अभी तो कुछ हिस्सा देखा है, सब नहीं। डोशीजी को और उनके साथियों को आशा है-आगे चलकर कहीं मिल जाएँ तो लाज रह जाए। इन लोगों की स्थिति महाभारत के दुर्योधन की-सी है, जो भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे महारथियों का युद्ध में मरण हो जाने पर भी बेचारे शल्य पर ही भरोसा किये बैठा रहा कि यह ही पाण्डवों को जीत लेगा। बेचारा दुर्योधन? 'मनोरथानामगतिर्न विद्यते।' थोड़ी दूर चल कर डोशीजी ने नवभारत, टाइम्स के आधार पर लौटते समय चंद्रयान की ओर से रेड इंडियनों की-सी रण-हुँकारों एवं प्रेतों जैसी हँसी की आवाजों के आने का उल्लेख किया है और उस पर से संभावित किया है-चन्द्रमा पर देवताओं का अस्तित्व। बिना किसी प्रमाण एवं तर्क के डोशीजी इसी अंक में बड़ी शान के साथ लिखते हैं-"क्या ये ध्वनियाँ देवों की या किसी एक देव की नहीं हो सकती? कविजी ने अमर भारती पृ.33 में चन्द्रदेव और देव-देवियों के अस्तित्व में भी अविश्वास फैलाया है, किन्तु उपर्युक्त अवतरण से देवों के अस्तित्व की संभावना प्रकट हो रही है।" हो रही होगी, डोशीजी के दिव्य उपजाऊ मस्तिष्क में। मालूम होता है-कहीं नवभारत को भी डोशीजी ने सर्वज्ञभाषित शास्त्र तो नहीं मान लिया है ! बुद्धिमान पाठक विचार कर सकते हैं- कितना छिछला प्रतिकार है? नेहरूजी की भाषा में कहा जाए तो यह निरा बचकानापन है और कुछ नहीं। बस ये दो चार बातें इधर-उधर की करने के बाद डोशीजी मूल प्रश्न से भटक गए हैं और अब तक भटके ही जा रहे हैं। कब तक भटकेंगे? मैं क्या कह सकता हूँ। प्रश्न-लौटते समय चन्द्रयान की ओर से आनेवाली इन ध्वनियों के संबंध में कुछ मुनिराज भी इस विचार के हैं कि ये चन्द्रमा के पीछे दौड़ने वाले देवताओं की आवाजें हैं। आप क्या समाधान करते हैं इसका? उत्तर-समाधान क्या करूँ? मुझे तो सुनते ही हँसी आती है इस बौद्धिक चिन्तन पर, प्रतिभा की प्रखरता पर। चन्द्रयान चन्द्रमा पर हो आया, यात्री चन्द्र तल पर इधर-उधर घूम आये, पत्थर खोद लाये और तब देवता कुछ नहीं बोले, कुछ नहीं प्रतिकार किया। और जब लौट रहे थे, तब पीछे दौड़े हा हा हू हू करते। क्या जरूरत थी, पीछे से शोर मचाने की? यदि देवता थे तो अपने संकल्प मात्र -36 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प al Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से वहाँ पर ही यान को पकड़ कर रख लेते, उसे नीचे आने ही नहीं देते और घोषणा करते नीचे आकर कि 'ऐ धरती के वासियों ! खबरदार रहना । यदि तुमने चन्द्रमा पर उतरने का प्रयत्न किया, तो खैर नहीं तुम्हारी । ' श्री डोशीजी अधूरी बातें लिखते हैं। यह पुरानी आदत है उनकी । हिन्दुस्तान दैनिक में पहले दिन हमने भी ऐसा ही कुछ मिलता-जुलता पढ़ा था । किन्तु अगले ही अंकों में स्पष्टीकरण आया था चन्द्र यात्रियों का कि यह शोर और कुछ नहीं था। हम मनोविनोद के लिए अपने साथ चैक रिकार्ड ले गये थे। उन्हें ही बजा रहे थे। यह शोर उन्हीं रिकार्डों का था, जो दूर से कुछ विचित्र - सा सुनाई दे रहा था नीचे धरती वालों को। पूरे शब्द तो स्मृति में नहीं हैं, परन्तु वह चैक रिकार्ड की आवाज थी, इतना सुनिश्चित है। उन दिनों के हिन्दुस्तान दैनिक दिल्ली की फाइल निकाल कर कोई भी यह समाधान देख सकता है। मुझे खेद इस बात का है कि अपना झूठा पक्ष प्रमाणित करने के लिए डोशी जी जैसे श्रावक भी कितनी अधूरी बात लिखते हैं। क्या यह जनता को गुमराह करने वाला कदम नहीं है विचार-चर्चा के क्षेत्र में इस प्रकार के कदम बड़े ही गलत हैं। आखिर विचारक को प्रामाणिक तो होना ही चाहिए । प्रश्न - आप वर्तमान में माने जाने वाले 32 सूत्रों के अक्षर-अक्षर को प्रामाणिक तथा भगवान् की वाणी नहीं मानते? जबकि आपके प्रतिपक्षी दूसरे लोग मानते हैं, तो आप क्यों नहीं मानते ? उत्तर-तथाकथित शास्त्रों का अक्षर-अक्षर भगवान् का कहा हुआ है, वह शत-प्रतिशत प्रामाणिक है, इन आगमों में कुछ भी हेर-फेर नहीं हुआ है, मैं ऐसा नही मानता। भगवान् महावीर से 980 वर्ष बाद, जब कि बीच में अनेक दुष्काल पड़ चुके थे, स्मरण शक्ति क्षीण हो चुकी थी, जैनधर्म और जैन साहित्य पर दूसरे संप्रदायों का कुप्रभाव पड़ चुका था और पड़ रहा था, तब आगमों का संकलन, संपादन एवं लेखन हुआ। कोई भी विचारशील पाठक समझ सकता है - इतने लम्बे काल में क्या कुछ परिवर्तन एवं परिवर्द्धन हो सकते हैं। कितना क्या कुछ नया जोड़ा जा सकता है, घटाया - बढ़ाया जा सकता है । आगमों का मनन एवं चिन्तनपूर्वक स्वाध्याय करने वाला तटस्थ अध्येता जान सकता है कि वास्तविक स्थिति क्या है। क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका - समाधान 37 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवर्द्धि गणी बहुत बाद के आचार्य हैं, वे कोई विशिष्ट ज्ञानी नहीं थे, जो भूल न कर सके हों। अन्य आचार्य भी, जो उपांग आदि के निर्माता हैं, वे भी छद्मस्थ थे, अपने आस-पास की प्रचलित मान्यताओं से प्रभावित थे। तब यह कैसे दावा किया जा सकता है कि उनसे कोई भूल हो नहीं सकती। उपासक दशा सूत्र के अनुसार जब चार ज्ञान और चौदह पूर्व के धर्ता गौतम जैसे महान् गणधर आनन्द श्रावक के यहाँ भूल कर सकते हैं। भूल के लिए सत्यता का हठ पकड़ सकते हैं, तो फिर देवर्द्धि जैसे आचार्यों की तो बात ही क्या है? सत्य सत्य है, उसे मुँहफट होकर झुठलाते रहने से कोई लाभ नहीं है। हम पीछे के छद्मस्थ आचार्यों को व्यर्थ ही शास्त्र-मोह में आकर सर्वज्ञ न बनाएँ! वर्तमान आगमों में अनेक असंगत, जैन परम्परा के विरुद्ध तथा अश्लील उल्लेख हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि इनका अक्षर-अक्षर भगवान् का कहा हुआ नहीं है। भगवान् का तो वही कहा हुआ है, जो आध्यात्मिक जीवन के विकास का उपदेश है, जिसमें वीतराग साधना का स्वर है। इसके अतिरिक्त इधर-उधर के भौतिक वर्णन, भोगविलास के उल्लेख वीतराग का कहा हुआ बताना, वीतराग का अपमान है। श्रद्धेय समर्थमलजी महाराज ने चन्द्र-प्रज्ञप्ति के मांस-प्रकरण को जोध पुर-चर्चा के समय प्रक्षिप्त माना था। 32 सूत्रों में केवल वही एक पाठ प्रक्षिप्त है या और भी हैं, स्पष्ट हाँ या ना में बहुश्रुतजी को सार्वजनिक रूप से उद्घोषित कर देना चाहिए। पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने भी जिनवाणी पत्रिका में लिखा है कि "अर्ध मागधी या संस्कृत भाषा में होने मात्र से कोई शास्त्र आप्त वाणी या वीतराग वचन नहीं हो सकते, सत् शास्त्र ही मानव की इस निष्ठा का पात्र बन सकता है-मई, 1969। शास्त्र की कई एक बातें समझ के परे हों और यह भी संभव है कि कुछ प्रत्यक्ष के विरुद्ध भी प्रतीत हों। .... मानव जाति ने विश्व के विविध परिवर्तन देखे हैं। शास्त्रीय पुस्तकों में भी परिवर्तन आया हो, यह संभव है-जुलाई, 19691 अक्षर-अक्षर का एकान्त आग्रह हमें भी नहीं है, न किसी अन्य आगम प्रेमियों को। हम मानते हैं कि शास्त्रों में कुछ प्रक्षेप भी हुआ है और परिवर्तन भी-सितम्बर, 1969।" उनके अपने ही शब्दों में शास्त्र और परम्परा के समर्थक पूज्य श्री भी इस प्रकार अमुक अंशों में मेरे ही विचार-पथ के राही हैं। मैं इस पथ का अकेला यात्री कहा हूँ। 38 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री डोशीजी के महान् अवलम्बन श्री प्रभुदास भाई भी लिखते हैं-"जैन शास्त्रों मां गमे तेटलुं मिश्रण थयुं होय, उथल-पुथल थई होय...." सम्यग्दर्शन 5/8/19691 स्वयं श्री डोशीजी भी जो अपने को शास्त्रों का बहुत बड़ा श्रद्धालु उद्घोषित करते रहते हैं, शास्त्रों के अक्षर-अक्षर को भगवद्वाणी नहीं मानते हैं। सम्यग् दर्शन, 5 सितम्बर 1969 में वे लिखते हैं-"दो भिन्न सूत्रों (उनका अभिप्राय चन्द्र-प्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति से है) के प्रारंभिक अंश के अतिरिक्त सारा विषय एक समान ही क्यों है? ... इन दोनों प्रज्ञप्तियों आदि का धार्मिक विषय से क्या सम्बन्ध है?.. जब ब्यावर में आगम संशोधन का कार्य प्रारंभ हुआ था तब स्व. श्री धीरज भाई के पत्र के उत्तर में मैंने कुछ सूत्रों का प्रकाशन नहीं करने की बात भी बताई थी।' जिनमें से प्रज्ञप्तियाँ भी थी।" सम्यग् दर्शन, 20 सितम्बर 1969 में तो डोशीजी इस सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट हो गए हैं-"यह ठीक है कि हमारे आगम पूर्ण रूप से वैसे नहीं रहे जैसे कि गणधर महाराज द्वारा रचे गये थे। प्रथम बार लिपिबद्ध हुए तब भी उनमें संकोच हुआ और पाठ भेद भी उत्पन्न हुए। वाचनाओं में भी भेद रहा। इसके बाद विभिन्न लिपिकारों से दृष्टि दोष, असावधानी आदि से भी कहीं कुछ परिवर्तन हुए होंगे और किसी-किसी ने जानबुझ कर भी परिवर्तन किये होंगे। हो सकता है कहीं किसी आचार्य कृत-ग्रन्थ का पाठ भी किसी ने प्रकरणानुकूल मान कर जोड़ दिया हो....।" बात-बात पर शास्त्र श्रद्धा पुकार करने वाले डोशीजी की शास्त्रों के संबंध में क्या धारणा है, यह ऊपर उन्हीं की पक्तियों में स्पष्ट है। आश्चर्य है, ये लोग किस मुँह से मेरी आलोचना करते है? जो मैं कहता हूँ, वह ही ये लोग भी तो कहते हैं। फिर निन्दा और दुष्प्रचार किस बात का? क्या इसका यह अर्थ तो नहीं कि हम कहते हैं वह तो ठीक है। और यदि वही बात कोई दूसरा कहता है तो वह गलत है। मालूम होता है-मन में सफाई नहीं है। मन में पड़ी दुराग्रह की गाँठे अभी खुली नहीं हैं। वर्तमान की बात नहीं है। शास्त्रों में प्रक्षेप एवं परिवर्तन के सम्बन्ध में प्राचीन काल के नवांगीवृत्तिकार आचार्य अभयदेव ने भी प्रश्न व्याकरण आदि क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 39 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रों की अपनी टीकाओं में इस तथ्य को स्वीकार किया है। खरतर गच्छीय श्री जिनलाभ सूरि जैसे बहुश्रुतों ने भी आगमों में प्रक्षेप एवं परिवर्तन का उल्लेख किया है। यथाप्रसंग विद्वत्परिषद में कभी चर्चा हुई तो वे सब प्रमाण उपस्थित किए जा सकेंगे। मूल आगमों से भी परिवर्तन के तथ्य को प्रमाणित किया जायेगा। प्रश्न-आपके चन्द्रयात्रा से सम्बन्धित चनौती के लेख के उत्तर में कछ सन्त और श्रावक यह कहते हैं कि अमेरिकन वैज्ञानिक चन्द्रमा पर नहीं, किसी पहाड़ पर उतर गए हैं और भ्रान्ति से उसे ही चन्द्रमा समझ रहे है? कुछ लोग कहते है कि यह दिखने वाला चन्द्रमा जिस पर अमेरिकन उतरे हैं, वह शास्त्र का चन्द्रमा नहीं है। शास्त्र का चन्द्रमा इससे भिन्न कोई और है? उत्तर-यह सब कुछ सुनता तो मैं भी हूँ। सुना है, श्रद्धेय बहुश्रुत पं. समर्थमलजी महाराज भी ऐसा कहते हैं। वे उस पहाड़ का नाम भी बताते हैं-वैताढ्य पर्वत। और दूसरे सन्त तथा श्रावक भी ऐसी ही कुछ बातें करते हैं। मैं हैरान हूँ, यह सब किस विशिष्ट ज्ञान के आधार पर कहा जा रहा है। वैताढ्य पर्वत तो हमारी पौराणिक गाथा के अनुसार चाँदी का है, वहाँ पत्थर और काली भूरी मिट्टी कहाँ से आ गई, जो चन्द्रयात्री लाए हैं। हमारी पौराणिक मान्यता के अनुसार वैताढ्य पर्वत पर विद्याधर रहते है, पर वहाँ तो कोई विद्याधर नहीं मिला। वनस्पति का एक अंकुर तक तो मिला नहीं, आदमी कहाँ से मिलते। वहाँ तो हवा भी नहीं है। चन्द्रयात्रियों ने अपने यान के द्वारा चन्द्रमा के ऊपर नीचे और नीचे से फिर ऊपर-इस प्रकार कई चक्कर लगाए हैं और जब पृष्ठ तल की ओर जाते थे तो यहाँ धरती पर के नियन्त्रण केन्द्र से टेलीविजन का सम्बन्ध कट जाता था। प्रश्न है-यदि वह चन्द्र नहीं, कोई पहाड़ ही है, जैसा कि सन्त कह रहे हैं, तो फिर पहाड़ के ऊपर नीचे चक्कर कैसे लगाये जा सकते हैं? पर्वत का मूल तो पृथ्वी के बहत गहरे गर्भ में होता है, उसके नीचे से होकर कैसे निकला जा सकता है? और यह बात तो बड़ी ही विचित्र है कि वैज्ञानिक उतरे तो है पहाड़ पर और भ्रान्ति से उसे चन्द्रमा समझ रहे हैं। जो वैज्ञानिक रेडियो एवं टेलीविजन जैसे अद्भुत चमत्कारों के आविष्कर्ता हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक क्रान्ति के द्वारा विश्व को गत कुछ वर्षों में ही वह प्रगति दी है, जो इतिहास के हजारों वर्षों में कहीं देखी सुनी नहीं गई, उन्हें एवं उनके वंशधरों को इतना भी पता नहीं चला कि यह .40 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहाड़ है या चाँद है। और हम हैं कि जिनके पास वस्तुस्थिति को जाँचने-परखने के कोई प्रत्यक्ष साधन नहीं हैं, केवल कुछ संकलित पोथियों के बल पर ही उन्हें भ्रान्त, झूठा एवं भ्रम फैलाने वाले कहते जा रहे हैं। लाखों-करोड़ों लोगों ने अपनी आँखों से जो सत्य देखा है, उसे सहसा असत्य उद्घोषित करने वालों के साहस का भी क्या कहना? कमाल हासिल है उनको अपने विश्वास पर ! बुद्धि का कुछ भी तो स्पर्श नहीं होने देते अपने विश्वास को। अब रही यह बात कि शास्त्र का चन्द्रमा और है तथा दिखलाई देने वाला चन्द्रमा जिस पर अमेरिकन उतरे हैं, वह कोई और है! खेद है, शास्त्र श्रद्धा के नाम पर कितनी मिथ्या कल्पनाएँ की जाती हैं और भद्र जनता को अन्ध विश्वास मूलक भ्रान्त धारणाओं में उलझाया जाता है। यह जिन शासन की सेवा नहीं, कुसेवा है। एक दिन सत्य जनता के समक्ष आयेगा ही और तब उसके मन में विद्रोह का कितना बड़ा तूफान उठेगा कि इन धर्मगुरुओं ने हमें कितना भरमाया है और तब वह मुखर होकर कहेगी कि ये सब लोग झूठे हैं। इनके शास्त्र झूठे हैं और झूठे हैं इनके भगवान् भी। मैं पूछता हूँ, जिसके कारण तिथियाँ होती हैं, पर्व होते हैं, कृष्ण और शुक्ल पक्ष होते हैं, जिसे ग्रहण लगते हैं, नक्षत्रों का योग होता है, वह चन्द्रमा तो यह ही है, जो आकाश में आँखों से दिखाई देता है। इसी पर वैज्ञानिक उतरे हैं, इसी के चित्र लिए गये हैं, इसी के टेलीविजन पर दृश्य देखे गए हैं और वहाँ से यहाँ बातें भी की है। यदि आपके शास्त्र का चन्द्रमा यह नहीं तो वह फिर कौन-सा है? ओर कहाँ है वह? और वह अदृश्य स्थिति में रहकर क्या काम करता है? क्या काम आता है हम लोगों के? अच्छा हो, कुछ कहने से पहले हम थोड़ा बहुत सोच-विचार लिया करें। समझ लिया करें। यों ही बेतुकी न हाँका करें, ताकि हमारा धर्म और दर्शन शिक्षित जनता की नजरों में उपहास का पात्र न हो। हमारी बौद्धिक चेतना न मालूम कैसी है, जो प्रत्यक्षसिद्ध सत्य को भी स्वीकृत करने से प्रायः कतराती रहती है। हमारे कुछ ग्रन्थों में गंगा का वर्णन है, उसके प्रवाह की चौड़ाई लाखों मील की बताई गई है। वह प्रत्यक्ष में भारत की इस गंगा में मिलती नहीं है। वास्तविकता क्या है, एक समस्या खड़ी हो गई और हम उक्त समस्या के समाधान के लिए कहते हैं कि वह हमारी शास्त्रवाली गंगा और है, यह नहीं। वह शास्त्रवाली गंगा कहाँ है, यह अभी कुछ पता नहीं। होगी क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 41 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं अदृश्य लोक में! जब यह गंगा नहीं तो इसमें मिलने वाली यमुना भी यह नहीं, कोई और है, सरयु भी कोई और है। इसी प्रकार गंडक भी और है, कोशी भी कोई और ही है। सब कुछ और हैं, यह नहीं हैं। फिर तो हस्तिनापुर, वाराणसी और पाटलिपुत्र आदि भी, जो इतिहास में गंगा तट पर बताये गए हैं, कोई और ही हैं, कहीं और ही अदृश्य जगह में हैं। यह और का सिलसिला इस गति से बढ़ रहा है कि यदि संभले नहीं तो यह हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा । हमारा मजाक उड़वायेगा, हमारे धर्म को बुद्ध बनायेगा । मैं नहीं समझता, इस प्रकार व्यर्थ की मनगढंत बातें करने से धर्म का गौरव कैसे बढ़ता है, धर्मशास्त्रों की प्रतिष्ठा एवं श्रद्धा कैसे सुरक्षित रहती है ? प्रश्न - आप चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि कुछ सूत्रों को पापश्रुत कैसे कहते हैं? पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज तो इससे इन्कार करते हैं। उत्तर - चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ज्योतिष ग्रन्थों को मै । कहाँ पापश्रुत कहता हूँ? आपके हमारे वे आगम कहते हैं। समवायांग सूत्र कहता है, उत्तराध्ययन सूत्र कहता है ओर प्रतिदिन सुबह-शाम पढ़ा जाने वाला आवश्यक सूत्र कहता है । ' मैंने तो उसे ही दुहराया है, जो हमारे ये प्राचीन आगमकार कह गये हैं। यदि इस सम्बन्ध में कुछ उपालम्भ देने जैसा है, तो वह मुझे क्यों दें, उन आगमकारों को दें, जिन्होंने ज्योतिष आदि से संबंधित श्रुत को पापश्रुत कहा है। मेरा तो इस सम्बन्ध में यही कहना है कि जब आगम के उल्लेखानुसार ज्योतिष ग्रन्थ पापश्रुत हैं तो फिर चन्द्रप्रज्ञप्ति भी एक ज्योतिष ग्रन्थ है, उसमें आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता का उल्लेख अंश मात्र भी नहीं है, अतः वह भी पापश्रुत की ही कोटि में आता है। सत्य - सत्य है, उसकी दृष्टि में अपना पराया कुछ नहीं होता। यह नहीं हो सकता कि दूसरों के ज्योतिष ग्रन्थ पापश्रुत हैं और हमारे धर्मश्रुत हैं। आगमों के ही उल्लेखों से जब यह निश्चित है कि ज्योतिषग्रन्थ पाप श्रुत हैं, तब वीतराग भगवान् उनके उपदेष्टा कैसे हो सकते हैं? वीतराग तो वीतराग भाव का ही उपदेष्टा हो सकता है, जो जैसा है, वह वैसा ही तो उपदेश देगा। अपनेसे विपरीत कैसे उपदेश दे सकता है? एक ओर वीतराग भगवान् ज्योतिष को पापश्रुत बताएँ और दूसरी ओर उसी का विस्तार से वर्णन करें, उस 42 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर लम्बे-चौड़े शास्त्रों की रचना करें, यह दुमुहापन वीतराग स्थिति में कैसे घटित हो सकता है? आगमों में यत्र-तत्र ज्योतिष का, निमित्त शास्त्र आदि का प्रयोग करना, भिक्षु के लिए निषिद्ध है। क्यों निषिद्ध है? इसीलिए तो निषिद्ध है न कि वह पापश्रुत है उसका आध्यात्मिक साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि वह धर्मश्रुत होता तो उसका उपदेश एवं प्रयोग क्यों निषिद्ध होता? मेरे कुछ मित्र भद्रबाहु स्वामी को निमित्त ज्ञानी बताकर ज्योतिषनिमित्त को धर्मश्रुत की कोटि में ले आना चाहते हैं। भद्रबाहु का निमित्त ज्ञान उनके दीक्षा पूर्व गृहस्थ जीवन का था। यह नहीं कि दीक्षित होने के बाद उन्होंने निमित्त शास्त्रों का अध्ययन एवं अभ्यास किया। उसका प्रयोग किया। भला, भद्रबाहु जैसे महान् तत्त्वद्रष्टा आचार्य साधु धर्म के विपरीत आचरण कैसे कर सकते थे? अपने युग के महान् दार्शनिक एवं साधक को निमित्तिया बताना, यह उनका अपमान नहीं तो क्या है? पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने ज्योतिष ग्रन्थों को पापश्रुत मानने से साफ इन्कार नहीं किया है। वे कर भी नहीं सकते हैं। मूल आगम में जब उन्हें पापश्रुत कहा है, तो उसे कैसे झुठला सकते हैं। हाँ, उन्होंने उडाऊ उत्तर अवश्य दिया है, जिसकी उनसे मुझे कभी अपेक्षा नहीं थी। पूज्य श्री कहते हैं कि सम्यग् दृष्टि के लिए पापश्रुत भी सम्यक् श्रुत हो जाता है। और इसके लिए उन्होंने नन्दीसूत्र का एक पाठांश उद्धृत किया है। नन्दीसूत्र में सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत की चर्चा है, पापश्रुत और धर्मश्रुत की नहीं। वहाँ पर यह नहीं कहा है कि पापश्रुत धर्मश्रुत हो जाता है। यदि पापश्रुत धर्मश्रुत हो जाता है तो फिर आगमों में साधु के लिए उसका निषेध क्यों किया जाता? मूल प्रश्न दृष्टि का नहीं, वस्तु का है। ज्योतिष आदि के ग्रन्थ मूल में क्या है, यह देखना है। यदि वे मूल में पापश्रुत नहीं है, तो फिर आगमकार उनकी गणना पापश्रुतों में क्यों करते है? आचारांग आदि सम्यक् श्रुत भी मिथ्या दृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत हो जाते है। क्या इस पर से यह अर्थ लगाया जाए कि आचारांग आदि सम्यक्श्रुत नहीं हैं? उन्हें सम्यक्श्रुत कहना गलत है। यदि ऐसा है तो फिर उनकी गणना सम्यक्श्रुत में क्यों की गई है? क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 43 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न-आगमों में बहुत से वर्णन केवल ज्ञेय रूप में ही किए गए हैं। उन्हें मात्र जानना है, न वे हेय हैं और न वे उपादेय हैं। ज्योतिष का वर्णन भी भगवान् ने केवल जानकारी के लिए ज्ञेय रूप में ही किया है। पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज का भी ऐसा ही कुछ अभिप्राय है। उत्तर-पूज्य श्री ही क्यों, अन्य भी बहुत से मुनिवरों का ऐसा ही कहना है। एक वरिष्ठ मुनिराज ने कहा है कि शास्त्र समुद्र हैं। समुद्र में रत्न हैं, मोती हैं, तो साथ ही कंकड़-पत्थर, मगरमच्छ भी हैं, खारा जल भी है। हमें मोती और रत्न चुन लेने चाहिए। कंकड़-पत्थर, मगरमच्छ आदि तो बस जान लें, उन्हें न उपादेय समझे और न हेय। मुझे आश्चर्य होता है इस उथले चिन्तन पर। एक ओर तो शास्त्रों को धर्मावतार भगवान् की वाणी मानना और दूसरी ओर उसे कंकड़-पत्थर तथा मगरमच्छ आदि जैसे अनुपयोगी वर्णनों का केवल ज्ञेय रूप से अस्तित्व भी स्वीकार करना, अपने में कितना परस्पर विरुद्ध एवं असंगत कथन है। पूज्य श्री ने ज्योतिष के साथ स्वर तथा स्वप्न आदि के वर्णनों को भी ज्ञेय रूप में शास्त्रीय करार दिया है। बहुत कुछ विचारने के बाद भी मुझे यह ध्यान में नहीं आता कि जिन वर्णनों से हमें कुछ लेना-देना नहीं है, जिनका प्रयोग साधकों के लिए निषिद्ध है, उनका केवल ज्ञेय रूप में अध्ययन करना, व्यर्थ ही अपना अमूल्य समय उनके चिन्तन-मनन, में व्यय करना, कहाँ की बुद्धिमत्ता है। साधक के लिए एक आत्मा ही 'स्व' है, शेष 'पर' है। पर की जानकारी 'स्व' को समझने के लिए है, भेद विज्ञान के लिए है, विरति के लिए है। देहादि जड़ तत्त्व से भिन्न चैतन्य तत्त्व को समझने के लिए ही देहादि पर को जड़ रूप में जानना है। केवल ज्ञेय के लिए सिर्फ जानकारी के लिए, जिनका उपादेय या हेय से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे पहाड़ों का, नदी-नालों का, सागरों का, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रों का, स्वप्नों का, स्वरों का ज्ञान करना साधक के लिए क्या अर्थ रखता है। आखिर ज्ञानार्जन का कोई उद्देश्य तो होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति पराये घर की बहू, बेटी आदि की जानकारी लेने के लिए घर-घर पूछता फिरे और कोई उससे पूछे कि आपका इससे क्या मतलब है और उत्तर में यदि वह यह कहे कि कुछ मतलब नहीं, यों ही जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ तो आप उसे क्या कहेंगे? यही न कहेंगे कि आप पागल हो गए हैं क्या? यों ही बिना मतलब की जानकारी से आपको क्या करना है? संस्कृत साहित्य में ऐसे 44 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकारों का कटु परिहास किया गया है कि एक व्यक्ति गधे के रोम (बाल) गिन रहा था। पूछा गधे के बाल क्यों गिन रहे हैं? उत्तर मिला, कुछ नहीं, जानकारी के लिए गिन रहा हूँ कि इस गधे के शरीर पर कितने बाल हैं? इस प्रकार की जानकारी को आचार्य ने मूर्खता बताया है-'गर्दभे कति रोमाणीत्येषा मूर्ख विचारणा। यदि ज्ञेय रूप में सिर्फ ज्ञान के लिए ही ज्योतिष ज्ञान की उपादेयता है साधक के लिए, तब तो एक ज्योतिष ही क्यों, रसायन, चिकित्सा, वाणिज्य, युद्ध, कामशास्त्र आदि का भगवान् को उपदेश देना चाहिए था, उन विषयों की जानकारी के लिए भी ग्रन्थों की रचना होनी चाहिए थी। सम्यग् दृष्टि के लिए वे भी सम्यक् श्रुत होते, विष न होकर अमृत होते। उक्त तर्क का सीधा और स्पष्ट भाव यह है कि अध्यात्म साधक के लिए विधि निषेध से शून्य कोरे ज्ञेय का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए निशीथ सूत्र में इस प्रकार के रूप-दर्शनों का निषेध है। प्रश्न-विज्ञान अधूरा है। वैज्ञानिकों ने पहले कुछ स्थापना की और बाद में कुछ और ही। उनकी बहुत सी बातें बदल गई हैं। उनकी चन्द्रलोक की बात भी आगे चलकर गलत सिद्ध हो सकती है? अभी तो उन्होंने खोज शुरू ही की है। उत्तर-विज्ञान किस बात में अधूरा है? प्रकृति अनन्त है, उसका पूर्ण रूप से निरीक्षण अभी नहीं हो पाया है, क्या इसीलिए विज्ञान अधूरा है, अपूर्ण है? तब तो शास्त्र भी अधूरे हैं, अपूर्ण हैं। भगवान् का अनन्त ज्ञान, जड़-चेतन का अनन्त रहस्य समग्र रूप से उन्हीं में कहाँ वर्णित हो पाया है। प्राचीन आचार्यों ने कहा है, केवल ज्ञान के अनन्त सागर का एक बिन्दु मात्र जितना भी ज्ञान शास्त्रबद्ध नहीं हुआ है। यदि इस तरह शास्त्र अपूर्ण हैं तो विज्ञान भी अपूर्ण है। फिर केवल विज्ञान पर ही अपूर्णता का दोष क्यों? पूर्ण तो एकमात्र केवलज्ञान है और कोई ज्ञान नहीं। वैज्ञानिकों ने पहले कुछ माना और बाद में कुछ और ही माना, इसलिए विज्ञान अधूरा या असत्य है, यह कहना ठीक नहीं है। वैज्ञानिक पहले केवल धारणा बनाते हैं, अन्दाज लगाते हैं और कहते हैं कि ऐसी सम्भावना है। बाद में प्रयोग करते हैं, जाँच करते हैं, फिर प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर परीक्षित वस्तु के क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 45 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध में अपना वास्तविक निर्णय घोषित करते हैं। परीक्षा करने पर कभी पूर्व निर्धारित सम्भावनाएँ ठीक प्रमाणित होती हैं, कभी ठीक नहीं भी होती हैं। वैज्ञानिकों की सच्चाई यह है कि सम्भावना सत्य सिद्ध न होने पर वे तत्काल घोषित करते हैं कि हमारी सम्भावना सही नहीं प्रमाणित हुई। हम लोगों की कैसी मन:स्थिति है कि वैज्ञानिक जिसे सम्भावना कहते हैं, हम उसे पूर्ण सत्य मान लेते हैं और जब वे कहते हैं कि सम्भावना ठीक नहीं निकली, प्रत्यक्ष से प्रमाणित नहीं हुई, तब हम कहते हैं कि देखो, वैज्ञानिकों की बात झूठी हो गई। रेडियो, टेलीविजन आदि के अनेक आविष्कार आज जब प्रत्यक्ष में सिद्ध हो गये है। तो क्या वे भविष्य में कभी गलत भी होंगे? अग्नि प्रत्यक्ष में उष्ण प्रमाणित हो गई है तो क्या यह भी कभी असत्य सिद्ध होगी? अधूरा तर्क देकर जनता को भ्रम में डालना, किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता। और यह चन्द्रमा की सतह पर उतरने और वहाँ से पत्थर मिट्टी लाने की बात कौन सी अपूर्ण विज्ञान की बात है? वैज्ञानिकों ने तीव्र गति के राकेट यानों का आविष्कार किया, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होने की प्रक्रिया खोज निकाली, चन्द्र तल पर हवा न रहने के कारण वहाँ प्राणवायु आदि ले जाने की व्यवस्था की और अपनी योजना के अनुसार चन्द्रमा पर पहुँच गए। वहाँ जो कुछ आँखों से देखा, उसका विवरण जनता के सामने रखा। चन्द्र की ओर जाना, चन्द्र की सतह पर उतरना और फिर सकुशल लौट आना, मुक्त रूप से लाखों-करोड़ों जनता को दिखा दिया। अब इसमें क्या अधूरापन है? भविष्य की खोज से आज का सत्य कल कैसे असत्य होने वाला है? क्या आप यह आशा रखते हैं कि कुछ दिनों बाद वैज्ञानिक यह कहेंगे कि अरे भूल हो गई। हम चन्द्रमा पर नहीं, एक पहाड़ पर उतर गये थे और उस पहाड़ को ही हमने भूल से चन्द्रमा समझ लिया था। यदि ऐसी कुछ आशा रखते हैं तो आप भ्रम में है। आज 20 नवम्बर है, इध र मैं लेख लिख रहा हूँ और उधर अपोलो 12 के चन्द्रयात्री चाँद की सतह पर घूम रहे हैं। लाखों लोग धरती पर से उन्हें देख रहें और अभी-अभी एक भाई सूचना दे रहे हैं कि अपोलो 12 के चन्द्रयात्री अपने साथ चाँद सतह से पत्थर तो ला ही रहे हैं, साथ ही वे उस मानव रहित सर्वेयर-3 अन्तरिक्ष यान के कुछ हिस्से भी लेकर आ रहे हैं, जो ढाई वर्ष पूर्व अमरीका द्वारा चाँद पर उतारा गया था। खोज चालू रहने का यह अर्थ तो नहीं कि कल वह चन्द्रमा नहीं रहेगा? कुछ और हो जायेगा। वैसे तो खोज अभी पृथ्वी की भी कहाँ पूर्ण हुई है। परन्तु 46 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पृथ्वी है और इसकी अमुक स्थिति है, प्रकृति है, यह तो सिद्ध हो चुका हैं यही बात चन्द्रमा के सम्बन्ध में हैं वह आपका विमान नहीं, पत्थर की चट्टानों, पहाड़ों और गर्मों का एक वीरान प्रदेश हैं वहाँ आपके देवी-देवता कोई नहीं मिले, न विमान के उठाने वाले हाथी, घोड़े, बैल और सिंह ही कहीं दिखाई दिये। कल्पना के आधार पर लिखे गए इन ग्रन्थों को आप क्यों भगवदवाणी मान रहे हैं? और इसके लिए व्यर्थ ही क्यों परेशान हो रहे हैं? क्यों तर्कहीन तर्क देकर बचाव की लड़ाई लड़ रहे हैं। आपको क्या लेना-देना है इन चन्द्र प्रज्ञप्तियों से? आपके भगवान् की सर्वज्ञता को कहाँ चोट लगती है, यदि आपने इन शास्त्रों को भगवद्वाणी नहीं माना तो? चोट तो इन्हें भगवद्वाणी मानने से लगती है, न मानने से नहीं। प्रश्न-आपने अपने लेखों में जोधपुर चर्चा का कितनी ही बार उल्लेख किया है और कहा है कि जोधपुर में सर्व सम्मति से अंग बाह्य शास्त्र, जिनमें प्रज्ञप्ति आदि भी हैं, परतः प्रमाण माने गये हैं, अर्थात् साक्षात् भगवद् वाणी उन्हें नहीं माना है। इस सम्बन्ध में जोधपुर चर्चा में भाग लेने वाले दूसरे मुनिराज मौन क्यों हैं? उत्तर-यही तो आश्चर्य है ! सत्य का तकाजा तो यह है कि जो व्यक्ति जिस निर्णय से सम्बन्धित हों, यदि उस सम्बन्ध में कभी कोई चर्चा चले तो उन्हें वास्तविक स्थिति की स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए। मुझे आशा थी कि चर्चा से सम्बन्धित मुनि ऐसा करेंगे। परन्तु मेरी ओर से बार-बार जोधपुर चर्चा का उल्लेख होने पर भी सम्बन्धित मुनिराज मौन हैं-न इकरार और न इन्कार। इन्कार तो कैसे कर सकते हैं, सत्य महाव्रती सन्त जो हैं। फिर इकरार क्यों नहीं? यह मैं क्या बताऊँ? उन्हीं से पूछिए न। हाँ, 'मौनं स्वीकृतिलक्षणम्' के सिद्धान्त सूत्र से यदि आप वास्तविकता का दर्शन कर सकें तो बात दूसरी है। प्रश्न-पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज बार-बार उक्त विवादास्पद चन्द्रयात्रा संबंधी वैज्ञानिक उपलब्धियों की जैन शास्त्रों के साथ समन्वय एवं संगति बिठाने की बात करते हैं। इस सम्बन्ध में आपका क्या अभिमत है? उत्तर-पूज्य श्री संगति बिठा सकते हैं तो बिठाएँ। मुझे इससे क्या आपत्ति है? वेसे मैं भी कुछ शब्दों की आध्यात्मिक अर्थ में संगति बिठा सकता हूँ। परन्तु ये जो भूगोल-खगोल संबंधी लम्बे चौड़े वर्णन हैं, ग्रन्थ हैं, भला इनके अक्षर-अक्षर क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 47 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ कैसे संगति बिठाई जा सकती है? मैं तो नहीं बिठा सकता। यदि कोई बिठाये तो आभारी रहूँगा हृदय से। रामायण तथा महाभारत आदि की प्रचलित लोक कथाओं की, जैनाचार्यों ने अर्थ बदलकर जो कतिपय संगतियाँ बिठाई हैं, उनमें कुछ तो बिलकुल अर्थहीन हैं, काल्पनिक है। ऐसी संगतियाँ किस काम की, जो अधूरी हों, अविश्वसनीय हों, फलतः शिक्षित जगत् में उपहासास्पद हों। संगति वस्तुतः संगति होनी चाहिए। यह न हो कि संगतियों के व्यामोह में हम कहीं और अधिक असंगतियों के चक्रव्यूह में जा फँसे। 'विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्'-लगे थे गणेश जी बनाने और बना बैठे बन्दर ! । प्रश्न-आपके क्रान्तिकारी लेखों से जनता में शास्त्रों के प्रति अनास्था एवं अश्रद्धा फैलने की आशंका है, ऐसी धारणा है मुनिराजों की। उत्तर-शास्त्र श्रद्धा के सम्बन्ध में किसकी क्या धारणा है, इसका उत्तर तो मेरे पास नहीं है। पर, मैं अपनी बात कह सकता हूँ, मेरी श्रद्धा अटल है, अचल है। किन्तु वह है शास्त्रों के प्रति, ग्रन्थों के प्रति नहीं। वीतराग वाणी ही शास्त्र है। और वीतराग वाणी वह है, जो सुप्त आत्माओं को जागृत करती है, विषयासक्ति को तोड़ती है, आत्मा को अन्तर्मुख बनाती है। इसके अतिरिक्त जिनमें धर्म चर्चा एवं आत्म चर्चा का लेशमात्र भी अंश नहीं है, वे भूगोल-खगोल से सम्बन्धित ग्रन्थ हैं और वे छद्मस्थ आचार्यों द्वारा रचित हैं। आज विज्ञान उन्हें असत्य सिद्ध कर चुका है, कर रहा है। अतः मेरा प्रयत्न भगवान् महावीर तथा उनकी आध्यात्म वाणी के प्रति जन श्रद्धा को सुरक्षित करना है। इन ग्रन्थों के प्रति अश्रद्धा तो उसी दिन से फैल रही है, जिस दिन से विज्ञान ने अपना चमत्कार दिखाना शुरू किया है। आज भगवान् की वाणी के प्रति जनमानस में जो भ्रान्त धारणाएँ फैल रही हैं, मैं उन्हें साफ कर रहा हूँ। शास्त्र और ग्रन्थ की भेदरेखा खींचकर भगवान् और उनके द्वारा प्ररूपित धर्मशास्त्र के प्रति श्रद्धा को सुरक्षित कर रहा हूँ। प्रश्न-आपको क्रान्ति लानी है तो समाज और धर्म संप्रदाय में अनेक कुरीतियाँ प्रचलित हैं, उन पर आक्रमण कीजिए, जिससे समाज का हित हो। पूज्य श्री का आपके लिए यह संकेत है। 48 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-पूज्य श्री का मेरे लिए यह संकेत ही नहीं, सन्देश है और इसका हृदय से अभिनन्दन करता हूँ। समाज सुधार के लिए मेरे प्रयत्न बहुत पहले से चालू हैं। बाल विवाह, वृद्ध विवाह, दहेज, मृत्यु भोज, पर्दा, जातिवाद, आहार शुद्धि, सामाजिक एवं धार्मिक आडम्बर आदि सामाजिक कुप्रथाओं के लिए मैंने निर्भयता के साथ अपने विचार प्रकट किए हैं, ओर अमुक अंश में उनके अच्छे परिणाम भी आए हैं। कुछ प्रसंगों पर तो मैंने सुधार के लिए स्वयं भी सक्रिय भाग लिया है, उसके लिए आलोचना भी कम नहीं हुई है। किन्तु शान्त भाव से सब कुछ सहते हुए मैंने अपने प्रयत्न चालू रखे हैं। भविष्य में इसके लिए और भी अधिक ध्यान देने के भाव हैं। कुप्रथाएँ अधिकतर अन्ध-विश्वास के सहारे खड़ी होती हैं और मेरा यह वर्तमान प्रयत्न अन्धविश्वास को ध्वस्त करने के लिए है। इस प्रकार यह चालू चर्चा भी समाज सुधार का ही एक अंग है। प्रश्न-आपकी यह चर्चा अब और कब तक चालू रहेगी? विपक्ष की ओर से तो अभी तक विरोध में कोई खास तर्क एवं प्रमाण उपस्थित नहीं किए जा सके हैं। उत्तर-मैं चाहता था, चर्चा का स्तर ऊँचा उठेगा और उसमें विद्वान मुनिराज तथा गृहस्थ खुलकर भाग लेंगे। पर, ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह ठीक है कि मेरे विचारों ने जिज्ञासु जन मानस को प्रभावित किया है, कुछ तटस्थ विचारों को भी आकृष्ट किया है। इस सम्बन्ध में प्रशंसापत्रों का प्रवाह अभी तक चला आ रहा हैं परन्तु इसके साथ विरोध भी कुछ कम नहीं हुआ है। विरोध में इध र-उधर मौखिक चर्चाएँ खूब हुई है, जो केवल निन्दा का ही एक निम्नस्तरीय प्रकार है। कुछ महानुभावों ने लिखा भी है, परन्तु वह प्रमाण पुरःसर नहीं था। अधिकतर उसमें धर्म और श्रद्धा के खतरे का नारा ही मुखर था, जो आज हर संप्रदाय में बहुत सस्ता हो गया है। बार-बार एक जैसी ही बातें दुहराई जाती हैं, फलतः उत्तर में मुझे भी बार-बार पुरानी बातों को ही दुहराना पड़ता है, चर्चा की गति आगे नहीं बढ़ पाती है। अतः मैं पाठकों का अमूल्य समय व्यर्थ में नष्ट नहीं करना चाहता। इस कारण प्रस्तुत चर्चा को विराम दे रहा हूँ। भविष्य में यदि किसी विशिष्ट विद्वान् की ओर से कोई खास विचार या लेख इस सम्बन्ध में उपस्थित हुआ तो उत्तर दूँगा, अन्यथा नहीं। क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 49 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वत्परिषद् के आयोजन का भी एक विचार चल रहा है। यदि प्रमुख विचारक मुनिराजों एवं विद्वानों की विद्वत्परिषद् आयोजित हो सकी तो मैं उसमें यथावसर सहर्ष भाग लेने का भाव रखता हूँ। बन्द कमरे की परिषदें और चर्चाएँ, मुझे बेकार लगती हैं। जो भी चर्चा हो, सार्वजनिक हो एवं लिखित हो, और वह सर्वसाधारण की जानकारी के लिए प्रकाशित की जाए! कम से कम जिज्ञासु जनता इस पर से इतना तो समझ सके कि विचार-चर्चा का स्तर कैसा है, और वह किस दिशा में है? संदर्भ :1. यदि वह भगवद् वाणी है तो उसमें ऐसा क्या है, जो प्रकाशन के योग्य नहीं है और इस प्रकार छिपा कर उन्हें कब तक रखा जा सकता है। स्व. पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी और श्री सागरानंद सूरि आदि ने उन्हें बहुत पहले ही प्रकाशित कर दिया हैं 2. समवायांग 29 वाँ समवाय। 3. उत्तध्ययन31/19 4. आवश्यक सूत्र, श्रमण सूत्र। 5. उत्तराध्ययन 8/13 उत्तराध्ययन 15/7 6. पापोपादानानि पापश्रुतानि... यो भिक्षुयतते तत्परिहारद्वारतः। --उत्त. बृहद्वृत्ति 31/16 7. शास्त्रों को समुद्र की उपमा केवल उनके तत्त्व चिन्तन की गहराई को लक्ष्य में __ रखकर दी गई है। उसका यह अर्थ नहीं कि समुद्र के मगरमच्छ आदि का सब कूड़ा-करकट शास्त्रों में समाहित कर लें। 8. ज्ञानस्य फलं विरतिः। -आचार्य उमा स्वाति 9. सम्बन्धाभिध्येय शक्यानुष्ठानेष्ट प्रयोजनवन्तिं हि शास्त्राणि प्रेक्षावद्भिराद्रियन्ते नेतराणि। -प्रमेयकमल मार्तण्ड, पृ. 2 केवलस्य सुखोपेक्षे, शेषस्यादानहानधीः। -न्यायावतार, 28 10. प्रमेयकमल मार्तण्ड टिप्पण पृ. 2 50 "प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 भगवान् महावीर ने गंगा महानदी क्यों पार की ? भारतवर्ष की नदियों में गंगा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती एवं बंगला आदि प्रान्तीय भाषाओं का भारतीय साहित्य, गंगा की गौरवगाथाओं से भरा पड़ा है। गंगा देवनदी है। प्राचीन भारतीयों का विश्वास था कि गंगा देवताओं की नदी है। जैनाचार्य भी गंगा को देवताधिष्ठित नदी मानते हैं। गंगा का विशाल आकार एवं विराट् रूप ही उसकी देवत्व-प्रसिद्धि में मुख्य हेतु है। प्राचीन काल का भारतीय चिन्तन ही कुछ ऐसा था कि हर विराट् और विशालकाय प्राकृतिक पदार्थ उनकी दृष्टि में देव अथवा देवाधिष्ठित हो जाता था । हिमालय आदि उत्तुंगपर्वतों तथा महासागरों के देवत्व का रहस्य इसी भावना में निहित है। गंगा महार्णव और समुद्ररूपिणी अतएव गंगा एक सामान्य नदी नहीं, अपितु महानदी है। जैनागम गंगा को 'महार्णव " भी कहते हैं। 'महार्णव' का अर्थ है - महासागर। स्थानांग सूत्र के टीकाकार आचार्य अभयदेव ने इसलिए मूल के 'महार्णव' शब्द को उपमावाचक मानकर अर्थ किया है कि विशाल जलराशि के कारण वह महार्णव अर्थात् महासमुद्र जैसी है-“महार्णव इव या बहूदकत्वात्। " जैनाचार्यों ने ही नहीं, वैदिक परम्परा के पुराणों में भी गंगा को 'समुद्ररूपिणी" कहा है। गंगा की सहायक नदियाँ वैदिक परम्परा गंगा में नौ सौ (900) नदियों का मिलना मानती है । " जैन परम्परा की दृष्टि से चौदह हजार ( 14000 ) नदियाँ गंगा में मिलती हैं। ' उक्त नदियों में यमुना, सरयु, कोशी और मही आदि वे नदियाँ भी हैं, जो स्वयं भी आगम साहित्य में महार्णव और महानदी के नाम से सुप्रसिद्ध है। 8 51 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन युग में गंगा के प्रवाह की विस्तीर्णता हजारों नदियों का प्रवाह गंगा में मिलता है, अतः गंगा का प्रवाह चौड़ाई में बहुत विशाल हो गया है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार समुद्र में प्रवेश करते समय गंगा का पाट साढ़े बासठ योजन का चौड़ा है।" और गंगा की गहराई एक कोस - अधिक एक योजन की है।" यह ठीक है कि उक्त कथन के अतिवादी शब्दों पर कुछ प्रश्न एवं तर्क खड़े हो सकते हैं, किन्तु इस पर से इतना तो निश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि गंगा का प्रवाह प्राचीनकाल में बहुत विशाल रहा है। इसीलिए उसे महार्णव और समुद्ररूपिणी जैसे नामों से अभिहित किया गया है। प्राचीन काल में न तो गंगा में से ही कोई नहरें निकाली गई थीं और न यमुना, सरयु, गंडकी, शोण आदि उसकी सहायक नदियों से ही । अतः गंगा के विशाल प्रवाह की तत्कालीन विस्तीर्णता की सहज ही कल्पना की जा सकती है। समवायांग सूत्र के अनुसार तो गंगा हिमालय ( चुल्लहिमवंत ) से प्रवाहित होते ही कुछ अधिक 24 कोस का विस्तार ले चुकी थी ।" उक्त अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों पर से और कुछ नहीं तो इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि भगवान् महावीर के युग में गंगा का प्रवाह एक विशाल एवं विराट् प्रवाह माना जाता था। इसीलिए आचार्य शीलांक ने भगवान् महावीर द्वारा नौका से गंगा पार करने का वर्णन करते हुए, गंगा को दुस्तर, अगाध और अणोरपार कहा है। 12 गंगा आज के युग में भगवान् महावीर के युग से अढाई हजार वर्ष जितना लम्बा काल बीतने पर आज भी गंगा की विराटता सुप्रसिद्ध हैं आज गंगा में से विशाल नहरें निकल चुकी हैं। यमुना, गोमती, सरयु और शोण आदि गंगा की सहायक नदियों में से भी अनेकानेक विराट् नहरें सिंचाई के काम में आ रही हैं। फिर भी गंगा अपनी विराटता को बनाए हुए है। वर्तमानकालीन वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा 1,557 मील के लम्बे मार्ग के बाद बंगसागर में गिरती है। यमुना, गोमती, सरयू, रामगंगा, गंडकी, कोशी और ब्रह्मपुत्र आदि अनेक सुप्रसिद्ध संयुक्त नदियों को साथ लेकर, वर्षाकालीन बाढ़ में, गंगा महानदी 18,00,000 घनफुट पानी का प्रस्राव प्रतिसेकेण्ड करती है। 3 अभी कुछ मास पूर्व पटना में, प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने, गंगा के पुल का शिलान्यास किया है। हिन्दुस्तान आदि दैनिक पत्रों में उन दिनों लिखा गया . 52 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था कि यह पुल भारत में ही नहीं, एशिया भर में सबसे बड़ा पुल होगा। गंगा के सम्बन्ध में इस प्रकार विस्तार से लिखने का मेरा तात्पर्य यही है कि गंगा के विराट रूप से अपरिचित दूरस्थ व्यक्ति भी कल्पना कर सके कि गंगा क्या है? वह कितनी लम्बी-चौड़ी है? उसकी जलराशि कितनी विशाल है? नहरों के निकल जाने पर आज की क्षीण स्थिति में भी जब गंगा का यह विराट रूप है तो उस प्राचीन युग में तो उसकी विराटता वास्तव में ही बहुत महान् रही होगी। अतएव प्राचीन आचार्यों ने जो उसे महार्णव और समुद्ररूपिणी कहा है, वह ठीक ही कहा है। गंगा की चर्चा मूल प्रश्न की ओर अब चर्चा मूल प्रश्न पर आती है। भगवान् महावीर ने दीक्षित होने के बाद गंगा को कितनी ही बार उत्तर से दक्षिण में और दक्षिण से उत्तर में पार किया है। कितनी ही बार वे वैशाली आदि उत्तरी बिहार प्रदेश से गंगा पार कर राजगृह आदि दक्षिणी बिहार में आए और कितनी ही बार राजगृह आदि दक्षिणी बिहार प्रदेश से गंगा पार कर वैशाली आदि उत्तरी बिहार प्रदेश में गए। आज के बिहार प्रांत से कितनी ही बार आज के उत्तरप्रदेश में ओर उत्तरप्रदेश से बिहार प्रांत में पधारे। भगवान् महावीर ने वैशाली और वाणिज्य ग्राम में 12 वर्षावास (चौमास) किए हैं। और चौदह वर्षावास राजगृह और नालन्दा में किए हैं। बिहार प्रान्त का मानचित्र लेकर कोई भी देख सकता है-वैशाली - वाणिज्य ग्राम (मुजफ्फरपुर) और राजगृह-नालन्दा (पटना) के बीच गंगा बह रही है, जो बिहार को उत्तर और दक्षिण दो भागों में विभक्त करती है। गंगा को पार किए बिना भगवान् वैशाली से राजगृह और राजगृह से वैशाली नहीं आ जा सकते थे। भगवान् महावीर का साधनाकाल और गंगा दीक्षा लेने के बाद छद्मस्थ-साधनाकाल में भी भगवान् महावीर ने गंगा को कितनी बार पार किया है। गंगा पार करते समय की वह घटना तो जैनग्रन्थों में सुप्रसिद्ध ही है, जबकि भगवान् सुरभिपुर और राजगृह के बीच नौका द्वारा गंगा को पार कर रहे थे, और एक भीषण तूफान में नौका उलझ गई थी, डूबने लगी थी। आचार्य भद्रबाहु स्वामी की सर्वाधिक प्राचीन रचना आवश्यक नियुक्ति में तथा जिनदास महत्तर की आवश्यक चूर्णि में आज भी यह उल्लेख उपलब्ध है।।6 यह घटना दीक्षा से दूसरे वर्ष की है। भगवान् महावीर ने गंगा नदी क्यों पार की? 53 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी बिहार की गंडकी नदी भी एक विशाल जल-बहुल नदी है, जो नेपाल से निकलती है, और वैशाली के पास से होकर पटना के सम्मुख गंगा में मिलती है। वैशाली से वाराणसी लौटते हुए लेखक को भी गंडक नदी नौका से पार करनी पड़ी थी। भगवान् महावीर के जीवन की एक घटना है कि भगवान् ने वैशाली के पास नौका द्वारा जब गंडकी को पार किया तो नाविक ने उतराई का पैसा न मिलने पर भगवान् को वहीं रोक लिया था। उसी समय शंखराज का भानजा 'चित्रकुमार' राजदूत बनकर कहीं जा रहा था, उसने भगवान् को छुड़ाया।” भगवान् महावीर ने 10 वाँ वर्षावास श्रावस्ती में किया था। वर्षावास के अनन्तर सानुलट्ठिय, दृढभूमि, नालुका, सुभोगं, सुच्छेत्ता, मलय, हत्थिसीस, तोसलि, मोसलि, सिद्धार्थपुर आदि नगरों में विहार करते हुए पुनः श्रावस्ती आए और श्रावस्ती से कौशाम्बी, वाराणसी,राजगृह, मिथिला आदि नगरों में भ्रमण कर ग्यारहवाँ वर्षावास वैशाली में किया। पाठक देख सकते हैं-उक्त विहार यात्रा में भगवान् ने बिहार और उत्तरप्रदेश की कितनी ही छोटी-बड़ी नदियाँ पार की हैं और गंगा महानदी को तो इस एक ही वर्ष में दो बार पार किया। एक बार तो श्रावस्ती से कौशाम्बी और वाराणसी आते हुए, क्योंकि ये दोनों नगर श्रावस्ती से गंगा के इस पार दक्षिणी उत्तरप्रदेश में हैं। दूसरी बार कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह से वर्षावास के लिए वैशाली को जाते हुए, चूँकि वैशाली गंगा के उस पार उत्तरी बिहार में है। केवल ज्ञान के बाद गंगा-संतरण और भी कितने ही वर्णन हैं इस प्रकार गंगा आदि नदियों को पार करने के। परन्तु हम साधनाकाल की इन घटनाओं का अधिक विस्तार नहीं देना चाहते। भगवान् महावीर की, केवल ज्ञान के बाद की विहार चर्या, अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह एकमात्र धर्म प्रचार की दृष्टि से ही की गई थी, अतः उसका प्रस्तुत लेख के उद्देश्य के साथ मौलिक सम्बन्ध है। विस्तार से तो नहीं, संक्षेप में ही, केवलज्ञानोत्तर तीर्थंकर दशा में गंगा और अन्य नदियों को पार करने के प्रसंग इस प्रकार हैं:1. भगवान महावीर का 13 वाँ वर्षावास राजगह में था। वर्षावास के बाद गंगा-नदी पार कर विदेह देश में गए और 14 वाँ चौमास वैशाली में किया। 2. वैशाली का चौमास पूर्ण होने के बाद गंगा पार कर वत्सदेश की राजधानी कौशाम्बी में आए। वहाँ से फिर गंगा पार कर श्रावस्ती आदि होते हुए 15 54 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाँ चौमास, विदेह देश के वाणिज्य ग्राम में किया। इस वर्ष में दो बार गगा महानदी पार की। 3. वाणिज्य ग्राम के बाद 16 वाँ चौमास राजगृह में किया। यहाँ भी वाणिज्य ग्राम और राजगृह के बीच में गंगा पार की। 4. राजगृह से चम्पा गए। ओर वहाँ से सिन्धु देश की लम्बी विहार यात्रा की। पुनः लौटकर विदेह के वाणिज्य ग्राम में 17 वाँ चौमास किया। इस विहार यात्रा में भी अनेक छोटी-मोटी नदियाँ और गंगा महानदी पार की। 5. वाणिज्य ग्राम का चौमास पूर्ण कर आलभिका, वाराणसी, आदि क्षेत्रों में विहार करते हुए 18 वाँ चौमास राजगृह में किया। यहाँ भी भगवान् ने विदेह से मगध आदि प्रदेशों में विचरण करने के लिए बीच में गंगा नदी पार की। 6. भगवान् का 19 वाँ चौमास भी राजगृह में था। वहाँ से आलभिका आदि नगरों में विहार करने के बाद वत्सदेश की राजधानी कौशाम्बी में शतानिक नरेश की रानी मृगावती को दीक्षा दी और वहाँ से लौटकर विदेह देश की वैशाली नगरी में 20 वाँ चौमास किया। यहाँ भी दक्षिणी बिहार से उत्तरी बिहार में जाते हुए गंगा पार की। 7. वैशाली का चौमास समाप्त कर गंगा पार की और उत्तर प्रदेश के अहिच्छत्र तथा काम्पिल्यपुर आदि नगरों में विहार किया, और फिर दुबारा गंगा पार कर वाणिज्य ग्राम में 21 वाँ चौमास किया। 8. वाणिज्य ग्राम के बाद गंगा पार कर मगध में विहार यात्रा और राजगृह में 22 वाँ चौमास। 9. राजगृह सै कयंगला, श्रावस्ती आदि में विहार और 23 वाँ वर्षावास वाणिज्य ग्राम में। यहाँ भी दक्षिणी बिहार से उत्तरी बिहार में आते हुए गंगा पार की। 10. वाणिज्य के बाद गंगा पार कर अगला 24 वाँ चौमास राजगृह में किया। 11. राजगृह से चम्पा आदि में विचरण कर 25 वाँ चौमास मिथिला में किया। यहाँ भी दक्षिणी बिहार से उत्तरी बिहार में मिथिला जाते हुए गंगा पार की। 12. मिथिला से गंगा पार कर अंगदेश की राजधानी चम्पा में आए और चम्पा से लौटते समय गंगा पार कर 26 वाँ चौमास पुनः मिथिला में किया। इस वर्ष भी दो बार गंगा पार की गई। भगवान् महावीर ने गंगा नदी क्यों पार की? 55 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. मिथिला से वैशाली, श्रावस्ती आदि में विचरण कर 27 वाँ चौमास पुनः मिथिला में किया यहाँ गंडकी आदि कितनी ही नदियाँ पार की। 14. मिथिला से पांचाल, श्रावस्ती, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर आदि में विहार कर 28 वाँ चौमास वाणिज्य ग्राम में किया। इस वर्ष के लम्बे विहारों में अनेक छोटी-मोटी नदियों के साथ गंगा नदी भी दो बार पार की। 15. वाणिज्य ग्राम से गंगा पार कर अगला 29 वाँ चौमास राजगृह में किया। 16.राजगृह का वर्षावास समाप्त कर चम्पा, पृष्ठ चम्पा आदि नगरों में विहार करते हुए भगवान् ने सुदूर दशार्णभद्र देश में जाकर दशार्णभद्र राजा को दीक्षा दी। वहाँ से लौटते समय गंगा पार कर विदेह देश के वाणिज्य ग्राम में 30 वाँ चौमास किया। 17. वाणिज्य ग्राम से कोशल- पांचाल, साकेत, काम्पिल्य, श्रावस्ती आदि नगरों में विचरण कर 31 वाँ चौमास वैशाली में किया। इस वर्ष के विहार में भी आते-जाते अनेक नदियों के साथ गंगा महानदी भी दो बार पार की। 18.भगवान् का 32 वाँ चौमास भी वैशाली में ही था। वहाँ से गंगा पार कर मगध प्रदेश में आए, और 33 वाँ चौमास राजगृह में किया । 19. भगवान् का 34 वाँ चौमास नालन्दा में था । वहाँ से गंगा पार कर विदेह देश में गए, और 35 वाँ चौमास वैशाली में किया। 20. वैशाली से कौशल, पांचाल, सूरसेन आदि सुदूर देशों में भ्रमण किया, और साकेत (अयोध्या), काम्पिल्य, सौर्यपुर, मथुरा आदि में विचरण कर 36 वाँ चौमास मिथिला में किया । यहाँ भी यमुना, गोमती, सरयू आदि अनेक नदियों को पार करने के साथ आते-जाते दो बार गंगा नदी भी पार की। 21. मिथिला से गंगा पार कर मगध में आए, 37 वाँ चातुर्मास राजगृह में किया। 22. भगवान् का 38 वाँ चौमास नालन्दा में था । वहाँ से गंगा पार कर विदेह देश में पधारे और 39 वाँ चौमास मिथिला में किया। 23.भगवान् का 40 वाँ चौमास मिथिला में था । वहाँ से गंगा पार कर मगध में आए। अग्निभूति और वायुभूति गणधर वैभारगिरि पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त हुए, और भगवान् का यह 41 वाँ चौमास राजगृह में हुआ। " द्वितीय पुष्प 56 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद भगवान् महावीर के विहार का वह संक्षिप्त दिग्दर्शन है। गंगा और अन्य नदियों को पार करने की यह एक साध परण-सी स्थूल रूपरेखा है। इसमें शोण, इरावती, कोशी, मही और फल्गु आदि कुछ प्रमुख नदियों के नाम नही आए हैं, भगवान् महावीर के प्राचीन जीवन चरित्रों में भी इनका उल्लेख नहीं है। परन्तु विहार यात्रा का जो भौगोलिक पथ बताया गया है, इसमें उक्त नदियों का बीच में आना निश्चित है। जैसे कि कौशाम्बी से राजगृह जाते हुए शोण आदि कितनी ही जलधाराएँ बीच में पड़ती हैं। अतः इधर-उधर आते-जाते भगवान् महावीर ने उक्त नदियों के साथ अनेक अनुक्त नदियों को भी पार किया था। भगवान् महावीर ने गंगा महानदी क्यों पार की? उपर्युक्त उल्लेखों पर से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि भगवान् महावीर ने गंगा जैसी महानदियों को किसलिए पार किया? बार-बार गंगा पार करना, कभी-कभी तो एक वर्ष में दो-दो बार पार करना, क्या अर्थ रखता है? जैन शास्त्रानुसार एक छोटे से छोटे जल कण में भी असंख्य जलकाय के जीव होते हैं। उस प्राचीन काल में गंगा का कितना विराट रूप था, उस पर से अनुमान लगाया जा सकता है कि कितनी विशाल जलराशि पार करनी होती थी, और जलकाय के जीवों की कितनी अधिक हिंसा हो जाती थी? जल में वनस्पति आदि अन्य स्थावर जीव तथा द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव भी होते हैं। अतः गंगा की विशाल जलधारा को पार करते समय असंख्य कीटाणु, मेढक और मछली आदि त्रस जीवन की हिंसा का होना भी निश्चित है। जल में निगोद भी रहता है, और निगोद के एक सूक्ष्म से सूक्ष्म कण में भी अनंत जीव होते हैं, यह किसी भी जैनागमों के अध्येता से छुपा हुआ नहीं है। प्रश्न है, जब जल-सन्तरण में इस प्रकार एक बहुत बड़ी हिसा होती है, तब भगवान् ने बार-बार गंगा जैसी महानदियों को क्यों पार किया? ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी थी उन्हें, जो इतनी बड़ी हिंसा का दायित्व लेकर भी उन्होंने गंगा को पार करना, आवश्यक माना। गंगा और गंगा जैसी महार्णवाकार अन्य नदियों का सन्तरण बिना नौका के नहीं हो सकता था। उस युग में गंगा आदि विराट नदियों पर पुल नहीं बने थे। जैन, बौद्ध तथा वैदिक परम्परा के किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में गंगा आदि विराट नदियों पर पुल होने का कोई उल्लेख भगवान् महावीर ने गंगा नदी क्यों पार की? 57 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। अस्तु, नौका ही एक मात्र उक्त नदियों के जल सन्तरण का साधन था। इसीलिए भगवान् ने नौका पर बैठकर ही गंगा पार की। और जब भगवान् ने गंगा पार की तो उनके साथ जो हजारों साधु-साध्वी और थे, उन्होंने भी नौकाओं द्वारा ही गंगा पार की। भगवान् की नौका के साथ सैकड़ों ही अन्य नावों का विशाल काफिला गंगा के विशाल प्रवाह पर तैरता चला होगा, उसका जरा मन की आँखों के समक्ष कल्पनाचित्र प्रस्तुत कीजिए। आपके मन में सहज ही यह प्रश्न खडा होगा कि आखिर इन सब विशाल जल-यात्राओं का क्या उद्देश्य था? नौका भी जल-पथ का एक वाहन ही है। वाहन (सवारी) साधु के लिए निषिद्ध है। फिर बार-बार नौकाओं का क्यों प्रयोग किया गया? भगवान् के समक्ष जलसन्तरण से सम्बन्धित क्या वे ही समस्याएँ थीं, जो सामान्य साधुओं के लिए प्राचीन आगम एवं आगमेतर साहित्य में उल्लिखित हैं। क्या भगवान् को दुष्ट राजा या चोरों का भय था? क्या सिंह आदि खूखार जंगली जानवरों का खतरा था? क्या भीषण दुष्काल पड़ रहे थे कि भिक्षा नहीं मिल रही थी? क्या अनार्य-म्लेंछों का हमला हो रहा था? क्या किसी भंयकर रोग के लिए दुर्लभ औषधि की तलाश थी? आखिर क्या था ऐसा कि भगवान् को गंगा जैसी महानदियों को पार करना पड़ा? आज के एक मुनिराज ने तो संयम-साध ना के आवेश में यहाँ तक लिखा है कि मेरा वश नहीं चलता है, यदि मेरा वश चले तो मैं अचित्त पृथ्वी पर भी पैर न रखें, मैं अचित्त वायु का श्वास-प्रश्वास के रूप में प्रयोग भी न करूँ, मैं अचित्त जल भी न पीऊँ, और अचित्त आहार का भी सदा के लिए परित्याग कर दूं" एक ओर आज के मुनिजी अचित्त वस्तुओं के प्रयोग के लिए भी अपनी विवशता बतला रहे हैं और दूसरी ओर भगवान् महावीर हैं कि गंगा जैसी महानदियों के विशाल प्रवाहों को अपने विराट साधुसंघ के साथ नौकाओं द्वारा तैर रहे हैं। विशाल जल प्रवाहों को तैरने के लिए भगवान् को क्या विवशता थी, क्या मजबूरी और क्या लाचारी थी, जो आज के एक साधारण मुनि के वैचारिक स्तर से भी नीचे उतर गए। भगवान् बार-बार जलबहुल प्रदेशों में घूमते रहे, गंगा जैसी समुद्राकार महानदियों को नौकाओं द्वारा पार करते रहे, परन्तु जलकाय, निगोद और त्रस जीवों की इतनी बड़ी हिंसा की ओर ध्यान नहीं दिया। क्या भगवान् के पास आज के मुनियों जितनी भी विवेकदृष्टि नहीं थी? अहिंसा, संयम का इतना भी कुछ लक्ष्य नहीं था? कितनी विचित्र 58 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विडम्बना है आज के चिंतन की ? आज के कुछ अहंग्रस्त साधु भगवान् से भी बढ़कर संयमी घोषित कर रहे हैं अपने आपको ! अहिंसा का बहुत बड़ा खटका है न अंतर्मन में! खटका सच्चा है या झूठा - यह तो वे ही कह सकते हैं। हाँ खटके का नारा अवश्य बुलंद है। बात और कुछ नहीं है। कोई भी ऐसा आपवादिक कारण नहीं है, जो भगवान् के समक्ष रहा हो। भगवान् महावीर और उनके संघ द्वारा नदी पार करने का एकमात्र हेतु धर्म एवं नीति का प्रचार है । भगवान् महावीर के युग में सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति बड़ी विचित्र थी । जातीय श्रेष्ठता का अहंकार जनमानस पर बुरी तरह छाया हुआ था और इस कारण तत्कालीन शूद्रजन पशुओं से भी बुरी स्थिति में जीवन गुजार रहे थे। नारी जाति पर भी भयंकर अत्याचार हो रहे थे। यज्ञों में मूक पशुओं को होमा जा रहा था । यहाँ तक कि देवी - देवताओं की प्रसन्नता के लिए मनुष्यों तक की बलि दी जा रही थी । धर्म भी अर्थहीन क्रियाकाण्डों का केवल शवमात्र रह गया था। भगवान् को जन-जीवन में से यह सब अज्ञान-अंध कार दूर करना था। इसके लिए उन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक उभयमुखी क्रांति का सिंहनाद किया, फलतः वे अपने विशाल साधुसंघ को साथ लिए तूफानी नदियों को भी पार कर सुदूर प्रदेशों में विहार करते रहे। इसके लिए उन्हें बार-बार अनेक विराट् जलधाराओं तथा वन- प्रदेशों को पार करना पड़ा। इसी पथ पर आगे आनेवाले वे साहसी आचार्य और मुनि भी आए, जो अपने युग में आन्ध्र, तमिल, महाराष्ट्र, कोंकण, मालव आदि आर्येतर और विदेश कहे जानेवाले देशों में भी धर्म प्रचार हेतु पहुँचे और वहाँ की तत्कालीन असंस्कृत जनता को धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से संस्कारी बनाया। जैन मुनियों द्वारा सुदूर जावा, सुमात्रा आदि देशों में विहार यात्रा करने के भी कुछ ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, जो अभी विचाराधीन हैं, जिनकी चर्चा यथावकाश फिर कभी हो सकेगी। ध्वनिवर्धक जैसे नगण्य प्रश्न पर और सुदूर प्रदेशों की दीर्घ विहार यात्राओं पर हिंसा और परिग्रह तक के दोषों की अर्थहीन चर्चा करनेवाले महानुभाव प्रस्तुत लेख पर यदि ठण्डे दिमाग से कुछ विचार करेंगे तो अवश्य ही भगवान् महावीर की उपरिचर्चित विहारचर्या का मर्म समझ सकेंगे, हिंसा - अहिंसा की स्थूल धारणाओं से ऊपर उठकर उनके वास्तविक तथ्य को हृदयंगम कर सकेंगे। भगवान् महावीर ने गंगा नदी क्यों पार की? 59 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ : 1. (क) अमरकोष 1 / 10 / 31 (ख) स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, गंगा सहस्रनाम, 29 वाँ अध्याय । 2. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 4 वक्षस्कार 3. (क) स्थानांग सूत्र 5/3 ख) समवायांग 24 वाँ समवाय । (ग) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 4 वक्षस्कार । (घ) निशीथसूत्र 12/42 (ङ) बृहत्कल्पसूत्र 4/32 4. (क) स्थानांग सूत्र 5/2/1 (ख) निशीथ 12 / 42 (ग) बृहत्कल्प 4/32 बहूदकतया महार्णवकल्पा 5. समुद्ररूपिणी स्वर्ग्या 6. आसां नवशतैर्युक्ता गंगा पूर्वसमुद्रगा - हारीत, 1/7 7. चोद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं समाणा - जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति 4 वक्षस्कार 8. स्थानांग सूत्र 5/2/1 9. मुहे वा सठि जोयणाइं अद्धजोयणं च विक्खभेणं । - जंबू. 4 वक्ष. 10. सकोसं जोयणं उव्वेहेणं । - जंबू. 4 वक्ष. 11. गंगा - सिंधुओं णं महाणईओ पवाहे साइरेगेणं चउबीसं कोसे वित्थारेणं पण्णत्ता । - सम. 24 वाँ समवाय बृहत्कल्प भाष्य टीका, 5616 स्कन्दपुराण, काशी खण्ड, 29 अध्याय 12. मंदाइणी जयगुरू, संपत्तो पउर दुत्तरागाहजलं । तओ तं अणोरपारं पलोयमाणस्स भवणगुरुणो भयवं पितेणे य समयं समारूढो णावाए । 60 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा 13. हिन्दी विश्वकोष, नागरी प्रचारिणी सभा 14. वेसालिं नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासे उवागए। - कल्पसूत्र, 1 अधि. 6 क्षण 15. रायगिहं नगरं नालंदं च बहाहिरियं नीसाए चउद्दस्स अंतरावासे वासावासं उवागए । - कल्पसूत्र, 1 अधि. 6 क्षण **** द्वितीय पुष्प - चउप्पत्र महापुरिसचरियं (महावीर चरियं) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. (क) वीरवरस्स भगवओ, नावारूढस्स कासि उवसग्गं -आव. नियुक्ति 471 (ख) तओ सामी सुरभिपुरं गओ, तत्थ गंगा उत्तरीयव्वा.... भयवं नावाए ठिओ -आव. चूर्णि, 471 17. तत्यंतरा गंडइया नदी, तं सामी णावाए उत्तिण्णो। ते णाविया सामि भणति -देहि मोल्लं .... ___ -आवश्यक चूर्णि 494 18. भगवान् महावीर का साधनाकाल साढे बारह वर्ष का है। अत: 12 चौमास छद्मस्थ __काल के हैं। 19. विहार यात्रा में भगवान् महावीर द्वारा, गंगा पार करने का यह वर्णन कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति आवश्यक चूर्णि, महावीर चरियं-गुणचंद्राचार्य, महावीर चरियं-नेमिचंद्राचार्य, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र-आचार्य हेमचन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर - श्री कल्याण विजय गणी, तीर्थंकर वर्द्धमान आदि अनेक प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों पर आधारित है। 20. तस-उदग-वणे घट्टण। बृहत्कल्प भाष्य 5632 जलोद्भवानां त्रसानां उदकस्य वा सेवालादिरूपस्य वनस्पतेर्वा संघट्टनम्। -बृहत्कल्प भाष्य टीका 5632 21. उदए चिक्खिल परित्तऽणंतकाइग तसे -बृहत्कल्प भाष्य 5641 उदए चिक्खिल परित्तणंत काइग तसे - बृहत्कल्प भाष्य 5641 उदके चिक्खलादिक पृथिवीकायः, वनस्पतयश्च परीत्तकायिका अनंतकायिका वा त्रसाश्च द्वीन्द्रियादयो भवेयुः -बृह. भा. टीका आउक्काए णियमा वणस्सती अत्थि, -निशीथ चूर्णि, 4240 22. स्थानांग 5/2/1, बृहत्कल्प भाष्य, 5663, निशीथ भाष्य, 4 54 भगवान् महावीर ने गंगा नदी क्यों पार की? 61 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर द्वारा महानदियों का संतरण आज के वैचारिक जगत् में एक प्रश्न चक्कर काट रहा है कि जैन-भिक्षु अर्थात् साधु-साध्वी को गहरे और विशाल जलराशि वाले जलाधारों अर्थात् नदियों को नौका से पार करना चाहिए या नहीं? और, कुछ कम जलवाली जंघा-संतारिम नदियों को भी पैरों से चलकर पार करना चाहिए या नहीं? इसी प्रश्न चक्र-व्यूह में से कुछ और प्रश्न भी समाधान के लिए उठ खड़े हुए हैं-कार - वायुयान आदि वाहन और यानों का भी यथाप्रसंग प्रयोग होना चाहिए या नहीं? यदि नदी संतरण का प्रश्न ठीक तरह समाधान पर पहुँच जाता है, तो अन्य प्रश्न स्वतः समाधान पा लेते हैं। क्योंकि नौका-यान आदि द्वारा नदियों को पार करना सर्वाधि क हिंसा का प्रसंग है। जलकाय के असंख्य जीवों और तद्गत निगोद के अनन्तानन्त जीवों की हिंसा तो है ही, साथ ही त्रस काय के द्वींद्रीय से लेकर पञ्चेंद्रिय जीवों की हिंसा तक का भी अवश्यंभावी सम्बन्ध है, नदियों की जल-यात्रा से। श्रमण भगवान् महावीर से पहले के कोई आगम उपलब्ध नहीं हैं। जो कुछ भी वाङमय उपलब्ध है, वह भगवान् महावीर और तदुत्तरकालीन आचार्यों से सम्बन्धि त है। प्रश्न है, भगवान् महावीर ने दीक्षित होने के बाद के जीवन-काल में नौका का प्रयोग किया या नहीं? कुछ सज्जन कहते हैं-मूल आगम में उल्लेख नहीं है। अतः उत्तरकालीन आचार्यों द्वारा इस प्रकार के वर्णित प्रसंग हमें मान्य नहीं हैं। यदि आगमों को ही मान्य रखा जाए एकान्त रूप से, तो सैकड़ों क्रिया-काण्ड ऐसे हैं, जो आगम में कहीं नहीं हैं, किन्तु हम उन्हें मान्यता देते हैं। मुखवस्त्रिका किसलिए है और उसका क्या परिणाम है? यह किस आगम से प्रमाणित किया जाता है। जैन परम्परा का एक दिगम्बर वर्ग मुखवस्त्रिका रखता ही नहीं है। जो श्वेताम्बर वर्ग मुखवस्त्रिका रखता है, उसमें भी कुछ हाथ में रखते हैं और कुछ हमेशा मुख पर बाँधे रखते हैं। किसी की मुखवस्त्रिका लम्बी होती है, तो किसी की चौड़ी। संप्रदाय और प्रांतीय भेद से उसके भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार हैं। ये किसी आगम के आधार से प्रमाणित नहीं हैं। 62 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वार अचित्त हुआ पानी पुनः किस ऋतु में कितने काल बाद सचित्त होता है? यह किस आगम के आधार से माना जाता है। अनेक सचित्त वस्तुएँ अमुक प्रकार के प्रक्षेपण से कितने काल बाद अचित्त होती है ? यह किस आगम के आधार से है? शास्त्र ग्रन्थ आदि लिखना एवं रखना तथा पात्रों की परिगणना किस मूल आगम से मानी जाती है? वर्तमान के बीस विहरमानों के नाम और उनसे प्रतिक्रमण आदि की आज्ञा लेना, किस आगम के आधार पर है? जबकि वे स्वयं पंच-प्रतिक्रमण (दिन-रात आदि) के पक्षधर नहीं हैं? साथ ही विभिन्न संप्रदायों के प्रतिक्रमण आदि की विभिन्न विधियाँ किस आगम के आधार पर हैं? कहाँ तक गिनाया जाए, सैकड़ो ही बातें आगम में न होने पर भी मानी जाती हैं, जो उत्तरकालीन आचार्यों द्वारा स्थापित की गई हैं। अतः भगवान् महावीर के नदी संतरण का प्रश्न भी एकान्त रूप से आगम के 'हां और ना' के साथ जोड़ना गलत है। यह सर्वथा सिद्ध है कि आगम भी विखण्डित हैं। वे अपने रूप में आज पूरे-के-पूरे अखण्ड नहीं रहे हैं। एक आगम में दूसरे आगम का स्वरूप जो वर्णित है, वह उस आगम में उपलब्ध नहीं है। प्रश्न व्याकरण सूत्र ही इसका प्रमाण है। । अन्तकृतदशांग आदि सूत्रों के अनेक अध्याय, जो स्थानांग सूत्र में उल्लिखित हैं, वे आज इन आगमों में उपलब्ध नहीं हैं। साधारण शास्त्रज्ञ भी यह सब देख सकता है। आचारांग सूत्र का सातवाँ अध्याय पूर्णतया गायब है। उसका एक अक्षर भी उपलब्ध नहीं है आज। अतः भगवान् महावीर के नदी संतरण एवं अन्य प्रश्नों के समाधान के लिए वर्तमान खण्डित आगमों पर ही सब बातें छोड़ देना बौद्धिकता से परे की बात है। इस प्रकार तर्कहीन एकान्त अन्ध आग्रह से हम उत्तरकालीन अनेक महामान्य आचार्यों को झुठलाने का प्रयत्न कर रहे हैं, यह कितना दुराग्रह भरा दम्भ - जाल है। अस्तु, हम यहाँ भगवान् महावीर के जीवन के लिए एकान्त रूप से आगमों को ही सर्वाधार नहीं मान सकते हैं। मूल आगमों में तो महावीर का जीवन-वृत्त एक बूंद जितना भी नहीं है। अधिकतर वर्णन, जिन्हें हम मानते हैं और प्रचारित करते हैं, वह सब उत्तरकालीन आचार्यों के मान्य ग्रन्थों में ही है। और, वे आचार्य ऐसे हैं, जो भगवान् के पश्चात् होते हुए भी काफी अधिक निकट हैं। भगवान् महावीर से 170 वर्ष बाद के आचार्य पंचम श्रुतकेवली, चतुर्दश भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 63 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वविद् भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक निर्यक्ति में भगवान् महावीर के जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है। दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्परओं में महामान्य आचार्य की महामान्य कृति आवश्यक नियुक्ति के आधार पर हम यहाँ भगवान् महावीर की नौका-यात्रा के कुछ प्रसंग उपस्थित कर रहे हैं, जो पीछे के सभी आचार्यों को मान्य रहे हैं। "सुरभिपुरं सिद्धदत्तो गंगा कोसिय विऊ य खेमलतो। नागसुदाढे सीहे कंबलसबलाणं जिणमहिमा ।।469।। वीरवरस्स भगवतो नावारूढस्स कासि उवसग्ग। मिच्छादिट्ठिपरद्धं कंबलसबला समुत्तारे ।।47111-1 -आवश्यक नियुक्ति सुरभिपुरं भगवान् गतः तत्र गंगा नाम नदी, सिद्धयात्रो नाम नाविकः, तत्र नावमारोहति जने, कौशिको महाशकुनापरपर्यायो वासितवान्, खेमलकश्च शकुनविद्वान् अवादीत् -यदि परमेतस्य भगवतो प्रभावेन जीवांम् इति, अत्रान्तरे नागो नागकुमारः, सुदंष्ट्रनामा सिंहजीवो, भगवत उपसर्ग कर्तुमारब्धवानिति शेषः, कंबलशबलौ च नागकुमारौ तं वारयित्वा जिनस्य भगवतो महिमां चक्रतुः।" । -आचार्य मलयगिरि टीका उपर्युक्त गाथा में स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने साधनाकाल में सुरभिपुर के पास गंगा नदी नौका से पार की थी। उस समय एक नागकुमार असुर ने भगवान् पर उपसर्ग किया और नाव डुबाने लगा, तो भगवान के भक्त कंबल और शबल नाम देवों ने उपसर्ग का निवारण किया। इस प्रकार जिनेश्वर देव की महिमा की। "वेसलिए पडिमं संखो गणराय पिउवयंसो य। गण्डइआसरि तिन्नोचित्तो नावाए भगिणिसुओ।।494।। -आवश्यक नियुक्ति वैशाल्यां नगर्यां शंखो नाम गणराजः पितृवयस्यः- सिद्धार्थराजमित्रं भगवतः पूजामकरोत् तथा भगवन्तं वणिग्ग्राम प्रति प्रचलितमन्तरा गण्डकिकां सरितं - नदी तीर्णं नाविकैधृतं चित्रः शंखराजस्य भगिनीसुतो नावा समागच्छन् मोचितवान् पूजितवांश्च। ___ -मलयगिरि टीका 64 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त गाथा एवं टीका का भावार्थ है कि भगवान् महावीर वैशाली से वाणिज्य ग्राम जा रहे थे। बीच में गण्डकी नदी को पार करने के लिए नौका पर बैठे। नाविकों ने नौका पार करने का मूल्य न मिलने पर भगवान् को पकड़ लिया। किन्तु, चित्र नाम राजकुमार ने भगवान् को छुड़ाया। ___ उपर्युक्त प्राचीन कथन पर से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने गंगा और गण्डकी जैसी महानदियाँ नौकाओं से पार की है। बिहार प्रान्त में आज भी गण्डकी और गंगा जल प्रवाह के विस्तार की दृष्टि से महान् ऐतिहासिक नदियाँ हैं। स्वयं लेखक ने भी बिहार प्रदेश की अपनी विहार-यात्रा में दोनों नदियों को पार किया है और देखा है-इनका विशाल जल-प्रवाह। अस्तु, आवश्यक नियुक्ति जैसे प्राचीनतम महान् ग्रन्थ में निर्दिष्ट वर्णन से कौन विचारशील व्यक्ति इन्कार कर सकता है कि श्रमण भगवान् महावीर ने गंगा और गंडकी जैसी नदियाँ पार नहीं की? और, भी अनेक नदियों को अनेक वार पार किया होगा, किन्तु उक्त दो प्रसंग तो उपसर्गों की घटनाओं से सम्बन्धित थे, इसलिए उल्लेख में आ गए। अन्य नदी संतरण साधारण होने से अर्थात् उपसर्ग रहित होने से उल्लिखित नहीं किए गए। भगवान् महावीर के प्राकृत भाषा में पद्य-बद्ध चरित्र के लेखक महान आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1141 में 'महावीर चरियं' लिखा है। आचार्यश्री ने अपने ग्रन्थ में लिखा है "संपत्थिओ य भयवं सुरहिपुरं तत्थ अन्तरे गङ्गा। तो सिद्धदत्त नावं आरूढो लोगमज्झम्मिं ।।96।। उक्त संदर्भ का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य श्री ने सुरभिपुर के पास गंगा नदी को नौका द्वारा पार करने का उल्लेख किया है और वहाँ लिखा है -"संचलिया नावा पत्ता अगाहजले।" और आवश्यक नियुक्ति के अनुरूप उपसर्ग और उपसर्ग निवारण की विस्तृत चर्चा की है। आचार्य गुणचन्द्रसूरि ने प्राकृत गद्य में प्रमुख रूप से भगवान् महावीर का विस्तृत जीवन लिखा है। उक्त 'महावीर चरियं' में भी गंगा महानदी को नौका द्वारा भगवान् महावीर ने पार किया, यह स्पष्ट उल्लेख है ___ "सुरभिपुरं अइक्कमिऊण संपत्तो जलहिपवाहाणुकारिवारिपसरं सयलसरियापवरं गंगामहानइं।" महावीर चरियं गुणचन्द्रसूरि, प्रस्ताव, 5 भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 65 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त प्रसंग पर आचार्यश्री गंगा को 'जलहि' अर्थात् जलधि (सागर) की उपमा दी है। और उसे समग्र नदियों में विशाल महानदी बताया है। आगे की अनेक गाथाओं में तो विस्तृत रूप से गंगा की विशालता एवं भीषणता का वर्णन करते हुए अंतत: उसे मच्छ-कच्छ मगर आदि से युक्त तथा भीषण आवृत्तवाली भी कहा है। ___"रंगतमच्छकच्छवमयरोरग भीषणावत्तं। पृष्ठ 178 नाविएण पगुणीकया नावा .... भयपि अरुहिऊणं ठिओ तीसे एगदेसे.. .पयट्टा महावेगेण गंतुं नावा...। -वही, प्रस्ताव 5 यह वर्णन अतीव विस्तृत रूप से लिखा गया है। किन्तु लेख का कलेवर बढ़ जाने से यहाँ केवल संकेत रूप में ही कुछ उल्लेख किए हैं। आचार्यश्री गुणचन्द्रसूरि ने जिस प्रकार गंगा नदी को नौका द्वारा पार करने का विस्तार से वर्णन किया है, उसी प्रकार विस्तार के साथ नौकारूढ होकर भगवान् महावीर द्वारा गण्डकी नदी पार करने का भी वर्णन किया है। गण्डकी नदी का वर्णन करते हुए उसे बहुत अधिक तरंगाकुल, महान् जलपूर से पूरित, अतीव दुर्वगाह तथा दुर्ग्राह्य एवं रणभूमि के समान दुस्तर बताया गया है। भगवान् महावीर जब गण्डकी नदी पार कर नौका से उतर कर चलने लगे, तब नाविकों ने मूल्य के लिए उन्हें पकड़ लिया और मध्याह्न सयम तक उन्हें रोके रखा। और सिद्धार्थ राजा के बाल-मित्र शंख नामक गणराजा के भगिनि पुत्र चित्र राजकुमार ने भगवान् को नाविकों से मुक्त कराया। वर्णन विस्तृत है। हम यहाँ केवल नौकारोहण का ही पाठ दे रहे हैं "तं च सामी नावाए समुत्तिन्नो समाणो वेलुयापुलिणंसि मुल्लनिमित्तं धरिओ नाविगेहि।" श्री गुणचन्द्रसूरि, महावीर चरियं, प्रस्ताव 7 पृ. 224 गंगा और गण्डकी नदियों को नौका द्वारा पार करने का उक्त वर्णन ही आचार्य जिनदास महत्तर, आचार्य हेमचन्द्र तथा आचार्य शीलांक आदि ने भी अपने महावीर चरित्रों में अंकित किया है। बुद्धिमानों के लिए उपर्युक्त उल्लेख ही नौकारोहण की घटना को समझने के लिए पर्याप्त है, अधिक विस्तार की कोई अपेक्षा नहीं है। प्रश्न है, क्या ये सब वर्णन कपोल-कल्पित हैं आचार्यों ने अपनी कल्पना 66 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही यह सब जोड़-तोड़ लगाया है। आचार्य भद्रबाहु जैसे श्रुत-केवली भला कैसे मिथ्या कल्पना कर सकते हैं। उन्होंने आवश्यक नियुक्ति में भगवान् महावीर द्वारा नौकारोहण का वर्णन किया है। वही मध्य-काल की यात्रा करता हुआ आज तक हम लोगों के द्वारा वर्णन किया जा रहा है। आचार्य भद्रबाहु को अवश्य ही तत्कालीन खण्ड आगमों में से या श्रुत-परम्परा से वर्णन उपलब्ध हुआ होगा। आचार्य भद्रबाहु जैसे को कल्पित कथाकार कहना विचार-मूढता के सिवा अन्य कुछ नहीं है। अरहन्त होने के पश्चात् एक प्रश्न और खड़ा किया जाता है कि ये तो उनके छद्मस्थ काल की घटनाएँ हैं। अरहन्त होने के पश्चात् नदी पार करने का कोई वर्णन नहीं मिलता। जरा भी बुद्धि से विचार किया जाय, तो छद्मस्थकाल तो फिर भी साध्वाचार की नियमावली से प्रतिबद्ध है। उसमें आचार सम्बन्धी विधि-निषेध की कुछ व्यवस्था नहीं रहती है। यदि रहती है, तो फिर स्वर्ण सिंहासन, छत्र चंवर, दुन्दुभि, पुष्प-वृष्टि आदि का वर्णन-जो समवायांग राज प्रश्नीय आदि मूल आगमों तक में मिलते हैं, उनका समाधान कैसे होगा? साधु-आचार से विपरीत यह आचरण कैसे संगत हो सकता है? अतः स्पष्ट है कि अरहन्त होने के पश्चात् भी गंगा जैसी महानदियाँ पार की है। किन्तु, आचार्यों ने उनके उल्लेख को कोई महत्त्व नहीं दिया। पूर्व लेखानुसार उनका किसी उपसर्ग विशेष वर्ग से यदि सम्बन्ध होता, तो उनका उल्लेख किया जाता। स्पष्ट है, ऐसा कोई उपसर्ग विशेष नदी सम्बन्धी अर्हत् काल में नहीं हुआ। ____ आगम के साथ तर्क का भी अपना एक महत्त्व है। जो बात मूल में स्पष्ट न हो, वह युक्ति-युक्त तर्क से स्पष्ट हो जाती है। कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति आदि में भगवान् महावीर के छद्मस्थ और अरहन्त काल के 42 वर्षावासों का वर्णन है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर और अन्य ऐतिहासिक विद्वान् पुरातत्त्ववेत्ता पंडित मुनिश्री कल्याण विजयजी एवं आचार्य विजय यशोदेवसूरि आदि ने भगवान् महावीर के अरहन्तकालीन चातुर्मासों का वर्णन किया है, उसकी एक तालिका प्रस्तुत है। उस पर से स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर ने अरहन्त काल में भी गंगा महानदी पार की है। गंगा के उत्तर में वैशाली, वाणिज्य ग्राम और मिथिला है और गंगा से दक्षिण बिहार में राजगृह, नालंदा है, तालिका पर से आप भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 67 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखेंगे कि वैशाली, मिथिला से राजगृह और राजगृह से वैशाली, वाणिज्य ग्राम और मिथिला में भगवान् महावीर के वर्षावास हुए हैं। और ये वर्षावास गंगानदी पार किए बिना कथमपि संभव नहीं हैं। वर्षावास स्थल का नाम वर्षावास स्थल का नाम तेरहवाँ राजगृह उन्तीसवाँ वैशाली चौदहवाँ वैशाली तीसवाँ वाणिज्य ग्राम पंद्रहवाँ वाणिज्य ग्राम इकतीसवाँ वैशाली सोलहवाँ राजगह बत्तीसवाँ वैशाली सत्रहवाँ वाणिज्यग्राम तेत्तीसवाँ राजगृह अठारहवाँ राजगृह चौतीसवाँ नालन्दा उन्नीसवाँ राजगृह पैतीसवाँ राजगृह बीसवाँ वैशाली छत्तीसवाँ मिथिला इक्कीसवाँ वाणिज्यग्राम सैंतीसवाँ राजगृह बाईसवाँ राजगृह अड़तीसवाँ नालन्दा तेईसवाँ वाणिज्यग्राम उन्चालीसवाँ मिथिला चौबीसवाँ राजगृह चालीसवाँ मिथिला पच्चीस से सत्ताइस मिथिला इकतालीसवाँ राजगृह वाणिज्यग्राम बयालीसवाँ पावा मध्यमा (पावापुरी) उपर्युक्त तालिका पर से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने चातुर्मासों के इन क्रम में कितनी बार गंगा नदी को पार किया है। बिहार की भौगोलिक स्थिति की थोड़ी-बहुत भी जानकारी रखने वाला पता लगा सकता है कि दक्षिण बिहार और उत्तरी बिहार का विभाजन करने वाली गंगा नदी है। इसको पार किए बिना ये वर्षावासों का क्रम संगति प्राप्त नहीं कर सकता। और, गंगा का उत्तरण नौका द्वारा ही हआ है, कोई लब्धि प्रयोग से, आकाश से उड़कर नहीं। साधारण साधु के लिए लब्धि-प्रयोग वर्जित है. तो अरहन्त के लिए तो यह प्रयोग हो ही कैसे सकता है? अकेले तो नहीं आए हैं। साथ में हजारों साधु-साध्वियों का संघ भी अट्ठाईसवाँ •68 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है। इतने बड़े संघ का आकाश से उड़कर आने की बात करना तो बौद्धिक दिवालियापन के सिवा और कुछ भी नहीं है। भगवती मल्ली उन्नीसवें तीर्थंकर हैं। वे गंगा नदी से उत्तर बिहार मिथिला की हैं। दीक्षा लेते ही उसी दिन उन्हें अर्हत्-भाव प्राप्त हो चुका था। क्या उन्होंने सारा अर्हत्-जीवन मिथिला में ही गुजारा? क्योंकि मिथिला के आस-पास भी कितनी ही ऐतिहासिक नदियाँ हैं। क्या उन्हें पार नहीं किया गया? और, सबसे बड़ी बात है उनके निर्वाण की। उनका निर्वाण गंगा के इस पार दक्षिण बिहार के सम्मेत् शिखर पर्वत पर हुआ है। बताइए, गंगा को पार किए बिना वे कैसे सम्मेत्शिखर पहुंचे। प्रस्ताविक विषय काफी स्पष्ट हो चुका है, उसके लिए अब कुछ और अधिक लिखना अनावश्यक है। अपेक्षा है, दुराग्रह को छोड़कर सदाग्रह के साथ सत्य को स्वीकार करना। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार करते हुए एक बात पर और विचार कर लेते हैं। स्थानांगसूत्र और अन्य वाङ्मय में नौका द्वारा नदी संतरण के दुष्काल, रोग, राजभय एवं म्लेच्छ आक्रमण आदि कुछ कारण बताए गए हैं, जो भिक्षु की जीवन-रक्षा से संबन्धित हैं। किन्तु, भगवान् महावीर द्वारा गंगा जैसी महानदी पार करने में ऐसा कोई हेतु नहीं है-न छद्मस्थ काल में और न अरहन्त काल में। अकारण यों ही इधर-उधर घूमने के उद्देश्य से तो उन्होंने नदी पार नहीं की। हेतु तो होना ही चाहिए और, वह हेतु छद्मस्थ काल में असंग साधना रूप विहार-यात्रा और अरहन्त काल में धर्म-प्रचार ही एक मात्र हेतु प्रतिभासित होते हैं। जरा तटस्थता से विचार करेंगे, तो मेरा यह निष्कर्ष अवश्य ही अनाग्रही पाठक के मन-मस्तिष्क में अवतरित होगा। निग्रंथ भिक्षु-भिक्षुणी द्वारा नदी-संतरण अंग-साहित्य का प्रथम सूत्र आचारांग है। सर्व प्रथम नदी संतरण का उक्त आगम के अद्वितीय श्रुतस्कंध के तृतीय इयैषणा अध्ययन में उल्लेख है। वहाँ किसी विशेष कारण का उल्लेख किए बिना विहार-यात्रा में नदी आ जाए, तो उसे नौका द्वारा पार करने का वर्णन है। सागारी भक्त प्रत्याख्यानकरके भिक्षु नौका में यथास्थान बैठ जाता है। नदी की जल-धारा में यदि उसे अधिक भार भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 69 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ कर कोई नाविक नदी में फेंक दे, तो वह पवमयाणे अर्थात् तैरकर नदी पार करे। यदि भण्डोपकरण का भार अधिक हो और उसके फलस्वरूप उसे तैरने में बाधा पड़ती हो, तो उन्हें जल-प्रवाह में उतार कर डाल दे और हल्का हो जाए। इस तरह लघुभूत होने से जलधारा में तैरना सहज हो जाता है। यह वर्णन स्पष्ट करता है कि भिक्षु नौका द्वारा नदी पार कर सकता है? नौका द्वारा ही नहीं, प्रसंग आ जाए तो तैर कर भी पार कर सकता है। प्रश्न है, संथारा में जान-बुझकर हिंसाकारी नौका में बैठकर कैसे यात्रा की जाती है? साथ ही धारा के विशाल प्रवाह को तट तक कैसे तैरा जा सकता है? संथारा में इस प्रकार की सावध क्रिया करना, क्या ठीक है? मूल आगम में विधान तो है। समाधान है-साधक के लिए जीवन-रक्षा का प्रयत्न किया गया है। यदि जीवन-रक्षा के लिए यह सब-कुछ किया जा सकता है, तो क्या धर्म प्रचारार्थ एवं जिन-शासन की गरिमा हेतु नौका और उससे भी अल्प-हिंसक यांत्रिक-वाहनों का प्रयोग करने में क्या बाधा आती है? प्रस्तुत प्रसंग को देखते हुए यह संथारा केवल भक्त प्रत्याख्यान रूप है अर्थात् भोजन का परित्याग। वह भी इसलिए कि प्रायः तूफान, आवर्त तथा अतिभार आदि के कारण नौकाएँ अगाध जल में डूब जाती हैं और इस दुर्घटना में प्राणान्त भी हो सकता है। अतः भक्त-प्रत्याख्यान के रूप संथारा, ग्रहण कर लिया जाता है। नौकारोहण के निषेध के अतिवादी क्रियाकाण्ड उक्त संथारे की प्रायः चर्चा किया करते हैं, उन्हें शान्त चित्त से इस पर विचार करना चाहिए। __उक्त प्रसंग पर हमें आचार्य भद्रबाहु का आवश्यक नियुक्ति में किया गया कथन स्मृति-पथ में आ जाता है-"सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि संयम और जीवन-रक्षा के मध्य कोई द्वंद्व उपस्थित हो जाए, तो संयम की अपेक्षा जीवन की ही रक्षा करनी चाहिए" "संजमहेउं देहो धारिज्जइ, सो कओ उ तदभावे संजम - फाइनिमित्तं, देहपरिपालणा इट्ठा ।।47॥" उक्त प्रसंग पर एक प्रश्न विचाराधीन है। वह यह कि जब अंग-साहित्य के प्रथम अंग सूत्र आचारांग में नौका द्वारा नदी-संतरण का विस्तृत रूप से उल्लेख है, तो यहाँ महानदी और जंघा संतारिम अल्प नदी का वर्णन क्यों नहीं 70 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया, जो प्रसंगतः + आवश्यक था। साथ ही दूसरी बात यह है कि एक मास में तथा एक वर्ष कितनी बार नदियाँ पार करनी, यह भी नहीं बताया गया, जो कि उत्तरकालीन आगमों में वर्णित है। क्या आचारांग के काल में तथाकथित नौका - यात्रा द्वारा नदी पार करने की परिगणना की कोई स्थिति नहीं थी? विद्वत्जन इस पर ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ विचार करें तो अच्छा है। बृहत्कल्प सूत्र के चतुर्थ उद्देशक में गंगा, जमुना, सरयू, कोशिका और मही- इन पाँच महार्णव, महानदियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है "नो कप्पइ निग्गंथाण निग्गंथीण वा पंचमहण्णवाओ महानदीओ उद्दिट्ठाओ गणिआओ वज्जियाओ। अंतोमासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो व उत्तरित्तए वा, संतरित्त वा तंजा - गंगाजमुनासरयूकोसियामही " - 32 टीका । भावार्थ है, ये पाँच महानदियाँ एक महीने के अंदर नौका द्वारा अथवा तैर कर दो बार या तीन बार पार नहीं करनी चाहिए। इसका अर्थ है, महीने में एक बार तो पार की ही जा सकती है । " दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो" में वा शब्द है, जिससे यह भी फलित हो सकता है कि दो वार भी पार की जा सकती हैं। प्रश्न है, महानदियाँ तो शतद्रु, विपासा, नर्मदा, काबेरी, आदि अन्य भी महार्णव नदियाँ हैं। उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया। क्या सूत्रकार को इतनी ही भौगोलिक जानकारी थी? यद्यपि भाष्यकर ने इनसे अन्य नदियों की भी कल्पना की है, फलितार्थ के रूप में। किन्तु, मूल पाठ में ऐसा क्यों नहीं है? यह प्रश्न विचाराधीन है। उक्त उद्देशक में ही उणाला नगरी के समीप बहनेवाली एरावती नदी का वर्णन किया है, जो कहीं जंघा - संतारिम है और कहीं नौका - संतारिम है। यह नदी अर्ध योजन अर्थात् दो कोस चौड़ी है और प्रायः जंघा प्रमाण जल वाली है। इसे पैरों द्वारा पार करने का उल्लेख है। भंडोपकरण नदी के तट पर रख कर जल-मार्ग की जाँच करने के लिए नालिका ( एक विशेष दंड, जो अपने परिमाण से चार अंगुल ऊँचा होता है ) लेकर परले तट तक जाएँ और फिर लौटकर भंडोपकरण ग्रहण कर तीसरी बार पूर्व परीक्षित जल मार्ग से नदी पार करे। इस प्रकार छह कोस की जल-यात्रा हो गई है। यह बृहत्कल्प भाष्य का वर्णन है। यदि जंघा - संतारिम जल - मार्ग न हो, तो नौका द्वारा भी पार करने का उल्लेख है। भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 71 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "णावोवयग तं पि जतणाए। "बृहत्कल्प भाष्य, 5655 "कारणे यत्र नवाऽप्युदकं तीर्यते तत्रापि यतनया संतरणीयम्।.... परिहारपरिमाणानामभावे नावा लेपोपरिणा लेपेन संघटेन वा गम्यते न कश्चिद्दोषः। -बृहत्कल्प भाष्य टीका, 5656 उक्त पुरातन कथन पर से स्पष्ट है कि परिस्थिति विशेष में नावादि के द्वारा जल-यात्रा करने में भी कोई दोष नहीं है। प्रस्तुत में नदी पार करने के अशिव, भिक्षा का अभाव आदि अनेक कारण बतलाए हैं। प्रश्न है, यदि इन्ही कारणों से नदी पार की बात है, तब फिर परिगणना कैसी? दो-तीन वार के बाद भी ऐसे ही कारण उपस्थित हो सकते हैं। तब भिक्षु क्या करे? क्या उक्त निषेध को एकान्त मानकर वहीं प्रणान्त की स्थिति प्राप्त कर ले? यदि जीवन-रक्षा के लिए नदी पार करना है, तो अन्य विकट प्रश्न उपस्थित होने पर परिगणना से अधिक भी अपवाद स्वरूप नदी पार की जा सकती है। अस्तु, उक्त परिगणना के पाठ को सामान्य रूप से ही ग्रहण करना अपेक्षित है, एकान्तवाद के रूप में नहीं। समुद्र-यात्रा यद्यपि समुद्र-गामिनी नौका द्वारा समुद्र-यात्रा का निषेध किया गया है, पर यह भी एकान्त नहीं है। लंका के इतिहास से पता चलता है कि लंका के राजा खल्लतांग (ईसा से 109 वर्ष पूर्व से लेकर 103 वर्ष पूर्व तक) काल में अभयगिरि आदि पर जैन मुनियों के संघ पहुँच चुके थे। और, राजा वट्टगामि तक यह संघ लंका में रहा। पश्चात् परिस्थिति विशेष के कारण लंका से श्याम (थाइलैंड) के लिए प्रस्थान कर गए। यह यात्रा समुद्र गामिनी नौकाओं के द्वारा हुई है। प्रस्तुत प्रसंग के लिए 'टाइम्स ऑफ इंडिया' एवं श्री अमर भारती, अगस्त 84, पृष्ठ 32 में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पी. बी. राय चौधरी का प्रकाशित लेख दृष्टव्य है। अस्तु। समुद्र-यात्रा भी एकान्तः प्राचीन काल में निषिद्ध नहीं थी। जैन-दर्शन एकान्तवादी है भी नहीं। उसका समग्र आचार और दर्शन अनेकान्त की धुरी पर अवस्थित है। एकान्तवादी को सम्यक्-दृष्टि नहीं, मिथ्या-दृष्टि माना गया है। 72 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त चर्चा नदी-संतरण के लिए प्रायश्चित्त की भी एक चर्चा है सम्प्रदाय भेद से इसके लिए अनेक प्रकार के छोटे-बड़े प्रायश्चित लिए जाते है। किन्तु, वस्तुतः नदी-संतरण का कोई प्रायश्त्ति होता है क्या? यदि होता है, तो वह कौन-सा? महान-शास्त्र-मर्मज्ञ आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज आदि अनेक मनीषी मुनि अपवाद का कोई प्रायश्चित्त नहीं मानते थे। जैनागम रत्नाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज को भी नौका द्वारा नदी पार करने का प्रायश्चित्त स्वीकृत नहीं था। उनके द्वारा व्याख्यायित आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध तृतीय अध्ययन उद्देशक एक के टिप्पण में लिखा है-"नदी में पानी की अधिकता हो तो मुनि नौका द्वारा उसे पार कर सकता है। यह अपवाद मार्ग उत्सर्ग की भाँति संयम में सहायक एवं निर्दोष माना गया है। क्योंकि आगम में इसके लिए प्रायश्चित्त का कहीं भी विधान नहीं किया गया है।" आचार्य चरणों की उक्त बात असंगत नहीं है। प्राचीन काल से ही उत्सर्ग और अपवाद दोनों को मार्ग ही माना गया है। यह नहीं कि उत्सर्ग मार्ग है और अपवाद अपमार्ग या कुमार्ग है। दोनों ही अपने-अपने स्थान पर श्रेयस्कर एवं शक्तिशाली है। निर्बल कोई भी नहीं है। प्रस्तुत प्रतिपाद्य के लिए देखिए सुप्रसिद्ध बृहत्-कल्प का भाष्य तथा महान् व्याख्याकार श्रुतधर आचार्य मलयगिरि की व्याख्या। अविधि को आशंका के परिहार के लिए नौका आदि द्वारा नदी पार करने पर 'इरिया पथिक' कायोत्सर्ग का ही विधान है। दृष्टव्य है, निशीथसूत्र के त्रयोदश उद्देशक का भाष्य "णावाए -उत्तिण्णो, इरियापहिताए कुणति उस्सग्गं"।।4256।। पूर्व लेख में भगवान् महावीर द्वारा गंगा नदी पार करने का उल्लेख है। आवश्यक नियुक्ति गाथा 471 की व्याख्या में आचार्य मलयगिरि ने चूर्णि निर्दिष्ट पाठ उद्धृत किया है, जिसका भावार्थ है।" गंगा नदी पार करने के बाद तट पर 'इरियापथिक' प्रतिक्रमण किया और आगे प्रस्थान कर गए।" 'ततो भयवं दगतीराए इरियावहियं पडिक्कमिउं पत्थिओ।' आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने 'महावीर चरियं' में भी ऐसा ही उल्लेख किया है भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 73 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दगतीरे पडिक्कमिडं इरियावहिया य पत्थिओ भयवं । ' - महावीर चरियं आचार्य गुणचन्द्रसूरि ने अपने प्राकृत गद्यबद्ध महावीर चरियं में भी उक्त कथन को ही समादृत किया है “इओ य भयवं महावीरो नावुत्तिन्नो संतो जलतीरंमि इरियावहियं पडिक्कमिय सुरसरिया परिसरे । - आचार्य गुणचन्द्र, महावीर चरियं, पृष्ठ 181 क्रिया - काण्ड की दृष्टि से दिगम्बर- परम्परा उग्र क्रिया- काण्डी मानी जाती है। उक्त परम्परा के महान् आचार्य हैं, वीरनन्दी सैद्धान्तिक चक्रवर्ती। उनके द्वारा प्रणीत आचारसार एक मान्य आचार ग्रन्थ है। उसमें भी आचार्यश्री ने मलोत्सर्ग एवं नदी आदि उतरने के समय कायोत्सर्ग का ही विधान किया है “व्युत्सर्गोन्तर्मुहूर्त्तादिकालं कायविसर्जनम् । सद्ध्यानं तन्मलोत्सर्गनद्याद्युत्तरणादिषु ।। " - आचारसार, षष्ठोऽधिकार, 45 उक्त श्लोक में स्पष्ट है कि नदी - संतरण और मलोत्सर्ग रूप प्रतिष्ठापन समिति दोनों को एक समान माना गया है। इस लिए दोनों के लिए ही कायोत्सर्ग मात्र का विधान है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के बीच की एक मध्यस्थ परंपरा रही है-यापनीय-परंपरा | जैन संस्कृत व्याकरण शाकटायन के निर्माता श्री शाकटायन, भगवती आराधना के कर्ता आचार्य शिवार्य तथा अपराजितसूरि जैसे सुप्रसिद्ध अनेक विद्वान्-आचार्य इसी परम्परा के हैं । भगवती आराधना की अपनी सुप्रख्यात तत्त्वगर्भ टीका 'वजयोदया में कायोत्सर्ग का ही विधान किया है " समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत्, परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहार्थ । एवमेव महतः कान्तारस्य प्रवेशनि:क्रमणयो - भगवती आराधना टीका, गाथा 152 उक्त आचार्य का ही एक और प्रमाण है कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में। वह कायोत्सर्ग के परिमाण स्वरूप किए जाने वाले श्वासोच्छ्वास की गणना से सम्बन्धि त है । प्राणी - वधआदि पाँचों ही अतिचारों के लिए कायोत्सर्ग का काल मात्र 108 श्वासोच्छ्वास माना गया है 74 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रत्युषसि प्राणिवधादिषु पंचस्वतिचारेषु अष्टशतोच्छ्वासमात्रः कालः कायोत्सर्गः कार्यः।"-भगवती आराधना, टीका, गाथा 118 प्रस्तुत प्रकरण के समर्थन में प्रमाणों का एक विस्तृत संग्रह है। किन्तु, हम यहाँ मान्य आचार्यों के पर्याप्त प्रमाण उपस्थित कर चुके हैं। अतः अब अधि क पाठों का उल्लेख करने का कोई विशेष अर्थ नहीं रहता। नदी-संतरण को पूर्वाचार्य बहुत अधिक पापकारी एवं अधर्म नहीं मानते थे। यदि मानते होते, तो केवल अन्तर्मुहूर्त काल संबंधी सीमित श्वासोच्छवासों के कायोत्सर्ग से उसकी शुद्धि स्वीकार नहीं करते। किसी बहुत बड़े तप आदि प्रायश्चित्त का विधान करते। इस प्रकार के कायोत्सर्ग तो साधारण गोचरचर्या, विहार आदि के साधारण क्रिया के हेतु किए जाते हैं। अतः नदी -संतरण को घोर पाप बताते हुए व्यर्थ का हल्ला मचाना शास्त्र-ज्ञान की अनभिज्ञता का ही द्योतक है। हमारा विनम्र निवेदन है कि मान्यताओं का आग्रह छोड़कर प्रस्तुत समाधान के लिए प्राचीन परम्परा को ही मान्य करना चाहिए। नदी-संतरण के हेतु जीवन-रक्षा सम्बन्धी ही अधिक है। किन्तु, जीवन-रक्षा किसलिए? संयम एवं धर्म पालन के लिए न? अतः धर्म-प्रचार के हेतु भी उसका प्रयोग किया जाए, तो यह कल्पनीय ही ठहरता है, अकल्पनीय नहीं। ध र्म-प्रचार के लिए बृहत्कल्प सूत्र में निर्दिष्ट अंग-मगध, कौशाम्बी, थूणा और कुणाल आदि के मध्य क्षेत्र को ही आर्य-क्षेत्र माना है और वहीं साधु-साध्वी को विहार करने का विधान है, अन्यत्र नहीं। परन्तु, प्राचीनकाल से ही उक्त क्षेत्र के बाहर विहार होते रहे हैं। बृहत्कल्प-सूत्रकार भी कहते हैं कि ज्ञान-दर्शन आदि की वृद्धि होती हो तो उक्त आर्य क्षेत्र से बाहर तथाकथित अनार्य क्षेत्र में विहार हो सकता है। अतः स्पष्ट है कि धर्म सम्पादन एवं धर्म-प्रचार मुख्य है। स्वाध्याय का अन्तिम परिपाक भी धर्म-कथा में ही है। अतः नदी-संतरण की भाँति यदि देश-कालानुसार प्रसंग विशेष में धर्मप्रचारार्थ कार एवं वायुयान आदि शीघ्रगामी यानों का प्रयोग किया जाए, तो इसमें क्या आपत्ति है? कुछ भी तो नहीं। जबकि जीवन-रक्षा के लिए, भिक्षा जैसे साधारण कार्य के लिए भी नदी पार की जा सकती है और प्रायश्चित्त केवल एक अल्प कालिक कायोत्सर्ग ही है, तो फिर धर्म-प्रचार तो विशिष्ट प्रयोजन है। वह अनर्थ नहीं, अर्थ है। और, साधारण अर्थ नहीं, विशिष्ट अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। यह जिन-शासन की प्रभावना का मुख्य अंग है। इसे कैसे अपदस्थ किया जा सकता है? भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 75 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा जैसी महानदियों के संतरण में कितनी महान् हिंसा होती है? उसकी तुलना में उक्त यांत्रिक वाहनों में तो कुछ भी हिंसा नहीं है। बुद्धिमान व्यक्तियों को प्रत्येक कार्य में आय-व्यय एवं लाभ-हानि का सूक्ष्म बुद्धि से गणित लगाना ही चाहिए। अन्ध-हस्ति की तरह केवल साम्प्रदायिक मान्यताओं के पथ पर दौड़ते रहना न प्राचीन-युग में कुछ अर्थ रखता था और न आज के चिन्तन प्रधान वैज्ञानिक युग में कुछ अर्थ रखता है। सत्य के उपासक को मान्यताओं से ऊपर उठकर सत्य की ही एक मात्र उपासना करना सत्य की साधना है। इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने सत्य को भगवान् कहा है - "सच्चं खु भगवं" संदर्भ :1. यही प्रसंग बृहत्कल्प भाष्य तथा निशीथ भाष्य में निर्दिष्ट है वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्सकासि उवसग्गं। मिच्छादिट्ठि परद्धो, कंबल-सबलेहि तित्थं च।। -बृहत्कल्प भाष्य 5628, निशीथ भाष्य 4218 2. सट्ठाणे सट्ठाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए। सट्ठाण – परट्ठाणा, य हुति वत्थूतो निप्फ ।।323।। -शिष्यः पृच्छति –किमुत्सर्गः श्रेयान् बलवाँश्च?... उत्सर्ग-अपवादाश्च स्वस्थाने-स्वस्थाने श्रेयांसो बलिनश्च भवन्ति, परस्थाने-परस्थाने-ऽश्रेयांसो दुर्बलाश्च। -बृहत्कल्प भाष्य एवं टीका 76 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मयुद्ध का आदर्श बंगला देश मुक्ति के संदर्भ में अहिंसा और हिंसा की विवेचना बहुत पूर्व काल से होती आ रही है। अबतक जितने भी मनीषी - विचारक हुए हैं, सबों ने इस पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है। किन्तु फिर भी बहुत बार लोग गड़बड़ा जाते हैं कि वास्तव में अहिंसा और हिंसा का सही रूप क्या है? मोटे तौर पर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा के दो रूपों में विभाजित करके हिंसा की विवेचना की जाती है। किन्तु हिंसा के वास्तव में चार रूप है - ( 1 ) द्रव्य हिंसा- इसमें सिर्फ बाहर में हिंसा होती है, (2) भाव हिंसा - इसमें भावना मात्र से हिंसा होती है, (3) द्रव्य + भाव हिंसा- इसमें द्रव्य और भाव - दोनों प्रकार की हिंसा होती है, यह हिंसा का प्रचण्ड रूप है। और (4) न द्रव्य + न भाव हिंसा- इसमें न अन्दर में हिंसा होती है, बाहर में। और यह हिंसा का शून्य भंग अर्थात् प्रकार है ! अतः यह चतुर्थ रूप वस्तुत: अहिंसा ही है। न जैन दर्शन में अहिंसा का बोलबाला है। इसमें अहिंसा सर्वोच्च शिखर के रूप में दीप्तिमान है। जैन साधना में इसका बड़ा विशद् महत्व है। जैन ध र्म-साधना का कण-कण अहिंसा से अनुप्राणित है। शास्त्र के शास्त्र इस पर लिखे गये हैं । " पुरुषार्थ सिद्धि उपाय" एक ऐसा ही ग्रन्थ है, जिसमें हिंसा और अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। आचार्य हरिभद्र और आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि की रचनाओं में भी हिंसा और अहिंसा की गम्भीर विवेचना उपलब्ध है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि जब तक जीवन है, तब तक इसमें हिंसा तो रहती ही है। हिंसा का क्रम निरन्तर चलता ही रहता है । चलने-फिरने में हिंसा है, खाने-पीने में हिंसा है। धरती पर असंख्य कीटाणु फिरते हैं, जिन्हें माइक्रो- स्कोप से स्पष्ट देखा जा सकता है, कदम रखते ही उनका संहार हो जाता है। हवा में भी असंख्य सूक्ष्म कीटाणु हैं, जो शास्त्रोक्त वायुकायिक जीवों धर्म - युद्ध का आदर्श 77 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस के अतिरिक्त हैं, शरीर से लगते हर झोके के साथ उनका सर्वनाश होता रहता है। हर साँस में प्राणी मर रहे हैं। व्यक्ति के अपने शरीर में भी मांस, मज्जा, रक्त, मलमूत्र आदि में भी प्रतिक्षण असंख्य प्राणी जनमते-मरते रहते हैं। प्रश्न है, स्थिति में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है ? अहिंसा का पालन कैसे हो सकता है ? जैन परम्परा इसका उत्तर द्रव्य और भाव के द्वारा देती है। यदि साधक जाग्रत है, उसके मन में अहिंसा का विवेक बोध है, हिंसा की वृत्ति या संकल्प नहीं है, तो वह बाहर में हिंसा होने पर भी अन्दर में अहिंसक ही है। यह भावशून्य द्रव्य हिंसा केवल बाह्य व्यवहार में कथनमात्र की हिंसा है, पापकर्म का बन्ध करने वाली हिंसा नहीं हैं इस प्रकार हिंसा की भावना से मुक्त मन:स्थिति में द्रव्य हिंसा होने पर भी अहिंसा धर्म का परिपालन- अक्षुण्ण है। अहिंसा धर्म के परिपालन का एक दूसरा रूप और है। वह प्रवृत्ति में हिंसा और अहिंसा की मात्रा के आधार पर है। कल्पना कीजिए, कोई एक प्रवृत्ति है, जिसमें हिंसा की मात्रा कम है, किन्तु अहिंसा का भाग अधिक है, तो यह भी अहिंसा की साधना के क्षेत्र में आ जाता है। हिंसा और अहिंसा का केवल वर्तमान पक्ष ही नहीं, भविष्य पक्ष भी देखना आवश्यक है। यदि वर्तमान में हिंसा होती है, किन्तु उसके द्वारा भविष्य में अहिंसा की विपुल मात्रा परिलक्षित होती है, तो वह वर्तमान की हिंसा भी अहिंसा की साधक हो जाती है। इसके विपरीत यदि वर्तमान में अहिंसा अल्पमात्रा में है, किन्तु भविष्य में उससे प्रचुर मात्रा में हिंसा फूट पड़ने की स्थिति है, तो यह वर्तमान की क्षुद्र अहिंसा अहिंसा के साध ना क्षेत्र में नहीं आती है। अहिंसा का सही रूप गहराई से विचार करने पर हम देखते हैं कि हिंसा के दो रूप चल रहे होते हैं। एक लम्बी खूँखार हिंसा होती है और दूसरी, इस निर्दय एवं क्रूर हिंसा को रोकने के लिए एक छोटी हिंसा होती है। यहाँ यही विचारणीय है कि क्या हम दोनों को एक समान हिंसा कह सकते हैं? नहीं ! स्पष्ट है कि एक लम्बी हिंसा अर्थात् एक बहुत बड़ी हिंसा को को रोकने के लिए जो एक छोटी हिंसा होती है- भले ही इसमें प्रत्यक्षतः प्रचण्ड हिंसा क्यों न होती हो - वह हिंसा की एकान्त श्रेणी में नहीं आ सकती । कल्पना कीजिए, शरीर में एक जहरीला फोड़ा हो गया है। उस फोड़े को साफ करना है। यदि उसे साफ नहीं किया जाता है 78 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो सारा शरीर ही वर्बाद हो जाता है। एक अँगुली के जहर को निकालकर पूरे शरीर को बचाना होता है। इसके लिए जरूरी होने पर उस विषदिग्ध अंगूली को काटकर शरीर से अलग भी कर दिया जाता है और पूरे शरीर को समाप्त होने से बचा लिया जाता है। अभिप्राय यह है कि एक छोटे अंग का विष, जो पूरे शरीर में फैलकर जीवन को ही नष्ट करने वाला हो, तो उस समय एक हाथ, एक पैर या एक अंगुली को काटे जाने का मोह नहीं किया जाता। यह नहीं सोचा जाता कि उसे काटा जाए या नहीं काटा जाए। स्पष्ट है, सारे शरीर को बचाने के लिए एक अंग को काट दिया जाता है और सारे शरीर को बचा लिया जाता है। इस उदाहरण के संदर्भ में हमारी यह परम्परा है, जैन दर्शन के अनुसार कि जहाँ बड़ी हिंसा होने वाली है, या हो रही है, तो वहाँ छोटी हिंसा का जो प्रयोग है, वह एक प्रकार से अहिंसा का ही रूप है। हिंसा इसलिए है, चूँकि वह एक बड़ी हिंसा को रोकने के लिए है। वह हिंसा तो है, लेकिन इस हिंसा के पीछे दया छिपी हुई है, उसके मूल में करुणा छिपी हुई है और उसके पीछे एक महान् उदात्त भावना है कि यह जो बड़ी हिंसा हो रही है, उसे किसी तरह समाप्त किया जाए। इसी कारण इसको जैन दर्शन के अन्दर आदर दिया गया है। युद्ध और अहिंसा : और नैतिक आदर्श विचार कीजिए कि रावण सीता को चुराकर ले जाता है। और विरोध में सीता के लिए रामचन्द्र जी लंका पर आक्रमण करते हैं। इस प्रकार एक भयंकर युद्ध हो जाता है। प्रश्न केवल एक सीता का है। और उसमें भी सीता को कोई कतल तो नहीं कर रहा था। सीता की कोई हिंसा तो हो नहीं रही थी। लेकिन विचारणीय तो यह है कि किसी को मार देना ही तो हिंसा नहीं कही जाती। बल्कि किसी के नैतिक जीवन को बर्बाद कर देना भी हिंसा है। क्योंकि अनैतिकता अपने आप में स्वयं हिंसा हो जाती हैं विचार कीजिए, रावण ने एक सीता का अपहरण कर जो सामाजिक अन्याय किया है, यदि उस अन्याय को नहीं रोका गया, तो अन्याय जनमानस पर हावी हो जाता है, न्याय की प्रतिष्ठा ध्वस्त हो जाती है, और उसकी देखादेखी भविष्य में और भी अन्याय फैल सकता है। इस दृष्टि से किया गया अन्याय का प्रतिकार धर्म के क्षेत्र में आता है। राजनीति के अन्दर दण्ड की जो परम्परा है, वह भी इसलिए है कि जो अन्याय और अत्याचार का दायरा लम्बा होता है, फैलता जाता है, उस पर नियंत्रण धर्म-युद्ध का आदर्श 79 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाए, क्योंकि यदि उसे नियंत्रित नहीं किया जाएगा तो वह निरंतर फैलता चला जाएगा। अतः उसको रोकने के लिए अमुक प्रकार के कदम उठाये जाते हैं, जिससे कि एक छोटे कदम के द्वारा, वह जो बड़े कदम के रूप में अन्याय, अत्याचार होने वाला है, उसको रोका जाए। प्रस्तुत प्रसंग में यदि केवल बाहर में ही स्थूल दृष्टि से देखा जाए, तो यही कहेंगे कि राम ने सीता के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। यह तो बहुत बड़ी हिंसा हो गई ! एक के लिए अनेकों का संहार ! लेकिन नहीं, यह तो एक छोटी हिंसा है। और वह जो उचित प्रतिकार न करने पर अन्याय-अत्याचार अनर्गल रूप पकड़ता, वह बड़ी हिंसा होती। तो, उस बड़ी हिंसा को रोकने के लिए ही युद्ध के रूप में यह छोटी हिंसा लाजमी हो गई थी। इसलिए राम की ओर से जो युद्ध लड़ा गया था, वह धर्मयुद्ध था। इसके विपरीत रावण की तरफ से जो युद्ध लड़ा गया, यह अधर्म युद्ध था। युद्ध एक ही है, और इसमें दोनों ओर हिंसा हुई है, दोनों ओर से मारे गए हैं लाखों आदमी। लेकिन एक धर्मयुद्ध माना जाता है और एक अधर्म युद्ध माना जाता है। ऐसा क्यों माना जाता है? ऐसा इसलिए माना जाता है कि राम के मन में एक उदात्त नैतिक आदर्श है। उनका युद्ध किसी अनैतिक धरातल पर नहीं है, किसी भोग-वासना की पूर्ति के लिए या राज्यलिप्सा के लिए नहीं है, बल्कि वह सतीत्व की रक्षा के लिए और अन्याय-अत्याचार की परम्परा को, जो कि जन-जीवन में बढ़ती जा रही है, रोकने के लिए है। इसी दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि यह जो वर्तमान में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का युद्ध चल रहा है, उसका भी यथोचित विश्लेषण किया जाना चाहिए। विश्लेषण के अभाव में हमारे यहाँ कभी-कभी काफी भयंकर भूलें हुई हैं। और उनके दुष्परिणाम भारत को हजारों वर्षों तक भोगने पड़े हैं। अहिंसा सम्बन्धी गलत धारणाएँ हमारे समक्ष हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज का ज्वलंत उदाहरण है। कहा जाता है कि जब मोहम्मद गोरी भारत पर आक्रमण करने आया, उस समय भारत की शक्ति इतनी सुदृढ़ थी कि वह हार कर चला गया। वह फिर आया और फिर पराजित होकर लौट गया, फिर आया और फिर पराजित हुआ। इस प्रकार वह कई बार और पराजित हुआ। उस समय भारत की रणशक्ति बहुत बड़ी थीं। बड़े-बड़े रणबाँकुरे वीर थे यहाँ। अतः बार-बार उसे यहाँ आकर पराजित हो जाना पड़ा। किन्तु एक 80 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार उसे पता लग गया कि ये जो हिन्दू हैं, गाय पर आक्रमण नहीं करते। अतः उस धूर्त ने क्या काम किया कि अपने नये आक्रमण में सेना के आगे गायों को रखा । आगे-आगे गायें चल रही थीं और पीछे-पीछे उसकी सेनाएँ युद्ध के लिए बढ़ रही थीं। अब यहाँ के वीर राजपूत धर्माधर्म की विचित्र उलझन में पड़ गए। उनमें अद्भुत शक्ति थी लड़ने की। कई बार गोरी को हराया भी था। लेकिन इस बार वे गड़बड़ा गए कि भाई, युद्ध तो कर रहे हैं, लेकिन यदि किसी गाय को बाण लग गया और गाय मर गई तो गो-हत्या का पाप लग जाएगा । और यह बहुत बड़ा भयंकर पाप हेगा। बस, इधर वीर रापजूत गायों को बचाने के विचार में उलझ गए और उधर शत्रु को तो कोई मतलब था नहीं इन बातों से । लड़ाई होती रही। गायों को बचाने के लिए राजपूत पीछे हटते रहे, निर्णायक प्रत्याक्रमण नहीं कर सके। परिणाम यह हुआ कि आखिर राजपूत सेना, जो विजय प्राप्त कर सकती थी, जिसमें भरपूर ताकत थी लड़ने की और विजय प्राप्त करने की, वह पराजित हो गई और देश गुलाम हो गया। यहाँ यदि आप विश्लेषण करते हैं ठीक तरह से, तो विचार करना पड़ेगा कि यह जो गोहत्या के सम्बन्ध में चिन्तन था, वह कितनी गलत दिशा में था । वीर राजपुतों ने यह तो देखा कि वर्तमान में हमारे बाणों से सम्भव है कुछ गाये मर जाएँ, किन्तु उन्होंने भविष्य को नहीं देखा कि क्या होने वाला है? आनेवाले आक्रमणकारियों के लिए तो गाय-भैंस जैसा कुछ भी विचारणीय न था । यह सब तो उनके भक्ष्य ही थे। उन थोड़ी-सी गायों को मारने या बचाने के पाप पुण्य का अथवा हिंसा-अहिंसा का कोई मूल्य नहीं था उनकी दृष्टि में। अतः वे पूरी शक्ति से लड़े और जीते। इस युद्ध के सम्बन्ध में आप विचार करके देखेंगे तो आपको मालूम होगा कि उन थोड़ी बहुत गायों को बचाने का क्या अर्थ रहा? कुछ गायों की रक्षा के काम में वे पराजित हो गये देश गुलाम हो गया । इतिहास पर नजर डालिए, इसके बाद कितनी गोहत्याएँ हुईं, कितनी मानव हिंसाएँ हुई और कितने अनाचार - दुराचार और कितने पापाचार हुए हैं। देश मिट्टी में मिलता चला गया और भारत की भव्य संस्कृति, सभ्यता, कल्चर ( Culture) सब कुछ समाप्त होती चली गई। धर्म परम्पराओं को कितनी क्षति पहुँची । धर्म परम्पराओं को इस तरह से बर्बाद किया गया कि उनका निर्मल रूप ही विकृत हो गया । केवल गायों का ही सवाल नहीं रहा। हजारों माताओं और बहनों की बेइज्जतियाँ भी हुईं। यह हिन्दू और मुसलमान का सवाल नहीं रहा। इस प्रकार के सवालों धर्म - युद्ध का आदर्श 81 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है और न अपने आप में ये कोई अच्छे सवाल ही हैं। सवाल तो सिर्फ इतना है कि समय पर अन्याय का उचित प्रतिकार न करने से भविष्य में क्या होता है? हिन्दू हो या मुसलमान, कोई भी हो, अन्याय का प्रतिकार होना चाहिए, केवल वर्तमान की हिंसा या अहिंसा को न देखकर, उसके भविष्य कालीन दूरगामी परिणामों को देखना चाहिए। वर्तमान की सीमित दृष्टि कभी-कभी सर्वनाश कर डालती है। राजा चेटक का धर्मयुद्ध इस बड़ी और छोटी हिंसा के विश्लेषण को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं एक उदाहरण आपके समक्ष रख रहा हूँ-वह है कूणिक और चेडा राजा (राजा चेटक) के युद्ध का। भगवान् महावीर के समय का यह बहुत बड़ा भयानक युद्ध था, जिसका उल्लेख तत्कालीन धर्म परम्पराओं के साहित्य में है। सुप्रसिद्ध वैशाली गणतंत्र के मान्य अध्यक्ष राजा चेटक एक महान् बारह व्रतधारी श्रावक थे। दूसरी ओर मगध सम्राट कूणिक थे, जिसने कि वैशाली पर आक्रमण किया था। उक्त युद्ध के मूल में एक शरणागत का प्रश्न था। प्रसंग यह है कि कणिक अपने छोटे भाई के हक को छीन रहा था, उसकी स्वतंत्रता और सम्पत्ति को हड़प रहा था। राजकुमार पर भय छा गया। वह अपने बचाव के लिए चेटक राजा के पास पहुँच गया, शरणागत के रूप में। कूणिक को जब यह मालूम हुआ कि वह वैशाली में चेटक राजा के पास पहुँच गया है, तो उसने चेटक राजा को यह कहलवाया कि-"तुम उसको यों का यों वापस लौटाओ, अन्यथा , इसके लिए तुम्हें युद्ध का परिणाम भोगना पड़ेगा।" राजा चेटक ने शरणागत की रक्षा में युद्ध का वरण किया। भयंकर युद्ध हुआ, लाखों ही वीर काल के गाल में पहुँच गए। स्वयं चेटक नरेश भी वीरगति को प्राप्त हुए। अब प्रश्न है एक शरणागत की रक्षा का। अगर राजा चेटक उस एक शरणागत को लौटा देता, भले ही उसके साथ कुछ भी करता क्रुद्ध कणिक, तो लाखों ही लोगों के प्राणों की रक्षा हो जाती। यदि राजा चेटक हिंसा अहिंसा का वह विश्लेषण करता, जैसा कि आजकल कुछ लोग अपने मस्तिष्क में इस प्रकार की विचारधारा रखते हैं, तो उसके मुताबिक वह अवश्य ही राजकुमार को वापस लौटा देता। कह देता कि"भाई तू यहाँ चला तो आया है। लेकिन तेरी रक्षा कैसे कर सकता हूँ? तेरी एक की रक्षा में, लाखों आदमी युद्ध में मारे जाएँगे। एक के बचाने में लाखों आदमी मारे जाने पर तो बहुत बड़ी हिंसा हो जाएगी।" परन्तु राजा चेटक ने ऐसा कुछ 82 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं सोचा, ऐसा कुछ नहीं कहा। उसने शरणागत की रक्षा के लिए युद्ध किया, जो महाभारत जैसा ही एक भयंकर युद्ध था। अब सवाल यह है कि राजा चेटक बारह व्रती श्रावक है, उसका हिंसा-अहिंसा से सम्बन्धित चिन्तन काफी सूक्ष्म रहा है, प्रभु महावीर की वाणी सुनने का कितनी ही बार उसको सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वह कोई साधारण नरेश नहीं है, तत्कालीन वैशाली के विशाल गणतंत्र का चुना गया अध्यक्ष है। इसका अर्थ है कि वे अपने युग के एक महान् चिंतनशील व्यक्ति थे। उन्होंने हिंसा अहिंसा के प्रश्न को व्यक्तियों की संख्या पर हल नहीं किया। उन्होंने अपने ध र्म-चिन्तन के प्रकाश में स्पष्ट देखा कि यह शरणागत है, साथ ही निरपराध है, उसका कोई अपराध नहीं है, और उस निरपराध के हक को छीन रहा है मदान्ध कूणिक । अत: यह एक शरणागत का प्रश्न ही नहीं है, अपितु निरपराध के उत्पीड़न का भी प्रश्न हैं और इस तरह से शरण में आये को, पीड़ित जन को यदि कोई वापिस लौटा दे, ठुकरा दे तो उसे कहाँ आश्रय मिलेगा? कल्पना कीजिए, एक इंसान चारों तरफ से घिर जाता है, सब ओर से मौत आ घेरती है, भयंकर निराशा के क्षण होते हैं। उक्त निराशा के क्षणों में वह एक बड़ी शक्ति के पास पहुँचता है कि उसे शरण मिलेगी। लेकिन वहाँ उसे ठुकरा दिया जाता है, फिर दूसरी जगह जाता है, वहाँ से भी ठुकरा दिया जाता है। अब कल्पना कीजिए, उसको कितनी पीड़ा हो सकती है ! उस समय उसका मन कितना हताश हो जाता है। आँखों से आँसू बह रहे है, पर कोई पूछने वाला नहीं कि क्या बात है, क्यों रोता है? स्पष्ट है, इस स्थिति में दुनियाँ में न्याय का कोई प्रश्न ही नहीं रहा, किसी पीड़ित की रक्षार्थ करुणा और दया का कोई सवाल ही नहीं रहा। तो, इस तरह पीड़ित एवं अत्याचार से त्रस्त लोगों को समर्थ व्यक्ति भी धक्के देते रहें तो आपके इस अहिंसा और दयाधर्म का, इस धर्म और कर्मकाण्ड का क्या महत्त्व रह जाता है ? अभिप्राय यह है कि यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। यह एक का या हजार का सवाल नहीं है। वह एक व्यक्ति की हिंसा या दासता का सवाल भी नहीं है, बल्कि यह आदर्शों का सवाल है। यदि एक ओर एक उच्च आदर्श की हत्या होती है, दूसरी ओर आप हजार - लाख प्राणी बचा भी लेते हैं, तो उनका कोई मूल्य नहीं रहता है। क्योंकि आदर्श की हत्या सबसे बड़ी हत्या है। यदि आदर्श की हत्या हो जाती है, तो हजारों-लाखों वर्षों तक वह एक उदाहरण बनता धर्म- युद्ध का आदर्श 83 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चला जाता है अन्याय और अत्याचार का। और इस प्रकार के उदाहरण यदि संसार में बढ़ जाएँ, तो फिर तो संसार की कोई स्थिति नहीं रहेगी। वैशाली के उपुर्यक्त युद्ध की एक बात विचारणीय यह है कि चेटक और कूणिक दोनों युद्ध करते हैं। दोनों ओर से हिंसा होती है, भयंकर नरसंहार होता है, लेकिन राजा चेटक भयंकर युद्ध में वीर गति प्राप्त करता है और मरकर स्वर्ग में जाता है। और राजा कूणिक जब मरता है, तो आप जानते है, कहाँ जाता है? नरक में। क्या बात है कि एक ही चीज के दो विभिन्न परिणाम होते हैं। युद्ध एक ही लड़ा गया, लेकिन दो परस्पर विरोधी नतीजे कैसे आये? दोनों ने भरपूर हिस्सा लिया युद्ध में दोनों बराबर के साक्षीदार हैं युद्ध के। और जब दोनों साझीदार हैं युद्ध के, तो फिर परिणाम भिन्न-भिन्न कैसे आ गए? नतीजे अलग-अलग कैसे आए? तो स्पष्ट है कि ये जो भिन्न-भिन्न नतीजे आये हैं, ये आए हैं हिंसा और अहिंसा के विश्लेषण के आधार पर। अभिप्राय यह है कि शरणागत की रक्षा करना धर्म है। क्योंकि वह भय से त्रस्त होता है, अन्याय से आक्रान्त होता है, मौत उसके सिर पर बुरी तरह मँडरा रही होती है। वह किसी के पास रक्षा पाने के लिए जाता है। अब बात यह है कि उसकी रक्षा करना क्या है? एक आदर्श की रक्षा करना है, एक नैतिक पक्ष का समर्थन करना है। जो पीड़ित है, भय से त्रस्त है, दुःखित है, निरपराध है, बेचारे ने कोई दोष किया नहीं है, उसको आश्रय देना आवश्यक है। हमारी भारतीय परम्परा का यह आदर्श है बहुत बड़ा। और भारतीय परम्परा ही क्यों, सारी मानवता का आदर्श है यह। आप जिसे मानवता कहते हैं, जिसे इंसानियत कहते हैं, यह उसका आदर्श है। तो, राजा चेटक ने इस आदर्श की रक्षा की, इसलिए वह स्वर्ग में गया। और कूणिक जो लड़ा, वह लड़ा किसके लिए? अपने स्वार्थ के लिए, अपने अहंकार के लिए और अन्याय-अत्याचार के द्वारा अपने भाई का हक छीनकर उसे बर्बाद करने के लिए, एक सर्वथा निकृष्ट आधार पर लड़ा है। अतः वह जैन शास्त्रानुसार नरक में जाता है। प्रश्न है दोनों में से धर्मयुद्ध किसने लड़ा? राजा चेटक ने धर्मयुद्ध लड़ा। इसलिए वह स्वर्ग में गया है और कूणिक ने भी युद्ध को लड़ा, लेकिन वह अधर्मयुद्ध लड़ने के कारण नरक में गया है। यह बात यदि आपके ध्यान में स्पष्ट हो जाती है, तो विचार कीजिए कि हिंसा और अहिंसा के प्रश्न केवल बाहर में नहीं सुलझाए जाते हैं, वे सुलझाये जाते हैं अन्दर में, अन्दर के चिंतन में। प्रवृत्ति का मूल वृत्ति में है. अतः वृत्ति में ही हिंसा-अहिंसा का विश्लेषण होना चाहिए। 84 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरणागत रक्षा: आज के सन्दर्भ में जैसा कि आपने ऊपर राजा चेटक की शरणागत वत्सलता की बात देखी है, आज भी वह बात ज्यों की त्यों है आपके समक्ष । और तब तो केवल एक शरणागत का सवाल था और अब तो एक करोड़ के लगभग प्रताड़ित, अतएव विस्थापित बंगाली शरणार्थियों का सवाल है । विचार कीजिए, इन शरणार्थियों में माताएँ भी हैं, बहनें भी हैं, बुड्ढे भी हैं, बच्चे भी हैं, बच्चियाँ भी हैं, नौजवान भी हैं। क्रूर पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा भयंकर मौत उन सबके सिर पर मँडरा रही है, और सिर्फ मौत ही नहीं, उनके नैतिक आदर्शों की भी हत्या हो रही है। मानवता को लजा देने वाले दुराचार हो रहे हैं, विभिन्न प्रकार के पापाचार हो रहे हैं। उन्हें एक पशु के समान भी नहीं समझा जा रहा है। यदि कोई पशु को मारता है, तो थोड़ी-बहुत दया तब भी रखी ही जाती है। पशुहत्या के सम्बन्ध में भी कुछ नियम हैं कि उनका क्रूरतापूर्ण वध नहीं होना चाहिए। लेकिन इन विस्थापितों के प्रति तो इतनी निर्दयता की गई कि घर-बार सब कुछ छोड़कर वे यहाँ आये ? स्पष्ट है, भयत्रस्त व्यक्ति जायेगा कहाँ ? वहीं तो जाएगा, जहाँ उसे शरण पाने का भरोसा होगा ! कुछ लोग कहते हैं कि भारत सरकार ने प्रधानमंत्री इन्दिराजी ने गलती की, जो इन सबको अपने यहाँ रख लिया । न रखते, न झगड़ा होता और न युद्ध की नौबत आती । बेकार का सिरदर्द मोल ले लिया । मैं पूछता हूँ, बंगाल के विस्थापित यहाँ भारत में कैसे आए? पीछे से उन पर गोली चलाई जा रही थी। अतः प्राण के रक्षा के लिए भारत के द्वार पर आए। और किसी तरह से तो वे रुक नहीं सकते थे। यदि इधर से भी बंदूक तान दी जाती कि खबरदार इध र आए तो। पीछे लौटो, नहीं तो गोली मार दी जाएगी ! विचार कीजिए, ऐसी स्थिति में, जब कि पीछे से गोली चल रही हो और आगे से भी गोली चलने लगे, तो बेचारा शरणागत कहाँ जाए? क्या करे? ऐसी स्थिति में आपका धर्म क्या कहता है ? आपकी मानवता क्या कहती है ? भारतवर्ष की संस्कृति और सभ्यता को आदिकाल से ही अपने इस शरणागत रक्षा के धर्म पर गौरव है। इसी पर हिन्दू धर्म को गौरव है, जैनधर्म को गौरव है और जितने भी अन्य धर्म हैं - सबको गौरव है । और, जिसके सम्बन्ध में हम सब लाखों वर्षों से बड़े-बड़े गर्वीले नारे लगाते आ रहे हैं तो क्या अब वर्तमान स्थिति में भारत अपने उस शरणागत रक्षा के पवित्र धर्म को तिलांजलि धर्म-: - युद्ध का आदर्श 85 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे दे? नहीं, यह नहीं हो सकता। हिंसा और अहिंसा की गलत धारणाओं के चक्र में उलझकर जो धर्म बंगलादेश की प्रस्तुत समस्या से अपने को तटस्थ रखने की बात करते हैं, तो मैं पूछता हूँ, वे धर्म हैं, तो किसलिए हैं? उनका मानवीय मूल्य क्या है? क्या उनका मूल्य केवल यही है कि कीड़े-मकोड़े को बचाओ, छापे-तिलक लगाओ, मंदिर में घण्टा बजाओ, भजन-पूजन करो। यह सब तो साधना के बाह्यरूप भर हैं। यदि मूल में मानवता नहीं है तो यह सब मात्र एक पाखण्ड बनकर रह जाता है। सच्चा धर्म मानवता को विस्मृत नही कर सकता। कौन ध र्म ऐसा कहता है कि द्वार पर आने वाले उत्पीड़ित शरणार्थियों का दायित्व न लिया जाए? उन्हें आश्रय न दिया जाए? कहा है कि एक व्यक्ति, जो कि किसी को पीड़ित कर रहा है, वह पाप कर रहा है। लेकिन पीड़ित व्यक्ति अपनी प्राण रक्षा के लिए बहुत बड़े भरोसे के भाव से किसी के पास शरण लेने के लिए आए और यदि वह उस शारणागत की रक्षा के लिए प्रयत्नशील नहीं होता है, तो वह उस उत्पीड़क से भी बड़ा पापी है, जिसने कि अत्याचार करके उसको मार भगाया है। एक त्रस्त व्यक्ति विश्वास लेकर आपके पास आया है कि यहाँ उसकी सुरक्षा होगी और उसी विश्वास का आपकी ओर से यदि घात हो जाए, तो कल्पना कीजिए, उसकी कितनी भयावह स्थिति होती है ! समर्थ होते हुए भी आपने उसके लिए कुछ किया नहीं, उलटा उसे धक्का दे दिया, तो यह एक प्रकार का विश्वासघात ही तो हुआ। और विश्वासघात बहुत बड़ा पाप है। किसी को अभय देना, एक महान् धर्म है और अभय देने से किसी भयाक्रान्त को इन्कार कर देना बहुत बड़ा अधर्म है। बंगलादेश के एक करोड़ के लगभग पीड़ित विस्थापितों को अभय देकर भारत ने वह महान् सत्कर्म किया है, जो विश्व इतिहास में अजर-अमर रहेगा। यह बहुत बड़ी दैवी कृपा हुई कि बंगलादेश के पीड़ितों ने आपके ऊपर भरोसा किया। और, यह जानी हुई बात है कि भरोसा किसी साधारण व्यक्ति पर नहीं किया जाता। पास में अन्य देश भी थे, लेकिन वहाँ पर कोई नहीं गया, सभी भारत में ही आए। क्यों आए? इसका तात्पर्य यह है कि इसका गौरव उन्होंने एकमात्र आपको दिया। उनको भरोसा था कि वहाँ भारत में उनकी ठीक-ठीक रक्षा होगी। और इतना बड़ा विश्वास लेकर कोई जनता आए और फिर उसे आप ठुकरा दें, धक्का दे दें, तो यह कितना बड़ा पाप है? आप भाग्यशाली थे कि आप 86 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से यह पाप न हुआ। भारत की सांस्कृतिक परम्परा का उज्ज्वल गौरव आपके हाथों में सुरक्षित रहा। आप वैयक्तिक तुच्छ स्वार्थों के अन्धकार में नहीं भटके। बहुत बड़ा दायित्व अपने ऊपर लिया और उसे प्रसन्नता से निभाया। अभिप्राय यह है कि ऐसा समय इतिहास में कभी-कभी ही आता है। जैसा कि मैंने बताया, चेटक ने तो एक शरणागत की रक्षा के लिए इतना बड़ा भयंकर युद्ध किया। हिंसा हुई, फिर भी भगवान् महावीर कहते हैं कि वह स्वर्ग में गया और आपने तो लाखों-करोड़ों इन्सानों की रक्षा की है, और इसी कारण आपको यह युद्ध भी करना पड़ा है, अन्यथा आपके सामने तो युद्ध का कोई सवाल ही नहीं था। भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी, समूची राष्ट्र शक्ति को साथ लिए आज जो जूझ रही हैं, उसके मूल में उन्हीं पावन भारतीय आदर्शों की रक्षा का प्रश्न है। कहना तो यों चाहिए कि ढाई हजार वर्ष बाद इतिहास ने अपने आपको दुहराया है। यानी भगवान् महावीर के युग की वह घटना आज फिर से दुहराई जा रही है और यदि महावीर आज धरती पर होते तो क्या निर्णय देते इस सम्बन्ध में? प्रभु महावीर आज धरती पर निर्णय देने को नहीं हैं, तो क्या बात है? उनका जो निर्णय है, वह हमारे सामने है। आज जो फैसला लेना है, उनके द्वारा वह फैसला दिया ही जा चुका है। इसका अर्थ यह है कि वर्तमान के नये जजों के फैसले में अतीत के पुराने जजों के फैसले निर्णायक होते है। अभिप्राय यह है कि भगवान् महावीर ने जो फैसला दिया था, कि राजा चेटक स्वर्ग में गया और कूणिक नरक में-बिलकुल स्पष्ट है कि यदि आज के इस संघर्ष को लेकर इंदिराजी के सम्बन्ध में पूछे तो प्रभु महावीर का वही उत्तर है, जो वे ढाई हजार वर्ष पहले ही दे चुके हैं। तात्पर्य यह है कि यह युद्ध शरणागतों की रक्षा का युद्ध है, अतः भारतीय चिन्तन की भाषा में धर्मयुद्ध है और धर्मयुद्ध अन्ततः योद्धा के लिए स्वर्ग के द्वार खोलता है-'स्वर्गद्वारमपावृतम्'। यह वह केन्द्र है, जहाँ भारत के प्रायः सभी तत्त्वदर्शन और धर्म एकमत हैं। मैं यह जो विश्लेषण कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ? इसका कारण यह है कि अहिंसा-हिंसा के विश्लेषण का दायित्व जैन समाज के ऊपर ज्यादा है, चूँकि जैन परम्परा का मूलाधार ही अहिंसा है। भगवान् महावीर ने अपने तत्त्वदर्शन में हिंसा और अहिंसा का विश्लेषण किस आधार पर किया है? भगवान् के अहिंसा दर्शन की आधारशिला कर्ता की भावना है। बात यह है कि ये जो युद्ध धर्म-युद्ध का आदर्श 87 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं, हिंसाएँ होती हैं, आदमी मरते हैं, इन सबको गिनने का कोई सवाल नहीं है। सवाल तो सिर्फ यह है कि आप जो युद्ध कर रहे हैं, वह किस उद्देश्य से कर रहे हैं। आपके संकल्प क्या है? आपके भाव क्या हैं? आपका आन्तरिक परिणमन क्या है? राम युद्ध करते हैं, रावण से। राम का क्या संकल्प है? नारी जाति पर होने वाले अत्याचारों का प्रतिकार करना ही तो ! राम के समक्ष एक सीता का ही सवाल नहीं है अपितु हजारों पीडित सीताओं के उद्धार का सवाल है। राम एक आदर्श के लिए लड़ते हैं। और रावण जो युद्ध कर रहा है, उसका क्या संकल्प है? उसका संकल्प है वासना का, दुराचार का। पाण्डव युद्ध कर रहे हैं श्रीकृष्ण के नेतृत्व में किसलिए? केवल अपने न्यायप्राप्त अधिकार के लिए। दूसरी ओर दुर्योधन भी युद्ध कर रहा है। किन्तु वह किस संकल्प से कर रहा है? पाण्डवों के न्याय प्राप्त अधिकारों को हड़पने के लिए। ये सारी चीजें विचार करके यदि आप देखेंगे तो इन सबका निर्णय अन्तर्जगत् के अन्दर जाकर हो जाता है। अंतर्जगत् के अंदर क्या परिणमन है, यह है विचारणीय प्रश्न ! जैसा कि मैंने पहले बताया है कि कभी द्रव्य हिंसा होती है, भावहिंसा नहीं होती। कभी भावहिंसा होती है, द्रव्यहिंसा नहीं होती। कभी दोनों ही होती हैं। उक्त चर्चा में भाव हिंसा ही वस्तुतः हिंसा का मूलाधार है। और भावहिंसा में भी हमें यह देखना पड़ेगा कि बड़ी हिंसा को रोकने के लिए, जो छोटी हिंसा कर रहे हैं, वह आवश्यक है या अनावश्यक? स्पष्ट है कि जीवन में कुछ प्रसंग ऐसे आते हैं कि यह बिल्कुल आवश्यक हो जाती है। बहुत बड़े अत्याचार, अनाचार, दुराचार, अन्याय एवं अधर्म को रोकने के लिए विचारों को छोटी हिंसा का आश्रय लेना ही होता है। समाज और राष्ट्र के प्रश्न का समाधान यों ही बेतुकी बातों से कभी नहीं होता है। हिंसा केवल शरीर की ही हिंसा तो नहीं है। मन की हिंसा भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। विचार कीजिए कि जब देश गुलाम हो जाए और जनता पराधीनता के नीचे दब जाए, तो ऐसी स्थिति में उसके शरीर की हिंसा ही नहीं, सबसे बड़ी मन की हिंसा भी होती है। पराधीन जनता का मानसिक स्तर, बौद्धिक स्तर, जीवन के उदात्त आदर्श, गुलामी के अन्दर इस तरह से पिस-पिसकर खत्म हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं कि वह केवल एक मृत ढाँचा भर रह जाता है। पराध नि राष्ट्र के धर्मों, परम्पराओं एवं संस्कृतियों के अन्दर से प्राण निकल जाते हैं, और वे केवल सड़ती हुई लाश भर रह जाते हैं। भारत यह सब देख चुका है। .88 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँधी युग फिर दुहराया है सभी जानते है कि जब विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा भारत पर आक्रमण हुआ, तब देश कितना पददलित हुआ था। कितने निम्न स्तर पर चला गया था और किस प्रकार हमारी नैतिक चेतना शमित हो गई थी ! यह जो फिर से दोबारा जान आई है देश के अन्दर। आप सबको मालूम है, वह गाँधीजी द्वारा आई है। अन्याय-अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए आवाज उठी है, जनता में नई प्रेरणाएँ जगीं, अहिंसा एवं सत्य के माध्यम से स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा गया और विश्व की एक बहुत बड़ी शक्ति-ब्रिटिश साम्राज्य को पराजित कर राष्ट्र स्वतंत्र हुआ। और सौभाग्य की बात है कि स्वतंत्रता का युद्ध लड़ने वाला सेनापति अपने युग का एक महान् अहिंसावादी था। पर, वह ऐसा अहिंसावादी था, जो अहिंसा के मूल अर्थ को समझता था। वह अहिंसा के प्रचलित सीमित अर्थ तक ही नहीं रुका हुआ था, बल्कि वह अहिंसा को भूत, भविष्य, वर्तमान के व्यापक धरातल पर परखता था। अहिंसा के विस्तृत आयाम पर गाँधीजी की दृष्टि थी। यही कारण है कि जब काश्मीर पर प्रथम पाकिस्तानी आक्रमण हुआ, तो उनसे पूछा गया कि काश्मीर की रक्षा के लिए सेनाएँ भेजी जाएँ या नहीं? तो उन्होंने यह नहीं कहा कि सेना न भेजो, यह हिंसा है, यदि कुछ करना है तो वहाँ जाकर सत्याग्रह करो। ऐसा क्यों नहीं कहा उन्होंने? इसलिए कि सत्याग्रह सभ्य पक्ष के लिए होता है। विरोध । भले ही हो, किन्तु सभ्य विरोधी सत्याग्रह जैसे सात्त्विक प्रयासों से प्रभावित होता है। परन्तु जो असभ्य बर्बर होते हैं, उनके लिए सत्याग्रह का कोई मूल्य नहीं होता। खूख्वार भेड़ियों के सामने सत्याग्रह क्या अर्थ रखता है? ब्रिटिश जगत् कुछ और था, जिसके सामने सत्याग्रह किया गया था। वह फिर भी एक महान् सभ्य जाति थी! किन्तु याह्याखाँ और उसके पागल सैनिकों के समक्ष कोई सत्याग्रह करे, तो उसका क्या मूल्य हो? याह्याखाँ का क्रूर सैनिक दल बाँगला देश में मासूम बच्चों का कत्ल करता है, महिलाओं के साथ खुली सड़कों तक पर बलात्कार करता है, गाँव के गाँव जलाकर राख कर डालता है, हर तरफ निरपराध बच्चे, बूढ़े, नौजवान और स्त्रियों की लाशें बिछा देता है, इसका मतलब यह कि वह युद्ध नहीं लड़ रहा है। वह तो हिंसक पशु से भी गई-बीती स्थिति पर उतर आया है। प्रश्न है, इस अन्याय के प्रतिकार के लिए क्या किया जाए? अहिंसा धर्म-युद्ध का आदर्श 89 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की दृष्टि से विचार करें तो क्या होना चाहिए? युद्ध या और कुछ? क्रूर दरिंदों के समक्ष और कुछ का तो कुछ अर्थ ही नहीं रह गया है। युद्ध ही एक विकल्प रह गया है, जो चल रहा है। यह आक्रमण नहीं, प्रत्याक्रमण है। और, जैसा कि चेटक और कूणिक का उदाहरण आपके सामने रखा कि चेटक युद्ध करके स्वर्ग में गया है, चूँकि उसने शरणागत की रक्षा के लिए आक्रमणकारी से धर्मयुद्ध लड़ा था, और कूणिक युद्ध करके नरक में गया है, चूँकि उसने न्यायनीति को तिलांजलि देकर अधर्मयुद्ध लड़ा था। आज आपके सामने ठीक वही प्रश्न यथावत है कि आप भी शरणागतों की रक्षा के प्रश्न पर युद्ध के लिए ललकारे गये हैं, युद्ध करने को विवश किये गये हैं। प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने बड़े धैर्य से काम लिया है, करोड़ों विस्थापितों का वह भार उठाया है, जो देश के अर्थतंत्र को चकनाचूर कर देता है। आठ-आठ महीने प्रतीक्षा की है कुछ सुधार हो जाए, विश्व के प्रमुख राष्ट्रों को जा-जाकर सही स्थिति समझाई है। परन्तु जब कुछ भी परिणाम नहीं आया और पाकिस्तान की दु:साहसी सैनिक टोली ने रणभेरी बजा ही दी, तो इन्दिराजी ने भी उत्तर में रण दुन्दुभी बजा दी है, भारत के नौजवान सीमा पर जूझ रहे हैं। युद्ध हो रहा है। भारतीय तत्त्वचिन्तन के आधार पर यह धर्मयुद्ध है और अन्ततः विजय धर्मयुद्ध की ही होती है। “यतो धर्मस्ततो जयः"-जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। 'सत्यमेव जयते, नानृतम्' सच्चाई की ही विजय होती है, झूठ की नहीं। 90 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नही होता ? क्या विद्युत अग्नि है? आज से लगभग पैतीस वर्ष पहले की बात है; अजमेर में बड़े समारोह के साथ साधु सम्मेलन हुआ था। मैं भी उसमें गया था, प्रतिनिधि के रूप में नहीं, गुरुदेव की सेवा में एक साधारण शिष्य के रूप में। ध्वनिवर्धक का प्रश्न आया तो कुछ मुनि बोल गए, और कुछ नहीं बोले । बस, तभी से ध्वनिवर्धक का प्रश्न उलझ गया। संघ में उस समय बड़े-बड़े नामी-गिरामी महारथी थे, परन्तु किनारे का निर्णय नहीं कर सके। और प्रश्न अधिकाधिक जटिल होता गया । अनिश्चय की परम्परा आगे बढ़ चली इसके बाद तो सादडी सम्मेलन हुआ, सोजत सम्मेलन हुआ और फिर भीनासर (बीकानेर) सम्मेलन । ध्वनिवर्धक का प्रश्न अधर में लटकता रहा । भीनासर में इस सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पास हुआ, बिलकुल बेकार का । न पुत्रो न पुत्री । न इधर न उधर । सैद्धान्तिक एवं वैज्ञानिक चर्चा होकर निर्णय होना चाहिए था । वैसा तो कुछ हुआ नहीं। बस, आप मान जाइए, आप मान लीजिए । संगठन को कायम रखना है। यह टूट न जाए। और इस प्रकार संगठन के व्यामोह में लूला-लंगड़ा प्रस्ताव पास हो गया, जो अब तक परेशान कर रहा है- विरोधी और अनुरोधी दोनों ही पक्षों को। भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो व्याधिः । स्वयं मेरी अन्तरात्मा में कितनी ही बार मुझसे पूछा है - ' तूने यह सब क्या किया ? सिद्धान्तहीन समझौता कैसे कर गया तू?' क्या उत्तर दूँ मैं? बस, यही कि संगठन की धुन सवार थी मन मस्तिष्क पर । जैसे भी हो, संगठन बना रहे, यही एकमात्र व्यामोह था उन दिनों। यदि वह संगठन बना रहता, तब भी मन को कुछ संतोष तो रहता । पर, वह भी कहाँ रहा? देर-सबेर एक-एक कर के साथी बिखरते और बिखरते गए। और, संगठन केवल संगठन के नाम पर जिंदा रहा। और वह अब भी इसी नारे के बल पर जिंदा है। 91 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितनी बड़ी विचार दरिद्रता? मैं विचार करता हूँ-यह सब क्या है, क्यों है? कितना लम्बा समय गुजर गया। हम नौजवान से बूढ़े हो गए, ओर बूढ़े परलोकवासी हो गए। गंगा का अरबों टन पानी बहकर सागर में पहुँच गया। विश्व की राजनीतिक स्थितियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गई। और हम है कि जहाँ के तहाँ खड़े हैं। जहाँ के तहाँ भी नहीं, कुछ पीछे ही लौटे हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि हम कुछ विचार दरिद्र हैं, अच्छी तरह सिद्धांत और स्थिति का जायजा नहीं ले सकते! खुले मन मस्तिष्क से सोचने-समझने के हम आदी नहीं हैं। हमारा धर्म इतना दुर्बल है कि वह विरोधी विचार सुनने मात्र से घबराता है, कतराता है। जो विचार अपने ध्यान में नहीं बैठता हो तो उसका प्रतिवाद भी हो सकता है। प्रतिवाद करना बुरा नहीं, परन्तु हमारे यहाँ तो प्रतिवाद का अर्थ विचार के बदले गालियाँ देना है। इधरउधर काना-फूसी में गालियाँ दें, या अखबारों में, बात एक ही है। और इसका परिणाम होता है कि कितनी ही बार समझदार व्यक्ति सब कुछ समझकर भी सत्य के समर्थन के लिए समाज के सामने नहीं आते। चुप होकर बैठे रहते हैं-अपनी इज्जत बचाने के लिए। इतना आतंक है इन रूढ़िचुस्त महाप्रभुओं का। ध्वनिर्धक का प्रश्न क्यों अटकता रहा? ध्वनिवर्धक का प्रश्न कुछ तो वस्तु स्थिति को न समझने के कारण अटका हुआ है, और कुछ इधर-उधर के बौखलाये हुए लोगों के आतंक के कारण। एक बात और भी है, कुछ लोगों ने इसे शुद्ध आचार का मापदण्ड ही बना लिया है। कुछ महानुभाव तो वस्तुतः प्रचलित मान्यताओं के कारण भ्रम में हैं, फलतः विद्युत् को अग्नि समझते हैं, वह भी सचित्त। और इस कारण हिंसा भय से ध्वनिवर्धक पर नहीं बोल रहे हैं। परन्तु मुझे तरस तो आता है उन लोगों पर, जो चरित्रहीन हैं। साधुता तो क्या, नैतिकता का धरातल भी जिनके पास नहीं है। वे भी ध्वनिवर्धक प्रश्न पर अपने को शुद्ध संयमी प्रमाणित करने के लिए पाँच सवारों में अपने आपको गिनाने लगते है। जब किसी बाहर की साधारण बात को शुद्धाचार का मापदण्ड घोषित कर दिया जाता है, तो प्रायः ऐसा ही होता है। इस तरह की स्थिति में ऐसे लोगों की खूब बन आती है, बड़ी सस्ती पूजा-प्रतिष्ठा मिल जाती है। ये लोग संयम की रक्षा के दर्दीले नारे लगाते हैं, और भावुक जनता को धर्म के नाम पर आसानी से बेवकूफ बनाते हैं। 92 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथाकथित अहिंसाव्रती संयमी मुनिराजों के काष्ठ पात्रों के लिए हरे वृक्ष कट सकते है।' साधुओं के निमित्त खरीदे हुए पात्र आवश्यकतानुसार सामान्य रूप से दीक्षा के बहाने ग्रहण किए जा सकते हैं। शिष्यों को अध्ययन कराने के लिए पंडितों के रूप में निजी नौकर रखे जा सकते हैं। पत्र व्यवहार आदि के लिए स्थायी नौकर के रूप में पी.ए. या क्लर्क की नियुक्तियाँ भी हो सकती है। अपने या दिवंगत गुरुजनों के नाम पर संस्थाएँ खड़ी की जा सकती हैं और उनके लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष अपने प्रभाव का उपयोग कर लाखों की संपत्ति भी जमा की जा सकती है। तार, टेलीफोन, पत्र व्यवहार हो सकता है। अर्थहीन पुस्तकें छप सकती हैं। हजारों दर्शनार्थी इकट्ठे किए जा सकते हैं। शिष्य बनाने के लिए काफी बड़ी रकमें दिलाई जा सकती हैं। दिनभर एक-दूसरे की झूठी निन्दा-बुराई का बाजार गर्म रख सकते हैं। जाने दीजिए –और भी बहुत कुछ ऐसी-वैसी बातें होती रहती हैं। मेरे महानुभावों का इन सबमें तो संयम नहीं जाता, संयम जाता है केवल ध्वनिवर्धक से और इसका दर्द एक बहुत बड़ा दर्द है, उनके मन में। संयम का खटका जो ठहरा। ___ कुछ गृहस्थ भी ऐसे हैं, जिनकी मानसिक स्थिति बड़ी विचित्र है। दुकानें चलती हैं, कारखाने धड़ल्ले से चलाये जाते हैं, घर पर बाल-बच्चों की भीड़ है और इसके लिए चौका-चुल्हा-चक्की सब चलता है। रेल, मोटर, तांगा, रिक्शा, जहाज सब सवारियों का उपयोग होता है। क्या करते हैं, क्या बोलते हैं, कोई खास विचार नहीं। परन्तु भाषण देने खड़े होते हैं, तो ध्वनिवर्धक सामने आते ही बिदक जाते हैं। वहाँ उनका श्रावकत्व सुदूर आसमान पर चढ़ जाता है। कुछ नहीं, विचार शून्य आचार एक तमाशा बन गया है। जैन परम्परा का इससे बढ़कर और क्या उपहास होगा? अब जनता सब समझने लगी है, कम से कम शिक्षित तो समझने लगे हैं। ये संयम के नाम पर दम्भ के प्रदर्शन कुछ लोगों को ही भुलावे में डाल सकते हैं। खेद है, ध्वनिवर्धक के साधारण से प्रश्न को कितना तूल दे दिया गया है। यह तो एक बड़ा महाभारत ही हो गया। सत्य स्थिति क्या है, इधर कुछ ध्यान ही नहीं दिया जाता। मैं जानता हूँ, मुझसे कुछ महानुभाव नाराज तो होंगे ही, पर मैं अपने विचार प्रकट कर ही देना चाहता हूँ। ताकि वास्तविकता क्या है, इसका कुछ थोड़ा-बहुत अता-पता सर्वसाधारण जनता को लगे तो सही। ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है? 93 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिवर्धक का प्रश्न कहाँ उलझा है ? ध्वनिवर्धक के यंत्र से को आपत्ति नहीं है। आपत्ति है उसमें प्रयुक्त होने वाली विद्युत् से। विद्युत् क्या है, यह तो ठीक तरह वैज्ञानिकों से मालूम किया नहीं। और कुछ पुराने वचनों से और कुछ अपनी कल्पित धारणाओं से विद्युत् को अग्नि समझ लिया, वह भी सचित्त अर्थात् सजीव ! और प्रश्न उलझ गया कि सचित्त अग्नि का उपयोग कैसे किया जाए ? इधर-उधर से ऊपर के कितने ही समाधान करें, पर मूल प्रश्न अटका ही रहता है। वैसे तो मार्ग में आये सचित्त नदीजल को पैरों से पार कर सकते हैं, गहरा पानी हो तो नौका से पार कर सकते हैं। जल के असंख्य जीव हैं, फिर अग्नि को छोड़कर अन्य सब काया के जीव हैं, अनन्त - निगोद जीव हैं, पंचेन्द्रिय त्रस प्राणी तक हैं। यह सब अपवाद के नाम पर हो सकता है। । परन्तु ध्वनिवर्धक का अपवाद नहीं। विद्युत् की अग्नि जरूरत से ज्यादा परेशान कर रही है । मैं इसी परेशानी पर विचार कर रहा हूँ । विद्युत् क्या है, इसी पर कुछ प्रकाश डालना है आज। विद्युत् : अतीत की नजरों में प्राचीन से प्राचीन भारतीय साहित्य अध्ययन की आँखों से गुजरा है। वेद, उपनिषद् और पुराण | जैन आगम और त्रिपिटक । कहीं पर भी धरती पर की इस विद्युत् का जिक्र नहीं है। धरती पर यह आविष्कार तब हुआ ही नहीं था, जिक्र होता भी कैसे ? प्राचीन काल के लोगों को आकाशगत वायुमंडल की विद्युत् का ही ज्ञान था और वे उसे एक दैवी प्रकोप समझते थे। मेघ को देव एवं इन्द्र कहते थे, और बिजली को उसका वज्र । आकस्मिक विपत्ति के लिए अनभ्र वज्रपात की जो उक्ति प्रचलित है, वह इसी वज्र की धारणा पर आधारित है। पुराणों में विद्युत् को देवी माना गया है। आजकल भी कुछ आदिवासी जैसे अविकसित या ग्रामीण मनुष्य ऐसे हैं, जो इसे दैवी प्रकोप ही समझते हैं। और बहुत से तो बड़ी रोचक कहानियाँ आकाशीय विद्युत् के विषय में बतलाते हैं। मैंने स्वयं देखा है, जब बिजली कड़कती है तो भोले ग्रामीण अपने इष्टदेव का नाम लेते हैं और रक्षा के लिए दुहाई देते हैं। ये सब बातें सिद्ध करती है कि पुराने युग में मनुष्यों को बादलों की बिजली का ही ज्ञान था और उसके सम्बन्ध में उनकी विचित्र कल्पनाएँ थीं। उन्हीं कल्पनाओं में यह भी एक कल्पना थी कि बिजली अग्नि है। जल उसका ईंधन है, और वह बादलों की आपस की टकराहट • 94 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पैदा होती है। हालाँकि बादल कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो परस्पर टकराए। वह तो एक प्रकार की भाप है, और कुछ नहीं । दूरस्थ चमकती वस्तु के सम्बन्ध में तब का साधनहीन मनुष्य कल्पना ही कर सकता था । और वह उसने की भी । वह कल्पना सही थी या गलत, यह बात दूसरी है । विद्युत् : विज्ञान की नजरों में विद्युत् एक शक्ति अर्थात् ऊर्जा है। अत: उसका वास्तविक स्वरूप आधुनिक प्रत्यक्ष प्रमाणित विज्ञान की आँखों से ही देखना चाहिए। लगभग 600 वर्ष पूर्व यूनान के दार्शनिक थेल्स ने बतलाया था कि अम्बर एक ऐसा पदार्थ है जिसे रेशम, ऊन या फलालेन से रगड़ दिया जाए तो उसमें हलकी वस्तुओं को, अर्थात् कागज के छोटे टुकड़ों व तिनकों को खींच लेने की अद्भुत आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है। प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि वस्तुओं को आपस में रगड़ने से वे विद्युन्मय हो जाती हैं। इस प्रकार का प्रयोग यदि काँच की छड़ को रेशम से रगड़ कर या आवनूस की छड़ को फलालेन से रगड़ कर करें, तो देखा जा सकता है कि इनमें आकर्षण का गुण उत्पन्न हो जाता है। प्लास्टिक को शिर के बालों में रगड़ कर कागज के टुकड़ों के आकर्षण का खेल तो आज जब चाहें तब देख सकते हैं। इस प्रकार गुण सर्वप्रथम अम्बर से प्राप्त हुआ था, जिसे यूनानी भाषा में 'इलैक्ट्रान ' कहते हैं। अतः इस शब्द से 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का जन्म हुआ, जिसे हम संस्कृत भाषा में विद्युत् और प्रचलित हिन्दी भाषा में बिजली के नाम से पुकारते हैं। घर्षण द्वारा आकर्षण बल का समावेशन केवल अम्बर ( एम्बर) में ही नहीं, बल्कि गंधक, काँच, चमड़ा आदि अन्य वस्तुओं में भी आ जाता है। चूँकि यह विद्युत् घर्षण (रगड़) से उत्पन्न होती है, अतः इसे घर्षण विद्युत् कहते हैं। विद्युत् दो प्रकार की है - धन (पोजेटिव) और ऋण (निगेटिव)। दोनों विद्युत् परस्पर भिन्न हैं। समान प्रकार की विद्युन्मयी वस्तुओं में परस्पर प्रतिकर्षण होता है तथा विभिन्न एवं विपरीत प्रकार की विद्युन्मयी वस्तुओं में आकर्षण ।' आकाश की विद्युत् का ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वप्रथम वैज्ञानिक विश्लेषण फ्रेंकलिन (सन् 1752 ई.) ने किया था। बादल छाये हुए थे, वर्षा हो रही थी, बिजली चमक रही थी। फ्रेंकलिन ने लोहे का एक नुकीला तार बाँधकर हवा में ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है ? 95 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतंग उड़ाई और डोरी के नीचे के सिरे में एक चाबी बाँध दी। जब पतंग की डोरी भींग गई और बादल पतंग के पास से निकले तो बादलों की विद्युत् डोरी में होकर चाबी में आ गई। चाबी के पास अंगुली लाने से करेंट (Current) की अनुभूति होने लगी। इस प्रयोग से फ्रेंकलिन ने यह सिद्ध किया कि आकाशीय विद्युत् ठीक उसी प्रकार का विद्युत् विसर्जन है जैसा कि घर्षण विद्युत् का होता है। इन दोनों में अंतर केवल इतना है कि आकाशीय विद्युत्-विसर्जन की मात्रा अधिक होती है। आकाश में बादल होने से आकाश एवं वायुमंडल विद्युन्मय हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञात किया गया कि बिजली की चमक के मुख्य दो कारण होते हैं। पहला तो बादलों के बीच में विद्युत् विसर्जन होने से तथा दूसरा बादल और पृथ्वी के बीच में विद्युत्-विसर्जन होने से चमक पैदा होती है। बिजली की चमक के साथ कभी-कभी हम एक गड़गड़ाहट की ध्वनि भी सुनते हैं। जब विपरीत विद्युत् युक्त दो वस्तुएँ पास-पास होती हैं तो उनमें परस्पर आकर्षण होता है। फलस्वरूप दोनों वस्तुओं के बीच में हवा में तनाव उत्पन्न हो जाता है। इस तनाव के अधिक हो जाने पर चिनगारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस क्रिया को विद्युत् निरावेश (Electric discharge) कहते हैं। इस निरावेश के कारण हवा में खलबल होने लगती है, जिसके फलस्वरूप ध्वनि उत्पन्न हो जाती है। इसी क्रिया के फलस्वरूप जब विपरीत विद्युत्-युक्त बादल आपस में पास-पास आते हैं तो चमक और गर्जन उत्पन्न होती हैं चमक और गर्जन दोनों ही साथ-साथ पैदा होते हैं, परन्तु ध्वनि का वेग प्रकाश के वेग से बहुत कम होने के कारण प्रकाश पहले दिखाई देता है, उसके कुछ देर बाद ध्वनि सुनाई देती है। जिनमें से होकर विद्युत् सुगमतापूर्वक इधर-उधर आ-जा सके, वे वस्तुएँ विद्युत्-चालक (Cunductor) कहलाती हैं जैसे कि सभी धातुएँ, लकड़ी का कोयला, क्षार, अम्ल, मानव शरीर, पृथ्वी आदि। और जिनमें से होकर विद्युत् न बह सके, वे एबोनाइट, काँच, लाख, तेल, गंधक, चीनी, मिट्टी आदि वस्तुएँ विद्युत् के अचालक (Insulator) हैं। चालकों में पानी भी एक अच्छा चालक है, अतः पानी से भींगी हुई सभी वस्तुएँ, चाहे वे शुष्क अवस्था में विद्युत् की चालक हों या अचालक, चालक हो जाती है। 96 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक तत्त्व के परमाणु कं बीच एक केन्द्रीय भाग होता है, जिसे नाभिक कहते हैं । नाभिक के चारों तरफ बहुत ही हल्के कण, जिनको इलेक्ट्रोन कहते हैं, भिन्न-भिन्न कक्षाओं में परिक्रमा करते रहते हैं। ये कण ऋण विद्युत् से आविष्ट होते हैं। नाभिक में धन विद्युत् से आविष्ट कुछ कण होते हैं, जिन्हें प्रोटोन कहते हैं तथा कुछ आवेशरहित कण होते हैं, जिन्हें न्यूट्रोन कहते हैं। साधारण अवस्था में जब प्रोटोनों तथा इलेक्ट्रोनों की संख्या बराबर होती है, तो परमाणु उदासीन होता है । परन्तु परमाणु की बाहरी कक्षा से इलेक्ट्रोन कुछ रीतियों से बाहर निकाला जा सकता है और उसमें जोड़ा भी जा सकता है। जिस वस्तु के परमाणुओं की बाहरी कक्षा से इलेक्ट्रोन निकल जाते हैं, वह धन विद्युन्मय तथा जिसमें आ जाते हैं वह ऋण विद्युन्मय हो जाती है। संक्षेप में विद्युत् की परिभाषा की जाए तो हम कह सकते हैं कि इलैक्ट्रोनों का प्रवाह ही विद्युत् धारा है अर्थात् विद्युत् आवेश के प्रवाह को विद्युत धारा कहते हैं। यह विद्युन्मय होने का प्रयोगसिद्ध आधुनिक सिद्धान्त सर जे.जे. टाम्सन के अनुसंधानों पर निर्भर है। यह विद्युत् की स्पष्ट वैज्ञानिक दृष्टि है, जो सर्वत्र आदृत है। विद्युत् एक अदृश्य ऊर्जा है (Energy) है। कार्य के द्वारा ही उसे जाना जाता है। तार आदि में बिजली है या नहीं, यह देख कर नहीं, छूकर ही जान सकते हैं या यंत्रों के माध्यम से। वर्तमान युग में विद्युत् ही औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रधार है। विद्युत् के ऐसे ऐसे अद्भूत चमत्कार हैं, जो कभी दैवी चमत्कार समझे जाते थे। विद्युत् तरंगों के द्वारा ही रेडियों का आविष्कार हुआ है, जिससे हम लाखों-करोड़ों मील दूर की बात सुन सकतें हैं। टेलीविजन के माध्यम से लाखों-करोड़ों मील दूर के दृश्य ऐसे देख सकते हैं, जैसे आँखों के सामने किसी चीज को देख रहे हों । विद्युतधारा के द्वारा ही विशाल शक्तिशाली चुंबकों का निर्माण होता है, जिससे भारोत्तोलन आदि के आश्चर्यजनक काम होते हैं। सर्दी में गर्मी और गर्मी में सर्दी के ऋतुसुख का अवतरण भी आज विद्युत् का साध ारण खेल है। आज मानव के चरण चाँद पर हैं, इसलिए कि आणविक विद्युत् शक्ति ने जादू का-सा काम किया है। ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है ? 97 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैज्ञानिक विद्युत् को अग्नि नहीं मानते। अग्नि जलाती है, और जलना, उनके यहाँ एक विशिष्ट रासायनिक प्रक्रिया है, जिसमें वस्तु हवा के सक्रिय भाग (आक्सीजन) से मिलकर एक नवीन यौगिक बनाती है, जिसका भार मूलवस्तु के भार से अधिक होता है। इस क्रिया में ताप और प्रकाश दोनों उत्पन्न होते हैं। विद्युत् : जैन आगमों की नजरों में जैन आगमों की चिन्तनधारा मूलतः आध्यात्मिक है। जैनदर्शन का विचार और आचार आत्मानुलक्षी है, अतः वह भौतिक स्थितियों के विश्लेषण में अधि क सक्रिय नहीं रहा है। सर्वाधिक प्राचीन आचारांग और सूत्रकृतांग आदि अब भी उक्त बात के साक्षी है। हाँ उत्तरकालीन आगमों में पदार्थ विज्ञान की चर्चा अधि क मुखर होती चली गई है। उपांगों में तो वह काफी फैल गई है। जहाँ तक भगवान् महावीर की वीतराग देशना का सम्बन्ध है, वहाँ तो चैतन्य एवं परम चैतन्य का ही उदघोष है। उसी के स्वरूप की चर्चा है और चर्चा है उस परम स्वरूप को प्राप्त करने के पथ की। अब रहे जैनाचार्य, हाँ, उन्होंने अवश्य भूगोल-खगोल आदिके विशुद्ध भौतिक वर्णनों का अंकन किया है। अतः विद्युत् की चर्चा भी इन्हीं उत्तरकालीन आगमों में है। प्रज्ञापना और जीवाजीवाभिगम आदि आगमों में विद्युत् को अग्नि माना गया है, और उसे अग्निकायिक जीवों में परिगणित कर सचित्त भी करार दिया गया है। मालूम होता है, यह मान्यता प्रज्ञापना आदि किसी एक आगम में उल्लिखित हुई है, और उसी को दूसरे आगमों ने दुहरा दिया है। क्योंकि उक्त वर्णन की शैली तथा शब्दावली प्रायः एक जैसी ही है। जैनाचार्य भी आखिर छद्मस्थ थे, सर्वज्ञ तो थे नहीं, अतः उन्होंने विद्युत् को सुदूर बादलों में चमकते देखा और उसे लोक धारणाओं के अनुसार अग्नि मान लिया। लोक-मान्यताओं का जैनाचार्यों पर काफी प्रभाव पड़ा है। इस सम्बन्ध में आगमों के अनेक वर्णन उपस्थित किए जा सकते हैं। यहाँ विवेच्य विद्युत् है, अतः हम इसी की चर्चा करना चाहते हैं, शेष किसी अन्य प्रसंग के लिए रख छोड़ते हैं। जिस प्रकार पुराकालीन अन्य जनता विद्युत् को दैवी प्रकोप मानती थी, जिसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं, जैनाचार्य भी उसी प्रकार विद्युत् को दैवी ___98 . प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकोप मानते रहे हैं। वर्षाकाल को छोड़कर अन्य समय में जो वर्षा होती है, उसमें बिजली चमकती है और गरज होती है, तो आगमों का स्वाध्याय कितने ही पहर तक छोड़ दिया जाता है। बिजली चमकी या गर्जन हुआ कि बस तत्काल स्वाध्याय जैसा तप क्यों छोड़ दिया जाता है? स्पष्ट ही है कि जैनाचार्य भी विद्युत् आदि को दैवी प्रकोप मानने के भ्रम में थे। यदि विद्युत् को साधारण अग्नि की चमक ही मानते होते तो ऐसा करने की जरूरत नहीं थी। धरती पर कितनी ही आग सुलगती रहती है, पर स्वाध्याय कहाँ बन्द होता है? असज्झाय कहाँ मानी जाती है? इसका अर्थ यह है कि जैनाचार्य लोक-धारणाओं के अनुसार भी बहुत सी बातें कहते रहे हैं, जो आज तर्कसिद्ध सत्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं। विद्युत् को अग्नि मानने की धारणा भी लोकविश्वास पर ही बना ली गई, ऐसा मालूम होता है। यह बात आगमों की दूसरी मान्यताओं से भी सिद्ध हो जाती है। आगमों में दश प्रकार के भवनपति देवों का वर्णन आता है। वहाँ अग्निकुमार एक देव जाति है, तो विद्युत् कुमार उससे भिन्न एक दूसरी ही जाति है। ये देवजातियाँ प्रकृति के कुछ तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं और अपने नाम के अनुसार काम भी करती हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव के दाह-संस्कार का वर्णन है, प्रथम अग्निकुमार अग्नि प्रज्वलित करते है और फिर वायुकुमार वायु के द्वारा उसे दहकाते हैं। अन्यत्र भी जहाँ कहीं देवों द्वारा अग्नि का कार्य आया है, अग्निकुमारों द्वारा ही निष्पन्न होने का उल्लेख है। प्रश्न है, यदि विद्युत् सचमुच में अग्नि ही है तो एक अग्नि कुमार देव ही काफी हैं, अलग से विद्युत् कुमार को मानने की क्या आवश्यकता है? अग्निकुमारों के मुकुट का चिह्न पूर्ण कलश बताया है, और विद्युत्कुमारों का वज्र। ये दोनों चिह्न अलग क्यों हैं, जबकि वे दोनों ही अग्निदेव हैं तो।' विद्युत् कुमारों का वज्र का चिह्न वस्तुतः उस लोकमान्यता की स्मृति करा देता है, जो विद्युत् को इन्द्र का वज्र मानती रही है। उक्त विवेचन से यह मालूम हो जाता है उक्त सूत्रकार विद्युत् को अग्नि नहीं मानते थे, अग्नि से भिन्न कोई अन्य ही दिव्य वस्तु उनकी कल्पना में थी। विद्युत् का मूल अर्थ है-'चमकना'। आकाश में बादल छाये और उनमें एक चमक देखी, और उसे विद्युत् कहा जाने लगा। विद्युत् के जितने भी पर्यायवाची शब्द है, उनमें कोई भी एक ऐसा शब्द नहीं है, जो अग्नि का वाचक हो। और अग्नि के जितने भी पर्यायवाची शब्द हैं, उनमें एक भी ऐसा नहीं, जो विद्युत् का वाचक हो। अतः स्पष्टतः सिद्ध है कि अग्नि और विद्युत् दो भिन्न वस्तु है। ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है? 99 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि और विद्युत् के गुणधर्म एक नहीं है पदार्थों का अपना अस्तित्व अपने गुणधर्मों के अनुसार होता है। इस कसौटी पर जब कसते हैं तो अग्नि और विद्युत् के गुण-धर्म एक सिद्ध नहीं होते। अग्नि और जल परस्पर विरोधी हैं। जल में अग्नि नहीं रह सकती है। जल तो अग्नि का परकाय शस्त्र है।" अतः वह उसे बुझा देता है, प्रदीप्त नहीं करता। और विद्युत् बादलों में प्रत्यक्षतः ही जल में रहती है, और इसीलिए अन्नभट्ट जैसे दार्शनिक उसे अबिन्धन कहते हैं, अर्थात् जल को बिजली का ईंधन बताते हैं। यहाँ धरती पर भी पानी विद्युत् का चालक है। जल में तथा जल से भींगी हुई वस्तुओं में विद्युत्धारा अच्छी तरह प्रवहमान हो जाती है। अतः सिद्ध है कि विद्युत् अग्नि नहीं है। यहाँ अग्नि और विद्युत् जैन धारणा के अनुसार भी दो विपरीत केन्द्रों पर स्थित है। जैनाचार्य वनस्पति का परकाय शस्त्र अग्नि को मानते हैं। और यह प्रत्यक्षसिद्ध भी है। काष्ठ को अग्नि भस्म कर डालती है। परन्तु विद्युत् का स्वभाव अग्नि के उक्त स्वभाव से भिन्न है। काष्ठ (लकड़ी) विद्युत् चालक नहीं है। लकड़ी पर खड़े होकर विद्युत् के तार को छूते हैं तो विद्युत का प्रभाव स्पर्शकर्ता पर नहीं पड़ता है। लकड़ी में विद्युत् धारा नहीं आ सकती है। यह बात आज सर्वसाधारण लोगों में प्रत्यक्षसिद्ध है। यदि विद्युत् अग्नि होती तो वह काष्ठ पर अवश्य अपना प्रभाव डालती। अग्नि को जलने के लिए आक्सीजन (प्राणवायु) आवश्यक है। यदि आक्सीजन न रहे तो अग्नि का प्रज्वलन समाप्त हो जाए। जलती हुई मोमबत्ती को काँच के गिलास या बेलजार आदि से ढंक दें तो कुछ समय पश्चात् मोमबत्ती बुझने लगेगी और उसका प्रकाश कम हो जाएगा। जब मोमबत्ती बुझने लगे, उसी समय यदि बेलजार आदि के ढक्कन को थोड़ा सा ऊपर उठा दिया जाए तो मोमबत्ती पुनः जलने लगेगी। बुझती हुई मोमबत्ती, बेलजार आदि के उठाने पर इसलिए जलने लगती है कि बेलजार में बाहर से आक्सीजन अन्दर चली जाती है। फलतः पहले की आक्सीजन खत्म होने पर भी नई आक्सीजन मिलते ही वह प्रज्वलन पुनः सक्रिय हो जाता है। यदि बेलजार के ढक्कन को न उठाया जाए तो आक्सीजन समाप्त होते ही मोमबत्ती अवश्य बुझ जाएगी। यह प्रयोग विज्ञान के छात्रों को प्रत्यक्ष में करके दिखाया जाता है और इस पर से अग्नि प्रज्वलन 100 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए आक्सीजन गैस की आवश्यकता प्रमाणित की जाती है। जैन आगम भी अग्नि को जलने के लिए वायु का होना आवश्यक मानते हैं । 14 विद्युत् की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। बिजली का बल्ब वैकुम (Vaccum) होता है, उसमें से आक्सीजन आदि वायुतत्त्व पूर्ण रूप से निकाल दिया जाता है। अतः विद्युत् आक्सीजन के बिना प्रकाश देती है। यदि बल्ब में कुछ गड़बड़ हो जाए, वैकुम की स्थिति न रहे तो तत्काल ही वह फ्यूज हो जाता है, फिर वह प्रकाशमान नहीं रहता। इस पर से भी यह सिद्ध हो जाता है कि अग्नि और विद्युत् परस्पर भिन्न हैं। हर उष्णता और चमक अग्नि नहीं है साधारण जनता बाहर की दो चार बातें एक जैसी देखकर भिन्न वस्तुओं में भी एकत्व की धारणा कर लेती है। हर पीले रंग की चीज सोना है, बस पीतल भी सोना बन जाता है, अशिक्षित एवं भद्र ग्रामीण की दृष्टि में। भारतीय लोककथा के वे बंदर प्रसिद्ध है, जो सर्दी से बचने के लिए गुंजाओं (चिरमिठी) को लाल रंग के कारण अग्नि समझ बैठे थे, और उनको ताप रहे थे। विद्युत् में उष्णता है, प्रकाश है, चमक है, तो बस वह अग्नि है - यह मान्यता ऊपर की लोककथा का स्मरण करा देती है। यदि केवल चमक ही अग्नि का लक्षण है, तो रात में जुगनूं भी चमकता है। आकाश में चाँद भी चमकता है, चांद के धरातल से पृथ्वी भी चमकती है, तो क्या ये सब अग्नि माने जाएँ ? जीवाजीभिगम और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में वर्णित कल्पवृक्षों की एक जाति चमकती है, प्रकाश विकीर्ण करती है, तो क्या उसे भी अग्नि मान लें ? उत्तराध्ययन (19/47 ) में नरक की उष्ण वेदना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यहाँ धरती की प्रचण्ड अग्नि से वह नरक भूमि की उष्णता अनन्त गुणी है, तो वह पृथ्वी भी अग्नि है क्या? हमारा शरीर उष्ण रहता है, बुखार में तो ताप कई गुना बढ़ जाता है, तो क्या यह सब अग्नि का काम है? उदरस्थ भोजन पचता है, इसके लिए जठराग्नि की कल्पना की गई है, तो क्या वस्तुतः जैन परम्परा भी पेट में अग्नि काया मानती है ? समुद्र का तथाकथित बड़वानल क्या वस्तुतः अनल अर्थात् अग्नि है, या केवल एक ताप है ? उक्त वर्णनों को विवेचक बुद्धि से पढ़ते हैं, तो पता लगता है कि वस्तुतः लोकमान्यता क्या है और इसके विपरीत सही वस्तुस्थिति क्या है? ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है ? 101 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों के अनुसार अग्निकाय अढाई द्वीप समुद्र पर्यन्त मनुष्यक्षेत्र तक ही सीमित है।15 मनुष्य क्षेत्र के सिवा अन्यत्र कहीं अग्नि नहीं होती है। परन्तु राजप्रश्नीय के सूर्याभदेवाधिकार में स्वर्ग में भी धूप दान का वर्णन है। वह क्या है? स्वर्ग में तो अग्नि नहीं है। भगवती सूत्र (3/1/136) में ईशानेन्द्र का वर्णन है। उसने दूसरे देवलोक से ज्यों ही पाताललोकान्तर्गत बलिचंचा राजधानी को देखा, वह जलते अंगारों के समान दहकने लगी, भस्म होने लगी! क्या ईशानेन्द्र की आँखों में वस्तुतः अग्नि थी? पहले सौधर्मेन्द्र ने जब चमरेन्द्रपर अपना वज्र छोड़ा तो उसमें से हजारों-हजार ज्वालाएँ निकलने लगी और वह वज्र अग्नि से भी अधिक प्रदीप्त हो गया। क्या यह सब भी अग्नि है? स्वर्ग में अग्नि के अस्तित्व का निषेध है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वह अग्नि नहीं, कुछ और ही चीज है। नरक में भी आग जलती हुई बताई गयी है, 17 जबकि वहाँ शास्त्रानुसार आग होती नहीं है। __ अग्नि ही नहीं, अन्य अचित्त पुद्गल भी उष्ण होते हैं और प्रकाश आदि की क्रियाएँ करते हैं। भगवती सूत्र में गौतम का प्रश्न है कि भगवन् ! क्या अचित्त जड़ पुद्गल भी चमकते हैं, तपते हैं और आसपास में प्रकाश करते हैं? भगवान् ने उत्तर स्वीकृति में दिया है, अचित्त पुद्गलों को प्रकाशक माना है। "अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति उज्जोवेंति, तवेंति, पभासंति? हंता अत्थि।" -भग. 7/10/307 अरंडी या ऊन का वस्त्र भी विद्युत् विसर्जन की क्रिया करता है। सर्दी में रात के समय जब अरंडी या ऊन के वस्त्र को झटकते हैं तो उसमें से इध र-उधर चिनगारियाँ चमकती दिखाई देती हैं, स्फुलिंग उड़ते नजर आते हैं, चर्र चर्र की ध्वनि भी होती है। प्रश्न है, यह सब क्या है? क्या सचमुच में यह अग्नि है? यह अग्नि नहीं है। सब विद्युत का तमाशा है, और कुछ नहीं। टैरिलिन में भी विद्युत् आ जाती है। टैरेलिन पहनने वाले जानते हैं-विद्यत के कारण शरीर पर के बाल कैसे तनकर खड़े हो जाते हैं। और टैरेलिन में से चमक भी खब निकलती है। पर वह अग्नि नहीं है, विद्युत् है। विद्युत् से अग्नि तो लग जाती है न? कितने ही महानुभाव तर्क करते हैं कि बिजली से अग्नि लग जाती है। बिजली से आग लगने की अनेक घटनाएँ होती देखी गई हैं। उत्तर में कहना है ___102 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि बिजली से अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, और वस्तु जल जाती है, यह बात सत्य है। परन्तु बिजली और बिजली से प्रज्वलित अग्नि, दोनों में अन्तर है। बिजली से आग भले ही लग जाए, पर बिजली स्वयं अग्नि नहीं है। अग्नि का क्या है? वह तो सूर्य किरणों से भी लग जाती है। सूर्यकिरणों को जब अभिबिंदु लैंस (Convergent Lens) में केन्द्रित कर लेते हैं, तो उसमें से अग्नि ज्वाला फूट पड़ती है। परंतु सूर्य किरणें स्वयं तो अग्नि नहीं हैं। यदि वे अग्नि हों तो फिर सूरज की धूप में संयमी मुनि कैसे खड़ा हो सकता है, कैसे धूप सेंक सकता है? आगमोक्त तेजो लेश्या स्वयं तो अग्नि नहीं है, पर वह दूसरों को भस्म कर डालती है, उससे अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। 'तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेइ' तारपीन या पेट्रोल आदि के भीगे कपड़े यथाप्रसंग अपने आप जलने लगते हैं। खुली हवा में रहने के कारण ऐसी वस्तुएँ पहले हवा की ऑक्सीजन से संयोग करती हैं और उससे धीरे-धीरे ताप उत्पन्न होता रहता है। जब ताप बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ जाता है कि वह वस्तु के प्रदीपनांक (Ignition temperatrue) से अधिक हो जाता है, तब वस्तु स्वतः ही तेजी से जलने लगती है । तारपीन या पेट्रोल आदि में आग पकड़ने की यही विज्ञानसिद्ध प्रक्रिया है। परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि तारपीन तथा पेट्रोल आदि स्वयं अग्नि हैं। - भग. 15 वाँ शतक अरणी की लकड़ी या बाँस परस्पर के घर्षण से जलने लगते हैं, तो क्या वे जलने से पूर्व भी साक्षात् अग्नि हैं? यदि हैं तो उन्हें फिर साधु कैसे छू सकते हैं? दो चार क्या, अनेक उदाहरण इस सम्बन्ध में दिए जा सकते हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि बिजली से आग लग जाने पर बिजली स्वयं अग्नि नहीं है। उपसंहार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि विद्युत् अग्नि नहीं है। वह हमारी कल्पनाओं से भिन्न एक सर्वथा विलक्षण शक्ति विशेष है। विद्युत् तो हमारे शरीरों में भी है। उससे कहाँ बचेंगे? रूस के वैज्ञानिकों ने तो ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है ? 103 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ऐसा यंत्र तैयार किया है, जो दिन भर मानव शरीर में लगा रहता है। वह दिन में शरीर की हलचल से पैदा होने वाली विद्युत् को अपने में इतना संग्रह कर लेता है, जिससे रात भर प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है। दैनिक हिन्दुस्तान का 12 अक्टूबर 1969 का अंक सामने है। उसमें लिखा है कि दक्षिण-पूर्व अमेरिका की नदियों में पायी जाने वाली 'ईल' नामक मछली डेढ़ सौ अश्वशक्ति का विद्युत्-सामर्थ्य रखती है, जिसके द्वारा साठ वाट के सैकड़ों बल्ब जलाये जा सकते है। इस प्रकार अद्भुत विद्युत् शक्ति के धारक अन्य भी अनेक प्राणी है-पशु हैं, पक्षी हैं। सूरज की धूप में भी विद्युत् शक्ति है, और उस धूप संगृहीत विद्युत् से तो पश्चिम के देशों में कितने ही कल-कारखाने चलते हैं। स्विच ऑन होते ही एक सेकिंड में बिजली का प्रकाश जगमगाने लगता है, और स्विच ऑफ होते ही एक क्षण में प्रकाश गायब हो जाता है। एक सेकिंड में विद्युत् धारा हजारों ही नहीं, लाखों मील लंबी यात्रा कर लेती है। क्या यह सब अग्नि का गुण धर्म एवं चमत्कार हो सकता है? आज का युग कहने का नहीं, प्रत्यक्ष में कुछ करके दिखाने का युग है। विद्युत् अग्नि है, कहते जाइए। कहने से क्या होता है ! विज्ञान ने तो अग्नि और विद्युत् का अंतर स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष में सिद्ध करके दिखा दिया है। पुराने युग के कुछ आचार्योंने यदि वुिद्यत् की गणना अग्निकाय में की है, तो इससे क्या हो जाता है? उनका अपना एक युगानुसारी चिन्तन था, उनकी कुछ अपनी प्रचलित लोकधारणाएँ थीं। वे कोई प्रत्यक्ष सिद्ध वैज्ञानिक मान्यताएँ नहीं थीं। राजप्रश्नीय सूत्र में वायु को भारहीन माना है। बताया है कि हवा में वजन नहीं होता है।जबकि हवा में वजन होता है, और यह प्रत्यक्ष सिद्ध है। अन्य जैन आगमों से भी वायु में गुरुत्व सिद्ध है। अतः मानना होगा कि राजप्रश्नीयकार या केशीकुमार श्रमण केवल लोक प्रचलित मान्यता का उल्लेख कर रहे हैं, सैद्धान्तिक पक्ष का प्रतिपादन नहीं। चन्द्र, सूर्य आदि के सम्बन्ध में भी उनकी यही स्थिति है। वही बात विद्युत् को अग्नि मानने के सम्बन्ध में भी है, जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है तथा अन्य आगमों से भी सिद्ध नहीं है। ___ मैं आशा करता हूँ, विद्वान् मुनिराज तटस्थ भाव से उक्त चर्चा का विश्लेषण करेंगे, और वद्युत् को अग्नि मान लेने के कारण ध्वनिवर्धक का जो ___04 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपंच समाज में चर्चा का विषय बन गया है, इसका उचित निराकरण करेंगे। प्रवचन सभा में हजारों की भीड़ हो जाती है, सुनाई कुछ देता नहीं है। शोरोगुल होता है, आकुलता बढ़ती है, जनता के मन खिन्न हो जाते हैं। यह कितनी बड़ी मानसिक हिंसा है। प्रस्तुत प्रसंग में इस पर भी विचार करना आवश्यक है। संदर्भ : अब से 35 वर्ष पहले अजमेर सम्मेलन के अवसर पर पालनपुर के श्री जीवाभाई ने अपनी 'नयन पच्चीसी' में यों लिखा था। 'तमारा पातरा माटे कपाये रोहिडा लीला। शुं छोडी माटीनां लीधा, जरा खोली नयन जोशो । ' कुछ मुनिराज बचाव करते हैं कि हम तो दीक्षा पर आए पात्र लेते है, अपने निमित्त से लाये गये नहीं। मैं पूछता हूँ, दीक्षार्थी के लिए तो तीन पात्र ही चाहिए। ये पात्रों की जोड़ पर जोड़ किसलिए आती है? आपको बहराने के लिए ही तो । 3. (क) दशवै 7/52 (ख) परित्रिगर्तेम्यो वृष्टो देवः - वोपदेव । 4. अबिन्धनं दिव्यं विद्युदादि - तर्क संग्रह | 5. देखिए, आधुनिक रसायन विज्ञान पृ. 280 6. उपर्युक्त विवेचन के लिए देखिए, 'भौतिक विज्ञान का सरल अध्ययन' पृ. 191-921 7. उक्त विवेचन आगरा कालेज के फिजिक्स प्रोफेसर श्री एच. पी. शर्मा द्वारा लिखित 'सरल भौतिक विज्ञान' नाम पुस्तक के चतुर्थ संशोधित संस्करण के आधार पर है। 8. देखिए, आधुनिक रसायन विज्ञान - पृ. 145 1. 2. 9. अग्नि कुमारा देवा.... अगणिकायं विउव्वंति - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति । 10. प्रज्ञापना 2/177 11. परकायशस्त्रमुदकादि - आचा. न. 124 शीलांक वृत्ति । 12. दीर्घलोको वनस्पतिरित्यर्थः, अस्य च शस्त्रमग्निः । आचा. शीलांक टीका 1/1 13. काष्ठानि वह्नेः कणः भोजसागरीय पार्श्वस्तोत्र | 14. न विणा वाउयाएणं अनगणिकाए उज्जलइ - भग. 16/2/561 15. अंतो मणुस्सखेते अड्ढाईज्जेसु दीवसमुद्देसु । प्रज्ञापना 2/154 16. उक्कासहस्साइं विणिमुंचमाणं, जालासहस्साइं पंमुचमाणं । - भगवती 3/2/143 17. हुयासणे जलंतंमि उत्तरा - 19/49 ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है ? 105 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 | पर्युषणः एक ऐतिहासिक समीक्षा परम्पराएँ सामाजिक हों या धार्मिक, एकदिन जन्म लेती हैं, विकास पाती हैं और एकदिन देशकालानुसार मोड़ लेती हैं, एवं परिवर्तित भी होती हैं। किसी भी परम्परा के लिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह अपने मूल रूप में ज्यों की त्यों हैं। उसमें न कभी कोई परिवर्तन हुआ और न कभी होगा। धर्म परम्पराएँ न अनादि हैं, न अपरिवर्तित सामाजिक परम्पराओं के अपरिवर्तित रूप का भी कम आग्रह नहीं है, फिर भी विचार जागृति के इस युग में यह आग्रह कम हो रहा है, वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए जनमानस किसी न किसी अंश में तैयार हो रहा हैं। परन्तु धार्मिक परम्पराओं के संबंध में स्थिति बडी विचित्र है। यहाँ धार्मिक मान्यताओं से प्रतिबद्ध मानस, कुछ भी परिवर्तन मानने के लिए, तैयार नहीं है। यदि कभी कोई प्रबद्ध विचारक इतिहास के विश्लेषण के आधार पर सप्रमाण परिवर्तन की चर्चा करता भी है, तो समाज में सहसा एक क्षोभ फूट पड़ता है, या क्षोभ जगाया जाता है कि 'यह तो धर्म का नाश हो रहा है।' ये तथाकथित धर्मभीरु लोग परम्पराओं को अनादि अनन्त मान कर चलते हैं। और धर्म श्रद्धा के नाम पर इस अनादि-अनन्त की मिथ्या मान्यता को बड़े धड़ल्ले के साथ धकेले जा रहे हैं। इतिहास कुछ भी कहे, सत्य कुछ भी प्रकाश में आए, पुराने धर्मग्रन्थ भी ऐतिहासिक सत्य का कितना ही क्यों न समर्थन करें, परन्तु इन लोगों का अनादि-अनन्त सम्बन्धी यह अंधराग कभी बन्द नहीं होता। अपितु और अधिक ऊँचे स्वर से ताल-बेताल गाया जाने लगता है। भले ही सत्य की हत्या हो, इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जाए, प्राचीन धर्मग्रन्थों के सर्वथा विपरीत, साथ ही उपहासास्पद अर्थ किए जाएँ, कुछ भी हो, अपना अहं सुरक्षित रहना चाहिए, जनता में हम जो कुछ कहते हैं, उसकी श्रद्धा बनी रहनी चाहिए। न हम आँख खोलें, न जनता खोले। बस, चलने दो, जो चलता आ रहा है, और कहते हैं कि जो चलता आ रहा है, वह अनादि से चलता आ रहा है। 106 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु सत्य यह है कि परम्पराएँ अनादि नहीं हैं। वे तो बनती हैं, बिगड़ती हैं, सँवरती हैं, और फिर बिगड़ली हैं। मोड़ लेती हैं, बल खाती हैं, और एकदिन कहीं-से-कहीं पहुँच जाती हैं। कुछ का निर्दिष्ट काल बदल जाता है, और कुछ का तो स्वरूप ही बदल जाता है। और हम हैं इस बदले हुए स्वरूप को ही सनातन सत्य मान लेते हैं। धर्म परम्पराएँ स्वयं धर्म नहीं हैं धर्मपरम्पराए धार्मिक रीति-रिवाज हैं, अमुक अपेक्षा से धर्म की संदेश-वाहक हैं, प्रेरक हैं, किन्तु वे स्वयं में धर्म नहीं हैं। धर्म अनादि है, अनंत भी है। धर्म का न कभी जन्म होता है, न कभी मरण होता है। वह सदा एकरस एवं अखण्डस्वरूप रहता है। वह अंदर के चैतन्य का सहज शुद्ध भाव है, स्व-स्वभाव है, अतः वह परिस्थितिवश दब सकता है, किन्तु कभी विनष्ट नहीं हो सकता। हाँ, धार्मिक परम्पराएँ देशकालानुसार जन्म लेती हैं, बदलती भी हैं; और कभी-कभी अनुपयोगी हो जाने के कारण मर भी जाती हैं। स्पष्ट है कि परम्पराएँ अनादि नहीं हैं, अपरिवर्तित भी नहीं है। परम्पराओं का शरीर बाह्य विधिनिषेधों का शरीर है। और वह बाह्य विधिनिषेध बदलते रहते हैं। समयानुसार विधि, निषेध बन जाता है और निषेध, विधि। पर्युषण सम्बन्धी मेरा लेख गत पर्युषण पर्व पर 'अमर भारती' में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था। उसमें पर्युषण पर्व के अतीत और वर्तमान की चर्चा थी। बताया गया था कि पर्युषण पर्व प्राचीन काल में आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था। वह मूल में वर्षावास के रूप में था, साथ ही वार्षिक आलोचना भी थी। यह उत्सर्ग विधान था। किन्तु यदि अनुकूल एवं निर्दोष क्षेत्र तथा निवासस्थान न मिले, तो पाँच-पाँच दिन की वृद्धि के क्रम से अंततोगत्वा भाद्रपद शुक्ला पंचमी को तो पर्युषण कर ही लेना चाहिए, भले ही किसी वृक्ष के नीचे भी क्यों न करना पड़े। जघन्य 70 दिन का पर्युषण अर्थात् वर्षावास तो होना ही चाहिए। यह सब मेरा मनः कल्पित नहीं था, इसके लिए मैंने महान् श्रुतधर आचार्यों के प्रमाण दिए थे, उनके तत्कालीन ग्रन्थों के शब्दपाठ उद्धृत किए थे। वह एक विशुद्ध ऐतिहासिक चर्चा थी, और कुछ नहीं। आज के युग में इस प्रकार की चर्चाएँ प्रायः प्रत्येक संप्रदाय में होती पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 107 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उन पर विद्वान एवं जिज्ञासु विचार करते हैं, वास्तविक सत्य को समझने का तटस्थ भाव से, अनाग्रह बुद्धि से प्रयत्न करते हैं। यदि कुछ अस्पष्ट रहता है, तो उस पर विचार चर्चा भी चलाते हैं। उक्त चर्चा को प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य भी एकमात्र यही था कि निष्पक्ष विचार के प्रकाश में पर्युषण की वास्तविक स्थिति का दर्शन किया जाए, अपने को सांप्रदायिक मान्यताओं के पक्षपात एवं व्यामोह के अंध-आग्रह से मुक्त किया जाए। मैं क्या चाहता हूँ मेरा यह अभीष्ट नहीं है कि पर्युषण के वर्तमान काल को बदला जाए, उसी पुरानी स्थिति में पहुँचा जाए। मैं इतना बेभान नहीं हूँ कि समाज की स्थिति को नहीं समझ सकता होऊँ। आज वापस लौटना एक तरह असंभव ही है। अतः मेरा उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि पर्युषण पर्व की इन विभिन्न मान्यताओं को लेकर आए दिन जो विग्रह होते हैं, शान्त जन-मानस क्षुब्ध होते हैं, एक दूसरे पक्ष को शास्त्र विरुद्ध एवं विराधक कहते हैं, यह सब बेतुका आधारहीन संघर्ष . शान्त हो। सब मिलकर एक निर्णय कर लें, और उसका निष्ठा से पालन करें। परम्पराएँ अनादि नहीं हैं, वे पहले भी बदली हैं। और उन बदली हुई परम्पराओं को मान्यता भी मिली है। आज भी क्यों नहीं मान्यता मिल सकती है? दो सावन होने पर एक पक्ष का आग्रह दूसरे सावन में पर्युषण करने का है, और इसके लिए वह शास्त्रों की दुहाई देता फिरता है। दूसरा पक्ष भादवे का आग्रह रखता है और कहता है कि दूसरे सावन में पयुर्षण करना शास्त्र विरुद्ध है, जिनाज्ञाविरुद्ध है। भादवे में ही पर्युषण करो, अन्यथा भगवान् की आज्ञा के विपरीत आचरण करने के कारण अनन्त संसार परिभ्रमण करना पड़ेगा। यही विग्रह दो भादवा होने पर उठ खड़ा होता है। कुछ का आग्रह पहले का है, तो कुछ का दूसरे का! अजीब हालत है! विचारक वर्ग हँसता है, और वह जिस श्रद्धा के नाम पर यह सब हो-हल्ला होता है, उससे दूर होता जाता है। मेरा कहना है कि यह प्रचलित मान्यताओं का आग्रह या कदाग्रह आधारहीन है। प्राचीन ग्रन्थों को आँखों से देखों, वास्तविकता कुछ और ही है। वहाँ तुम्हारी दोनों ही मान्यताओं का कहीं अतापता नहीं है। उस प्राचीन सत्य को आज अपना नहीं सकते हो, तो कम-से कम आज के आग्रह तो छोड़ो, जिनशासन के हित में एक मत होकर किसी एक स्थिति का निर्णय कर लो और उस पर चलो। घ्यर्थ के विग्रह मत खड़े करो। ___108 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण अनादि नहीं है पर्यषण के सम्बन्ध में ओ यह बात प्रचारित की गई है कि यह अनादि है, अनन्त है, और सार्वत्रिक है, सत्य नहीं है। पर्युषण भी एक परम्परा है, अतः वह भी अन्य परम्पराओं की भाँति न अनादि है, न अनन्त है और न सार्वत्रिक ही है। जैन काल गणना के अनुसार भरत और ऐरवत क्षेत्रों में असर्पणी-उत्सर्पणी का बीस कोडाकोडीसागरपरिमित विशाल कालचक्र है। वर्तमान अवसर्पिणीकाल का प्रथम आरक' चार कोडा कोडी सागर का, दूसरा आरक तीन कोडाकोडी सागर का, तीसरा आरक दो कोडाकोडी सागर का है। उक्त तीनों आरकों में तीसरे आरक का बहुत अल्पकालिक अन्तिम भाग छोड़कर कहीं भी पर्युषण की व्यवस्था नहीं है। भरत तथा ऐरवत क्षेत्र में इसलिए नहीं है कि वहाँ तत्कालीन अकर्मभूमि युग में धर्म परम्परा ही नहीं थी। और महाविदेह क्षेत्र में इसलिए नहीं कि वहाँ सर्वदा एक जैसी रहनेवाली अवस्थित कालव्यवस्था है, जो भारतीय चतुर्थारक के समान है, अतः वहाँ पर्युषण परम्परा कभी प्रचलित ही नहीं हैं तृतीय आरक के अन्त में भगवान् ऋषभदेव के युग में कुछ समय के लिए पर्युषण की व्यवस्था हुई, परन्तु भगवान् ऋषभदेव के पश्चात् चतुर्थ आरक में भगवान् अजितनाथ से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ तक 22 तीर्थंकरों के युग में लाखों-करोड़ों, अरबोखों आदि वर्षों तक पर्युषण की परम्परा ही न रहीं न भारत में रही, न ऐरवत में, और महाविदेह में तो कभी होती ही नहीं। अतः यह सुदीर्घकाल भी ऐसा काल है, जबकि समग्र भूमंडल पर कहीं भी पर्युषण अवस्थित नहीं था। जैन परम्परा में साध्वाचार सम्बन्धी दश कल्प बताए हैं- 1. आचेलक्य, 2. औद्देशिक, 3. शय्यातर पिण्ड, 4. राजपिण्ड, 5. कृतिकर्म, 6. अहिंसादि चार या पाँच महाव्रत, 7. पुरुष ज्येष्ठ धर्म, 8. प्रतिक्रमण, 9. मासकल्प ओर 10. पर्युषण कल्प। बृहत्कल्पसूत्र भाष्य में इस सम्बन्ध में एक गाथा है: “आचेलक्कुद्देसिय, शिजायर रायपिण्ड कितिकम्मे। वत जेट्ट पडिक्कमणे, मासं पज्जोसवण कप्पे" ॥6364॥ उक्त दश कल्पों में शय्यातर पिण्ड, अहिंसादि चतुर्याम व्रत, पुरुष ज्येष्ठ, कृतिकर्म- ये चार अवस्थित कल्प हैं, जो सभी 24 तीर्थंकरों के शासन में होते पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 109 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। आचेलक्य आदि शेष छह कल्प अनवस्थित हैं। ये कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में तो नियत होते हैं, शेष मध्यकालीन 22 तीर्थंकरों के शासन में नियत नहीं होते। महाविदेह क्षेत्र में भी नहीं होते। संक्षेप में प्रमाण स्वरूप कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं "सिज्जायरपिंडे य, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवटिया कप्पा 16361॥ आचेलक्कुद्देसिय, सपडिक्कमणे य रायपिंडे य। मासं पज्जोसवणा, छऽप्पेतऽणवहिता कप्पा ॥6362॥ -बृहत्कल्पभाष्य "छसु अडिओ उ कप्पो, एत्तो मज्झिमजिणाण विण्णेओ। णो सययसेवणिज्जो, अणिच्चमेससरूवो त्ति ।।7।।" -पंचा. 17 द्वार एवं महाविदेहेऽपि द्वाविंशतिजिनवत् सर्वेषां जिनानां कल्पव्यवस्था। _ -कल्पसूत्र सुबोधिका, व्या. 1 उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि श्री अजितनाथ से लेकर श्री पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों के शासन में पर्युषण कल्प नियत नहीं हैं। पर्युषण का मूल अभिप्राय यहाँ वर्षावास से है। वर्षा होती रहे तो एक स्थान पर वर्षाकाल में, 22 तीर्थंकरों के साधु-साध्वी, निवास कर सकते हैं। यदि वर्षा न हो तो कभी भी विहार कर सकते हैं। उनके यहाँ महावीर के शासन-जैसी चौमास करने की, नियत परम्परा नहीं है। मासकल्प की भी कोई व्यवस्था नहीं है। यदि निर्दोष स्थिति जानें, और अन्य कोई अपेक्षा न हो तो देशोन पूर्व कोटि तक भी एक स्थान पर रह सकते हैं। अस्तु, जब उस युग में चौमास की ही कोई व्यवस्था नहीं थी, तब आषाढ़-पूर्णिमा का वर्षावास सम्बन्धी पर्युषण या आजकल का प्रचलित वर्षावास कालीन भादवासुदि पंचमी का पर्युषण, कैसे तर्क संगत हो सकता था? दूसरा प्रश्न प्रतिक्रमण का है। कुछ महानुभाव पर्युषण का सम्बन्ध वर्षावास-स्थापना से न जोड़कर मात्र वार्षिक प्रतिक्रमण से जोड़ते हैं। किन्तु उक्त पक्ष से भी 22 तीर्थंकरों के शासन में पर्युषण सिद्ध नहीं होता। 22 तीर्थंकरों के 10 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन में प्रतिक्रमण अनियत है। दिन या रात्रि में यदि कभी अतिचार-दोष लगे, तो तत्काल उसी दोष का प्रतिक्रमण कर आचारशुद्धि कर लेते थे। यदि दोष नहीं लगा हों, तो प्रतिक्रमण नहीं करते थे, जैसा कि महावीर शासन में दोष लगे या न लगे दिन रात्रि की संधि में उभयकाल अवश्य प्रतिक्रमण करना होता है। जबकि दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं वार्षिक के रूप में प्रतिक्रमण की कोई परम्परा ही नहीं थी, तब वार्षिक प्रतिक्रमण रूप पर्युषण करने की बात स्वतः खंडित हो जाती है-“मूलं नास्ति कुतः शाखा।" पर्युषण की अनादिकालीन परंपरा के लिए, और खास तौर पर वर्षावास के एक महीना बीस रात्रि बीतने पर भादवासुदि पंचमी के दिन की प्रतिबद्धता के लिए जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति (2 वक्षस्कार) के उस उल्लेख की चर्चा की जाती है, जो उत्सर्पिणी के द्विवतीय आरक के प्रारंभ से होने वाली सात-सात दिन की वर्षा से सम्बन्धित है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ यह आधारहीन बात कैसे प्रचारित की जाती है? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में-पुष्कलावर्त, क्षीर, घृत, अमृत और रस-इस प्रकार पाँच वर्षाओं का ही उल्लेख है। मूल पाठ के अनुसार पाँच प्रकार की वर्षाएँ सात-सात दिन होती हैं, तो इस प्रकार वर्षा के 35 ही दिन हुए, 49 तो नहीं। बीच में सात-सात दिन के दो उघाड़ यानी वर्षा रहित मुक्त दिनों की बात कही जाती है, परन्तु इन उघाड़ों का न मूलपाठ में कोई उल्लेख है, न टीका में। वहाँ तो केवल पाँच वर्षाओं का ही वर्णन है। साथ ही इस प्राकृतिक घटना के साथ पर्युषण का कोई सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक सम्बन्ध है, ऐसा भी कुछ नहीं है। सम्बन्ध हो भी कैसे सकता है? जबकि महाविदेह में पर्युषण नहीं, 22 तीर्थंकरों के युग में पर्युषण नहीं, अकर्म भूमि युग में पर्युषण नहीं, तब केवल प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन के लिए ही यह प्राकृतिक घटना किसी एक नियम का सूत्रपात करे, भला यह साधारण बुद्धि के व्यक्ति को भी कैसे आश्वस्त कर सकती है? चर्चा लम्बी हो रही है, अन्यथा और भी प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं। बुद्धिमान पाठक इतने पर से ही समझ सकते हैं कि पर्युषण के सम्बन्ध में सत्य स्थिति क्या है? स्पष्ट है कि पर्युषण की परम्परा अनादि नियत नहीं है। भगवान् पार्श्वनाथ के बाद भगवान् महावीर ने पर्युषण की परम्परा चालू की। कल्पसूत्र के अनुसार उन्होंने स्वयं भी पर्युषण किया, और वह फिर परम्परा के पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 111 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप में उत्तरोत्तर प्रसारित एवं प्रचारित होता चला गया। समवायांग (79) और कल्पसूत्र (सामाचारी-प्रकरण) का वह पाठ ही ध्वनित करता है पर्युषण पहले से नहीं चला आ रहा था, बल्कि भगवान् महावीर ने ही चालू किया। इसीलिए वह पाठ स्पष्ट कहता है कि "समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राए मासे वइक्कते, सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहि वासावास पज्जोसवेइ।" विचारशील अध्येता देख सकते हैं-यह इतिहास सूत्र है, विधि (कल्प) सूत्र नहीं। श्रमण भगवान् महावीर के सीधे नाम से आगम साहित्य में साध्वाचार का कोई विधि सूत्र नहीं है। जितने भी विधिसूत्र हैं, वे सब निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी, भिक्खु-भिक्खुणी के नामोल्लेख के साथ आज्ञा के रूप में प्रारंभ होते हैं, तीर्थंकरों के नाम से नहीं। उक्त विचारणा पर से पाठक निर्णय कर सकते हैं पर्युषण परम्परा अनादि नहीं है। वर्ष-समाप्ति और संवत्सरी पर्व पर्व की दृष्टि से पर्युषण प्राचीनकाल में वर्ष के अन्त में होता था। इसीलिए उसे संवत्सरी पर्व कहते हैं, जो आज भी जन साधारण की भाषा में संवच्छरी कहा जाता है। संवत्सरी का अर्थ वार्षिक पर्व है, अतएव जहाँ प्रतिक्रमण के पाठ में दिन समाप्ति पर 'दिवसोवइकूतो', रात बीतने पर, 'राई वइक्कंता', पक्ष पूर्ण होने पर, ‘पक्खो वइंक्कतो' चार महीने समाप्त होने पर 'चउम्मासी वइक्कंता' कहा जाता है उसी प्रकार संवच्छर-संवत्सर अर्थात् वर्ष पूरा होने पर 'संवच्छरो वइक्कतो' बोला जाता है। मैं पूछता हूँ, जैन परम्परा के अनुसार वर्ष कब पूरा होता है? क्या सावन में होता है? क्या भादवा में होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। जैन परम्परा के अनुसार वर्ष पूरा होता आषाढ़ में, आषाढ़ पूर्णिमा के दिन। नया वर्ष सावन महीने से शुरू होता है, सावन बदी एकम से। भादवा में या भादवा बदी छठ से कोई वर्ष शुरू नहीं होता। न चन्द्र वर्ष, न सूर्य वर्ष और न कोई अन्य वर्ष ही। भगवती सूत्र (श. 16, उ. 2) में स्पष्ट पाठ है “तत्थणं जेते कालमासा तेणं सावणादीया आसाढ़पज्जवसाणा दुवालस प. त. सावणे, भद्दवए, आसोए, कत्तिए, मग्गसिरे, पोसे, माहे, फागुणे, चेत्ते, वइसाहे, जेट्ठामूले, असाढ़े।" आप देख सकते हैं, यह पाठ क्या कहता है? वर्ष भर की जीवनचर्या 12 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आलोचना करनी हो, प्रतिक्रमण करना हो, तो वह वर्ष की समाप्ति पर करना चाहिए, जैसा कि दिन, रात्रि एवं पक्ष आदि की समाप्ति पर तत्तत् प्रतिक्रमण किए जाते हैं। इस दृष्टि से पर्युषण पर्व का आषाढ़ पूर्णिमा को होना शास्त्रसिद्ध है। निशीथभाष्य (गाथा, 3138-39) में पर्युषण के 'परियाय-वत्थवणा, पज्जोसवणा, परिवसणा, पन्जुसणा, पढमसमोसरण' आदि आठ पर्यायवाची नाम दिए हैं, उनमें 'पढमसमोसरण' की व्याख्या करते हुए महान् श्रुतधर एवं सुप्रसिद्ध चूर्णिकार आचार्य जिनदास ने स्पष्ट लिखा है कि 'दो समोसरणं-एगं वासासु, वितियं उडुबद्धे, जतो पज्जोसवणातो वरिसं आढप्पति, अतो पढमं समोसरणं भण्णति' अर्थात् पयुर्षण से वर्ष (वर्षा) शुरू होता है, अतः उसे 'पढम समोसरण' प्रथम समवसरण कहते हैं। आगे चलकर इसी प्रसंग में फिर लिखा है-'कालेणं आसाढपुण्णिमाकालेणं ठायति।' काल की दृष्टि से आषाढ़ पूर्णिमा के काल में पर्युषण स्थापित होता है। आचार्य संघदास गणी ने बृहत्कल्प भाष्य में, आचार्य क्षेमकीर्ति ने भाष्य-टीका में भी यही लिखा है-"आसाढ़ी पुण्णिमोसरणं' भाष्य गाथा 4284 । 'आषाढ़पूर्णिमायां समवसरणं' पर्युषणं भवति एष उत्सर्गः। पर्युषण पर केशलोच की परम्परा है, जो आज भी प्रचलित पर्युषण काल में चालू है। इसका आशय यह है कि पर्युषण पर्व की क्रियाओं में केशलोच भी एक क्रिया है। अब यह देखना है कि केशलोच कब होता था? निशीथ सूत्र और उसके भाष्य में पर्युषण सम्बन्धी समग्र प्रकरण को देख जाइए, स्पष्ट हो जाएगा कि यदि कोई कारण विशेष न हो तो आषाढ़ी पूर्णिमा के पर्युषण पर लोच करना शास्त्र सम्मत है। केश लोच अप्काय आदि की विराधना से बचने के लिए है, अत: वह वर्षा प्रारम्भ होते ही करना है, और वर्षाकाल में फिर प्रतिदिन करते रहना चाहिए। अतएव उत्तरकालीन टीकाकार श्री विनयविजय जी ने, कल्पसूत्र के केशलोच सम्बन्धी समाचारी सूत्र की व्याख्या करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है-"पज्जोसवणाओ परं-पर्युषणातः परं-आषाढ़ चतुर्मासकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीयाः आस्तां दीर्घाः।" पर्युषण पर तप की परम्परा है। यदि पर्युषण पर उपवासादि तप न करे, तो निशीथ सूत्र मूल (10-45) और भाष्य प्रायश्चित्त का विधान करते हैं। यह पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 113 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप भी गत वर्ष के अन्तमें एवं नववर्ष के प्रारम्भ में आषाढ़ी पूर्णिमा को ही किया जाता था। 'वरिसंते उववासो कायव्वो, (गाथा 3208)-निशीथ चूर्णि। वरिसाकालस्स आदीए मंगलं कतं भवति, सड्ढाण य धम्मकहा कायव्वा। पज्जोसवणाए जइ अट्टमं न करेइ तो चउगुरु.... निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा, 3216-17 । पर्युषण पर वार्षिक आलोचना एवं क्षमापना का विधान है। वह भी वर्ष के अन्त में ही करणीय है। इसी प्रसंग में जिनदास महत्तर ने कहा है-“पज्जोसवणासु वरिसिया आलोयणा दायव्वा। वरिसाकालस्स आदीए'-निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा, 3216 'उड्डबद्धे वासासु य दुच्चरियं तं वासासु खिप्पं आलोएव्वं' ____ -निशीथ चूर्णि, गाथा, 3179 । 'वरिसेण पुढविराती' - निशीथ भाष्य, 3189 'जो दिवस-पक्ख-चाउमासिएसु अणुवसंतो संवच्छरिए उवसमति सो पुढविराइसमाणो' -निशीथ चूर्णि, गाथा, 3189 पर्युषण पर कल्पसूत्र के पठन की परंपरा है, जो आज भी पर्युषण के समय प्रचलित है। प्रश्न है, प्राचीन काल में कल्पसूत्र कब पढ़ा जाता था? कल्पसूत्र में साधु- साध्वी के लिए वर्षाकाल-सम्बन्धी गमनागमन आदि विशिष्ट सामाचारी-नियमों का उल्लेख है, अतः उसे पर्युषणा कल्पसूत्र कहते हैं, जो उसे बृहत्कल्प आदि कल्पसूत्रों से पृथक् करता है। पर्युषण पर कल्पसूत्र के पाठ का स्पष्ट आशय है कि वर्षा के आरंभ में ही संघ को वर्षाकालीन विधिनिषेधों का परिबोध हो जाना चाहिए, स्मृति हो जानी चाहिए, ताकि प्रसंगानुसार नियमों का शुद्ध रीति से पालन हो सके। वर्तमान में पर्युषण भादवा सुदी पंचमी को होता है, जबकि वर्षा समाप्त होने को होती है और तब वर्षा सम्बन्धी विधिनिषेधों के श्रवण एवं पठन का क्या अर्थ रह जाता है? यह तो 'मुण्डनानन्तरं नक्षत्रपृच्छनं' अर्थात् सिर मुंडाने के बाद मुहूर्त पूछने जैसी बात हैं अतः प्राचीन ग्रंथों की साक्षी है कि पर्युषणा कल्प वर्षावास के आरंभ में आषाढ़ी पूर्णिमा के समय ही पढ़ा जाता था, फलतः उसी समय पर्युषण होता था। इस संबंध में निशीथ भाष्य है"आसाढ़ी पुण्णिमोसवणा", 3153। इसी भाष्य पर चूर्णि पाठ है- “तत्थ उ 14 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसाढ़े पुण्णिमाए ठिया डगलादीयं गेहंति पज्जोसवणाकप्पं च कहेंति।" बृहत्कल्प भाष्य में भी ऐसा ही पाठ है- 'आसाढ़ी पुण्णिमोसरणं', 4284 । क्षेमकीर्ति उक्त भाष्य की अपनी टीका में आषाढ़ मास की समाप्ति पर कल्पसूत्र के पठन का एवं पर्युषण का स्पष्ट उल्लेख करते है-"आषाढ़ शुद्ध दशम्यामेव वर्षाक्षेत्रे स्थितास्ततस्तेषां पंचरात्रेण डगलादौ गृहीते पर्युषणाकल्पे च कथिते आषाढ़पूर्णिमायां 'समवसरणं' पर्युषणं भवति।" ___ "आषाढ़ पूर्णिमायां स्थिताः पंचाह यावद् दिवा संस्तारक डगलादि गृह्णन्ति रात्रौ च पर्युषणाकल्पं (कल्पसूत्र) कथयंति।" कल्पसूत्र पर्युषणा कल्पसूत्र है, वह वर्षाकाल से सम्बन्धित स्थविर कल्प का निरूपण करता है, अतः कल्पसूत्र का पाठ, बृहत्कल्प भाष्यं एवं निशीथ चूर्णि आदि के अनुसार वर्षावास शुरू होने पर ही करना चाहिए, यह स्वयं कल्पसूत्र के उपसंहार सूत्र से भी प्रमाणित होता है “इच्चेइयं संवच्छरियं थेरकप्पं..." इत्येवं पूर्वोक्तं सांवत्सरिकं-वर्षारात्रिकं स्थविरकल्पम्।" -कल्पसूत्र कल्पलता, व्या. 9 तं पूर्वोपदर्शितं सांवत्सरिकं = वर्षारात्रिकम् ।" -कल्पसूत्र सुबोधिका, व्या. 9 आज का पर्युषणकाल, कभी अपवाद था विधिनिषेधों की क्रियाकाण्ड सम्बन्धी परम्पराएँ देशकालानुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यहाँ तक परिवर्तित होती रहती हैं कि विधान के स्थान में निषेध , और निषेध के स्थान में विधान चालू हो जाता है। उत्सर्ग, जो एक सामान्य रूप से हमेशा किया जाने वाला आचार है, वह अपवाद हो जाता है, और अपवाद, जो एक विशेष परिस्थिति में कभी-कभार किया जाने वाला आचार है, वह उत्सर्ग का, सामान्य पक्ष का रूप ले लेता है। पर्युषण के कालसंबंधी विधान की भी यही स्थिति हुई है। प्राचीनकाल में आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण होता था, वह उत्सर्ग था, एक सामान्य विधान था। संयमी भिक्षु को वर्षावास के आरंभ में ही यदि वर्षावास की स्थिति के योग्य अनुकूल क्षेत्र मिल जाता है, वर्षा होने पर साधू के निमित्त उसे व्यवस्थित एवं पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 115 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीक-ठाक करने के लिए आरंभ-समारंभ होने जैसा कुछ भी प्रपंच न हो, तो साधू आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण कर ले। यदि ऐसा अनुकूल क्षेत्र या मकान न मिले, तो फिर आसपास योग्य क्षेत्र एवं मकान तलाश करता रहे, और जब भी अनुकूल मिल जाए, तब पर्युषण कर ले। पर्युषण करते समय पर्व दिन का ध्यान अवश्य रखे। सावन बदी एकम से पाँच-पाँच दिन के क्रम से पर्व दिन होता है, अतः पाँच-पाँच दिन की वृद्धि के क्रम से अन्तिम एक महीना बीस रात्रि व्यतीत होने पर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को तो पर्युषण अवश्य कर ही लेना चाहिए। मकान न मिले, तब भी क्या, वृक्ष के नीचे ही रहकर पर्युषण अर्थात् वर्षावास के शेष जघन्य 70 दिन बिताए। उक्त कथन पर से स्पष्ट है कि एक महीना बीस रात्रि वाला उल्लेख कारणिक है, विशेष परिस्थिति मूलक है, अतः अपवाद है। इस संबंध में अमर भारती के गत पर्युषण विशेषांक में विस्तार के साथ प्रमाण उपस्थित कर चुका हूँ। संक्षेप में पुनः स्मृति के लिए कुछ प्रमाण इस प्रकार है"एत्थ उ पणगं पणगं कारणियं जाव सबीसतीमासो।" -निशीथ भाष्य, 3152 “ततो सावण बहुल पंचमीए पज्जोसवेति, खेत्ताभावे कारणे पणगे संवुड्ढे दसमीए पन्जोसवेंति, एवं पण्णरसीए। पणगबुड्ढीए ताव कन्जति जाव सवीसतिमासो पुण्णा, सो य सवीसतिमासो च भद्दवयसुद्धपंचमीए पुज्जति।" -निशीथ चूर्णि, 3152 "आषाढ़ पुण्णिमाए पज्जोसवेंति, एस उस्सग्गो। सेसकालं पज्जोसवेंताण अववातो। अववाते वि सवीसतिरातमासातो परेण अतिक्कमेउं ण वट्टति। सवीसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेत्तं ण लब्भति तो रुक्खहेट्ठा वि पज्जोसवेयव्वं।" __-निशीथ चूर्णि, 3153 "एवं कारणिकं रात्रिदिवानां पंञ्चकं पंञ्चकं वर्धयता तावद् नेयं यावत् सविंशतिरात्रो मासः पूर्णः। आषाढ़पूर्णिमायां 'समवसरणं' पर्युषणं भवति एष उत्सर्गः। शेषकालं पर्युषण मनुतिष्ठतां सर्वोऽप्यपवादः। अपवादेऽपि सविंशतरावाद् मासात् परतो नातिक्रमयितुं कल्पते। यद्य तावत्यपि गते वर्षाक्षेत्रं न लभ्यते ततो वृक्षमूलेऽपि पर्युषणयितव्यम्।" -बृहत्कल्प भाष्य टीका, 8284 ___116 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इय सत्तरी जहण्णा , असिती णउई दसुत्तरसयं च।" -बृहत्कल्प भाष्य, 4285 “ये किल आषाढ़पूर्णिमायाः सविंशतिरात्रे मासे गते पर्युषणयन्ति तेषां सप्ततिदिवसानि जघन्यो वर्षावासावग्रहो भवति। भाद्रपदशुक्लपंञ्चम्या अनन्तरं कार्तिकपूर्णिमायां सप्ततिदिनसद्भावात्... भाद्रपदामावास्यां पर्युषणे क्रियमाणे पंचसप्ततिर्दिवसाः, भाद्रपदबहुलपञ्चम्यां पञ्चासीतिः श्रावणशुद्धदशम्यां पञ्चनवतिः, श्रावणामावास्यां पञ्चोत्तरं शतम् श्रावणबहुलपञ्चम्यां पञ्च दशोत्तरं शतम्। आषाढपूर्णिमायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तरं दिवस-शतम्।" -बृहत्कल्प, भाष्य टीका, 4285 इयणिं पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रहोच्यतेइय सत्तरी जहण्णा असिती, नउती दसुत्तरसयं च। जति वासति मग्गसिरे, दसरायं तिन्नि उक्कोसा। चउण्हं मासाणं वीसुत्तरं दिवससतं भवति। सवीसतिमासो पण्णासं दिवसा ते वीसुत्तरसयमज्झाओ सोहिया, सेसा सत्तरी। जे आषाढ़चाउम्मासियातो सवोसतिमासे गते पज्जोसवेंति, तेसिं सत्तरी दिवसा जहण्णो वासकालोग्गहो भवति...." -निशीथ भाष्य, चूर्णि, 3154 कल्पसूत्र में जो भगवान् महावीर के नाम से 'समणे भगवं महावीरे... के रूप में एक महीना बीस रात्रि वाला पाठ ळे, वह कल्पसूत्रकार के स्वयं के शब्दों में कारणिक है, अतः अपवाद है, उत्सर्ग नहीं। उक्त पाठ के अनंतर शिष्य के द्वारा प्रश्न उपस्थित किया गया है कि श्रमण भगवान् महावीर ने एक महीना 20 रात्रि बीतने पर पर्युषण वर्षावास किया, यह किस हेतु से कहा जाता है-से केण?णं भंते एवं वुच्चई-समणे भगवं महावीरे वासाणं...?' उक्त शंका के उत्तर में कल्प सूत्रकार 'जओ' शब्द का, जिसका अर्थ संस्कृत में 'यतः, और हिन्दी में 'क्योंकि' होता है, प्रयोग करते हुए कहते हैं कि “जओ णं पाएणं अगारीणं अगाराई कडियाई, कंपियाई, छन्नाइं, लित्ताई, घट्टाई, मट्ठाई, संपधूमियाई, खाओदगाई, खायनिद्धमणाई, अप्पणो अट्टाए परिणामियाइं भवंति से तेण्डेणं एवं वुच्चई-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकूते वासावासं पज्जोसवेइ।" पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 117 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त पाठ का संक्षेप में भावार्थ यह है कि चूंकि इस समय तक गृहस्थ स्वयं अपने लिए प्रायः अपने मकानों को छत के रूप में आच्छादित कर लेते हैं, लीप लेते हैं, जल निकालने के लिए मोरी आदि ठीक कर लेते हैं, इत्यादि व्यवस्था हो जाने पर साधु को निर्दोष मकान मिल जाता है। ऐसे व्यवस्थित मकान में साध के निमित्त से फिर आरंभ आदि कुछ नहीं करना पड़ता, अतः वहाँ पर्युषण हो सकता है। इसका अर्थ है कि यदि प्रारंभ में ही मकान एवं क्षेत्र ठीक मिल जाए, तो आषाढ़ी पूर्णिमा आदि के दिन कभी भी पाँच-पाँच दिन के क्रम से पर्युषण कर सकता है। इसीलिए उक्त प्रसंग में ही आगे कहा है कि 'अंतरा वि य से कप्पइ, नो से कप्पइ तं रयणिं उवाइणावित्तए।' अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर भादवा सुदी पंचमी तक बीच के पर्व दिनों में भी कभी पर्युषण कर सकते हैं, किन्तु भाद्रपद शुक्ला पंचमी की रात्रि को लांघ कर आगे नहीं कर सकते। आज तो प्रायः सर्वत्र पहले से ही व्यवस्थित भवन मिल जाते हैं, अतः अकारण 50 दिन तक आगे बढ़ना क्या अर्थ रखता है? अब तो आषाढ़ पूर्णिमा को वर्षावास-पर्युषण कर लेते हैं, गृहस्थ जनों को भी पहले से ही चातुर्मास करने की बात मालूम हो जाती है, फिर 50 दिन बाद सिर्फ एक वार्षिक प्रतिक्रमण के लिए, जो कि सिद्धांतानुसार वर्ष की समाप्ति पर आषाढ़ पूर्णिमा को ही कर लेना चाहिए, पुनः पर्युषण करना, कितना न्यायोचित है, कभी सोचा है इस संबंध में कुछ? प्रचलित मान्यता के पक्ष में व्यर्थ ही आधारहीन असत् कल्पनाएँ संयमी जीवन के लिए कितनी विघातक हैं, निर्मल मन से कुछ विचारना तो चाहिए। असत्य असत्य है, फिर भले ही वह सांसारिक कार्यक्षेत्र में बोला जाए, या तथाकथित श्रद्धा के नाम पर धर्म के क्षेत्र में बोला जाए। यदि गहराई से विचार किया जाए, तो सांसारिक क्षेत्र की अपेक्षा धर्म के क्षेत्र में असत्य का प्रयोग करना, अधिक भयावह है, अधिक पापवर्द्धक है। प्राचीन आचार्य ही नहीं, अर्वाचीन आचार्य, उपाध्याय एवं अन्य विद्वान मुनि भी, पर्युषण के संबंध में यही सब कुछ कहते तथा लिखते आ रहे हैं, यद्यपि उनकी अपनी सांप्रदायिक मान्यताएँ पूर्व पक्ष से काफी बदली हुई हैं। उपाध्याय समयसुंदर ने कल्पसूत्र की अपनी कल्पलता व्याख्या में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पर्युषण करने की बात, वर्षानुकूल क्षेत्र के अभाव में ही स्वीकार की है। उन्होंने जघन्य 70 दिन का चौमास माना है। इस 70 दिन के चौमास में भी अशिव, रोग, राजा की दुष्टता, भिक्षा का अभाव आदि कारणों से अन्यत्र विहार करने का उल्लेख किया है: 118 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ श्री आदिनाथ महावीर साधूनां वर्षाया अभावेऽपि क्षेत्र सद्भावे उत्कृष्टतः चतुर्मासिकस्थितिरूपः पर्युषणाकल्पः प्रोक्तः । क्षेत्रस्य अभावे तु भाद्रपद सुदि पंचमी यावत् क्षेत्र गवेषणा कार्या, भाद्रपद सुदिपंचमीतः आरभ्य सप्तति ( 70 ) दिनस्थितिरूपोऽवश्यं कर्तव्य एव । तत्राऽप्ययं विशेषो, यथा- कदाचित् अशिवमुत्पद्यते, भिक्षा वा न लभ्यते, राजा वा दुष्टो भवति, ग्लानत्वं च जायते तदा सप्ततिदिनेभ्य अर्वागपि अन्यत्र गमने कारणत्वान्न दोषः । आचार्य काल का इतिहास भी उक्त प्राचीन पक्ष का ही समर्थन करता है। कालकाचार्य उज्जयिनी में वर्षावास कर रहे थे, परन्तु वहाँ तत्कालीन राजा के विरोध के कारण उज्जयिनी से प्रतिष्ठान पुर को वर्षावास करने के लिए विहार कर दिया और प्रतिष्ठापुर के श्रमण संघ को सूचना दिला दी कि जबतक मैं आऊँ तबतक आप पर्युषण न करें - "पतिट्ठानसमणसंघस्स य अज्जकालकेहिं संदि जावाहं आगच्छामि ताव तुज्झेहिं णो पज्जोसियव्वं " - निशीथ चूर्णि, दशमोद्देशक । उक्त पाठ में आचार्य ने प्रतिष्ठानपुर के साधु संघ को जो यह सूचना दी कि मैं जबतक आऊँ तबतक पर्युषण न करें, इसका क्या अर्थ है? जब पर्युषण आज के अनुसार एकान्तरूप से भादवा सुदि पंचमी को ही होता था, पहले नहीं, तो उनके द्वारा 'पहले न करना' यह क्या सूचित करता है? यही तो सूचित करता है कि पर्युषण क्षेत्रीय परिस्थिति के अनुसार भादवा सुदि पंचमी से पहले, बहुत पहले भी होता था । आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर 50 दिन तक कभी भी पर्व के दिन हो सकता था । पर्युषण का शब्दार्थ पर्युषण का मूल शब्दार्थ रहना है, स्थित होना है। 'वस' धातु निवास अर्थ में है। अतः शब्दार्थ की दृष्टि से भी 'वर्षाकाल में साधू का एकत्र निवास' ही पर्युषण का मौलिक अर्थ प्रतिफलित होता है। आचार्य अभयदेव ने समवायांग (70) में ‘पज्जोसवेइ' का संस्कृतार्थ 'परिवसति' किया है। पूज्य श्री घासीलालजी ने भी अपनी समवायांगटीका में 'पज्जोसवेइ' का अर्थ 'परिवसति' ही किया है। 'परिवसति' का अर्थ निवास करना है, रहना है, यह साधारण दशवीं कक्षा का संस्कृतपाठी बालक भी बता सकता है। पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 119 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र के टीकाकार श्री विनयविजयजी और श्री समयसुन्दर जी ने भी यही अर्थ किया है: “उष् निवासे' इति आगमिको धातुः ‘वस् निवासे' गणसंबंधिको वा।" ___-कल्पलता, व्याख्यान 9 “पज्जोसणाकप्पेति' परि-सामस्त्येन उषणा-वसनं पर्युषणा।" -सुबोधिका, व्याख्यान 9 “वासावास पज्जोसवियाणं'-वर्षाकाले पर्युषितानां-स्थितानाम्।" ___ -कल्पलता, व्या. 9 “वर्षावास चतुर्मासक पर्युषितानां-स्थितानाम्।" -सुबोधिका, व्याख्यान 9 क्या पर्युषण दो हैं, दो काल में हैं? पर्युषण संबंधी मेरे विचारों की चर्चा, बिना मेरे नामोल्लेख के जिनवाणी (मार्च-अप्रैल 70) में हुई है। उसमें मेरे वर्षावास रूप पर्युषण के अपवाद पक्ष को तो स्वीकार किया है, भले ही वह अस्पष्ट शब्दावली में हो, परंतु वर्तमान सांप्रदायिक मान्यता का आग्रह नहीं टूट पाया है, अतः पर्युषण के दो रूप उपस्थित किए हैं, एक, वर्षाकाल में एकत्र रहना, और दूसरा, वार्षिक पर्व (संवत्सरी) और उपसंहार में लिखा है-"इनमें वार्षिक पर्व रूप पर्युषण भाद्रपद शुक्ला पंचमी को होता है, आदि। प्रथम अर्थ में वर्षावास लिया गया है, जिसका जघन्यकाल 70 रात्रि है और उत्कृष्ट काल 4 मास माना गया है।" अपने उक्त मत के पक्ष में कल्पसूत्र की सुबोधा या सुबोधिका-व्याख्या में से एक अंश उद्धृत किया है-“तत्र पर्युषणाशब्देन सामत्स्येन वसनं वार्षिक पर्व हय अपि कथ्यते। तत्र वार्षिक पर्व भाद्रपद सित पञ्चम्याम्।" यह उल्लेख श्री विनयविजयजी का है, जो बहुत उत्तरकालीन 17वीं शती के सुप्रसिद्ध मुनि हैं। यह युग सांप्रदायिक आग्रह का युग था। यही कारण है कि उन्होंने अपने समय में प्रचलित अधिक श्रावण-भाद्रपद मास के द्वंद्व का भी खूब खुलकर खंडन किया है। दो सावण होने पर दूसरे श्रावण में संवत्सरी करने वालों की प्रताड़ना कर के भादवा में ही संवत्सरी करने के अपने पक्ष का बड़े ही घटाटोप से मंडन किया है।10 मैं समझता हूँ, यह विचार तो जिनवाणी को ___ 120 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्य नहीं होगा, क्योंकि उसके अपने अभिमत पक्ष से विपरीत जो है। अस्तु जैसे कि यह अधिक श्रावण-भाद्रपद का मत श्री विनयविजयजी की अपनी संप्रदाय की मान्यता से प्रभावित है, उसी प्रकार वर्षावास और वार्षिक पर्व के रूप में दो पर्युषण और उनके परस्पर विभिन्न काल भी तत्कालीन संप्रदायों की रूढ़ मान्यताओं से ही प्रभावित एवं प्रेरित हैं। क्योंकि निशीथ भाष्य, निशीथ चूर्णि, बृहत्कल्प भाष्य, बृहत्कल्प भाष्य टीका, समवायांग सूत्र की अभयदेव सूरि कृत टीका-इत्यादि अद्यावधि अध्ययन में आए प्राचीन ग्रंथों में, जिनमें कि पर्युषण संबंधी विस्तृत एवं मौलिक चर्चा है, कहीं भी इस प्रकार पर्यषण के दो भेद और उनके दो विभिन्न काल देखने में नहीं आए हैं। यदि ऐसा कुछ होता तो वे महान् श्रुतधर आचार्य अवश्य उल्लेख करते। अतः उनके समक्ष श्री विनय विजयजी की मान्यता को नहीं दिया जा सकता। प्राचीन आचार्यों ने, जिनके अनेक उद्धरण मैं पीछे दे आया हूँ, वर्षावास के साथ ही वार्षिक आलोचना एवं क्षमापना का जिक्र किया है। पर्युषण एक ही है वर्षावास रूप। उसके साथ आलोचना, क्षमापना, कल्पसूत्र वाचन, तप और केशलोच आदि कुछ क्रियाएँ हैं, जो पर्युषण के अंग स्वरूप हैं, साधुसंघ के लिए करणीय हैं। और उक्त सब क्रियाएँ पूर्वनिर्दिष्ट उद्धरणों के अनुसार, प्राचीन आचार्यों ने वर्षावास रूप पर्युषण के साथ ही करनी बताई हैं, उनके लिए भिन्न काल का कोई उल्लेख नहीं है। श्री विनय विजयजी की वार्षिक पर्व वाली बात तो तब प्रामाणिक मानी जाती, जब कि आषाढ पूर्णिमा को वर्षावास बैठता, और उस समय वर्ष पूरा नहीं होता, भादवा में होता, फलतः आषाढ़ पूर्णिमा को वर्षावास-चौमास बैठाकर, वार्षिक आलोचना के लिए सुदीर्घ भादवा का महीना पकड़ा जाता। जैन परंपरा के अनुसार वर्ष आषाढ़ में पूर्ण होता है। यह हम भगवती सूत्र का उद्धरण देकर पीछे सिद्ध कर आए हैं। अतः सिद्ध है कि वार्षिक पर्वरूप पर्युषण भी आषाढ़ पूर्णिमा को ही होता था। श्री विनय विजयजी स्वयं भी एक तरह से, पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को ही मानते हैं। वार्षिक केशलोच भी पुर्यषण क्रियाकाण्ड का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसका पालन आज भी वर्तमान पर्युषण के साथ किया जाता है। कल्पसूत्र की अपनी टीका में विनय विजयजी ने उक्त केशलोच का काल वर्षावास से पूर्व पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 121 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ़ चातुर्मासी ही माना है, जैसा कि हम पीछे वह उद्धरण दे आए हैं-पर्युषणातः परं-आषाढ़चतुर्मासकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीया:....।" क्षेत्रादि के अभाव में पर्युषण के लिए पाँच-पाँच दिन की अभिवृद्धि करते हुए अंत में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को आपवादिक पर्युषण की प्राचीन परंपरा का उल्लेख श्री विनय विजयजी ने सुबोधिका में किया है और लिखा है कि वह विधि संघ की आज्ञा से समाप्त कर दी गई। समाप्त भले ही कर दी गई हो, और अब वह समाप्त ही है। परंतु इससे इतना तो पता चलता है कि प्राचीन काल में यह परंपरा थी। उक्त चर्चा पर से वह निष्कर्ष फलित होता है कि पर्युषण एक ही था, आषाढ़ पूर्णिमा का, उसी के साथ वार्षिक आलोचना भी होती थी, अलग नहीं। अतः विनय विजयजी का वार्षिक पर्व का, वर्षावास पर्युषण से भिन्नता के रूप में उल्लेख, तत्कालीन प्रचलित मान्यता से प्रभावित है, सैद्धांतिक एवं ऐतिहासिक नहीं। समवायांग सूत्र का पाठ : जिसकी बड़ी चर्चा है समवायांग सूत्र के 70 वें समवाय का पर्युषण संबंधी पाठ काफी समय से चर्चा का केन्द्र है, दो सावण या दो भादवा होने पर दूसरे सावण में एवं पहले भादवा में संवत्सरी पर्व मनाने वालों के द्वारा उक्त पाठ को जब तब आगे लाया जाता है, फलतः एक महीना बीस रात्रि अर्थात् पचास दिन का, हालांकि मूल में 50 दिन का शब्दशः उल्लेख नहीं है, काफी हल्ला रहता है। और कभी-कभी तो इसी पर आराधक और विराधक का फैसला भी सुनाया जाने लगता है। यह पाठ 70 वें समवाय में है, 50 वें समवाय में नहीं। इसका स्पष्ट भाव है कि सूत्रकार आगे के 70 दिन को पर्युषण के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं, और यह जघन्य 70 दिन के वर्षावास अर्थात् चातुर्मास की ओर ही संकेत है। इस पर से साफ है कि यह पाठ वर्षावास रूप पर्युषण का ही है, वर्षावास से भिन्न तथाकथित वार्षिक पर्व का नहीं। समवायांग सूत्र के टीकाकार सुप्रसिद्ध श्रुतधर नवांगी वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि हैं। समवायांग सूत्र के उक्त पर्युषण सूत्र पर उन्होंने अपनी टीका में वर्षावास रूप पर्युषण की ही चर्चा की है। जिनवाणी और सम्यग्दर्शन के द्वारा ___.122 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपादित वार्षिक पर्व की तो वहाँ गंध तक नहीं है। एक शब्द भी तो ऐसा नहीं है, जिस पर इतना हल्ला है। पाठकों की जानकारी के लिए हम यहाँ मूल पाठ सहित टीका शब्दशः उद्धृत कर रहे हैं। ___“समणे भगवं महावीरे वासाण सवीसराए मासे वइकूते सत्तरिएहिं राइंदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ।" टीका-वर्षाणां चतुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरात्रे विशतिदिवसाधि के मासे व्यतिक्रान्ते=पञ्चाशति दिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः। सप्तत्यां च दिनेषु शेषेषु भाद्रपद शुक्ल पञ्चम्यामित्यर्थ:। वर्षा सु आवासो वर्षावास := वर्षा स्थान 'पज्जोसवेइ' परिवसति-सर्वथा वासं करोति। पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविध वसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति। भाद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयम्। साधारण संस्कृतज्ञ भी देख सकता है कि टीकाकार अभयदेव क्या कहते हैं? 'वर्षासु आवासो वर्षावासः वर्षास्थानं, पज्जोसवेइ परिवसतिं-सर्वथा वासं करोति' का भाव है कि “बीस रात्रि सहित एक महीना बीतने पर वर्षावास-वर्षाकाल में एकत्र निवास, अर्थात् चौमास करना। आगे के शब्दों का भाव है कि पहले के 50 दिनों में तो साधु के योग्य वसति अर्थात् मकान का अभाव आदि कारण हों तो साधु स्थानान्तर भी कर सकता है, स्थान बदल सकता है, किन्तु भाद्रपद शुक्ला पंचमी से तो वृक्ष के नीचे भी वर्षावास के लिए निवास करे, एक ही जगह रहे, स्थान न बदले।" विचारशील पाठक देख सकते हैं, यह वर्षावास करने का सूत्र है या वार्षिक पर्व का? वार्षिक पर्व का तो एक शब्द भी नहीं है। इस पर भी बड़े अहं में आकर सम्यग्दर्शन लिखता है कि "कविजी ने.... समवायांग का मूल पाठ तो ठीक दिया, किन्तु उस मूल पाठ का जो भाव बतलाया वह असत्य है। .... इस असत्य का कारण सामान्य पाठकों को अंधेरे में रखना है। पाठकों को अंधेरे में मैं रख रहा हूँ, या सम्यग् दर्शन? मैंने तो टीका के आध र पर पर्युषण का वर्षावास में स्थित रहना'-अर्थ किया था। इस संबंध में किसी भी संस्कृतज्ञ सज्जन से पूछा जा सकता है कि मूल के 'वासावासं' और टीका के 'वर्षावस्थानं' का क्या अर्थ है? 'पज्जोसवेइ' का टीकाकार ने 'परिवसति' और परिवसति का फिर 'सर्वथा वासं करोति' जो अर्थ किया है, वह क्या है? पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 123 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह मेरे अर्थ के अनुकूल है, या सम्यग्दर्शन के? सम्यग् दर्शन में अर्थ किया है—“ श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा के मासयुक्त बीस रात्रि व्यतीत होने पर और वर्षावास के सत्तर दिन शेष रहने पर पर्युषण किया । " यह कैसा विचित्र अर्थ है। मैं अर्थ की अन्य भूलों की ओर न जाकर प्रस्तुत की ही चर्चा कर रहा हूँ । 'वर्षावास के सित्तर दिन शेष रहने पर इसमें वर्षावास के साथ षष्ठी विभक्ति कहाँ है, जिसका संबंध सत्तर दिन से जोड़ते हैं। सत्तर दिन का संबंध पहले के 'वासाणं' के साथ है, वर्षावास के साथ नहीं। मूल में वर्षावास के लिए तो द्वितीया विभक्ति है, जिसका सम्बन्ध पज्जोसवेइ के साथ है । वर्षावास, 'पज्जोसवेइ' - 'परिवसति' का कर्म है। अतः 'वासावासं पज्जोसवेइ' का सही अर्थ होता है, 'वर्षावास के प्रति निवास करना'। इसीलिए टीकाकार ने उपसंहार वाक्य में 'सर्वथा वासं करोति' अर्थ किया है, जैसा कि मैंने हिन्दी में अर्थ किया है - ' वर्षावास में स्थित रहना'। मालूम होता है, सम्यग्दर्शन तथा उसके सहयोगियों को क्या तो प्राकृत तथा संस्कृत का परिबोध नहीं है । यदि परिबोध है तो वह निश्छल भाव से सही सत्यस्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। व्यर्थ ही प्रचलित मान्यताओं के व्यामोह में भद्र जनता को असत्य के सघन अंधेरे में गुमराह कर रहे हैं। यह श्रद्धा के नाम पर सत्य के साथ नग्न खिलवाड़ है, जिसे भविष्य का इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा। समवायांग सूत्र के आधुनिक टीकाकार पूज्य श्री घासीलालजी हैं। पूज्य श्री समवायांग के उक्त पर्युषण संबंधी सूत्र का हिन्दी और गुजराती अर्थ करते हुए तो गड़बड़ा गए हैं, मूलानुसारी ठीक अर्थ नहीं किया है। मालूम होता है, प्रचलित मान्यता के कारण जनश्रद्धा के नाम पर कुछ विभ्रम में पड़ गए हों। यह विभ्रम ही है कि संस्कृत में कुछ अर्थ है तो हिन्दी में कुछ और, तथा गुजराती में कुछ और ही । । हिन्दी में अर्थ है - श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षाकाल के एक महीना बीस दिन बीतने पर पर्युषण किया और अवशिष्ट 70 सत्तर दिन रहने पर वर्षाकाल - चातुर्मास पूरा किया। गुजराती में अर्थ है - श्रमण भगवान् महावीर चौमासाना 1 एक मास अने बीस दिवस व्यतीत थया पछी पर्युषण कर्या अने बाकीना सित्तेर दिवस पूरा थतां चातुर्मास पूर्ण कर्यं । 124 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठक देख सकते हैं, कितना अंतर है दोनों में? हिन्दी में है '70 दिन रहने पर अर्थात् बाकी रहने पर चातुर्मास पूरा किया। यह क्या अर्थ है? क्या भादवा सुदी पंचमी को वर्षाकाल चौमास पूरा कर दिया और फिर ग्रामानुग्राम विहार करने लगे? गुजराती में इसके विपरीत अर्थ किया है-बाकीना सित्तेर दिवस पूरा थतां चातुर्मास पूर्ण कर्यु। मूल पाठ में तो ऐसा कुछ नहीं है कि 70 दिन पूर्ण होने पर चौमास पूरा किया। यह अद्भूत अर्थ कहाँ से, मूलसूत्र के किन शब्दों में तैयार किया है? कहीं से भी तो नहीं। यह तो प्रचलित सांप्रदायिक मान्यता की उलझन है। और इस प्रकार की उलझनों में उलझे मुनिराजों से, फिर वे कोई भी क्यों न हों, सत्य की रक्षा का क्या भरोसा किया जा सकता है? यही कारण है कि श्रद्धा के नाम पर शास्त्रों, आगमों या ग्रंथों के सर्वथा असंगत एवं विपरीत अर्थ कर दिए जाते हैं और मुग्ध जनता इन अर्थों की जर्जर लाठी पकड़े अंधकार में ठोकर खाती फिरती है। . पूज्यश्री हिन्दी और गुजराती में तो गड़बड़ा गए हैं, किन्तु उन्होंने संस्कृत टीका में आचार्य अभयदेव का ही अनुसरण किया है। प्रायः उसी शब्दावली का प्रयोग किया है। लिखा है "श्रमणो भगवान् महावीरः 'वासाणं' वर्षाणां वर्षाकालस्य 'सवीसइराए मासे वइक्कते' सविंशतिरात्रे मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाश्द्दिनेष्वतीतेषु इत्यर्थः, 'सत्तरिएहिं राइंदिएहिं सेसेहिं' सप्ततौ रात्रिन्दिवेषु-सप्ततिदिनेष्ववशिष्टेषु 'वासावासं' वर्षावासं-वर्षास्वावासस्तं वर्षावासं वर्षाकालावस्थितिमित्यर्थः, पज्जोसवेइ' परिवसति।" उपर्युक्त संस्कृत टीका को स्वयं ध्यान से पढ़िए, या किसी संस्कृतज्ञ विद्वान् से पढ़वा लीजिए, पूज्य श्री घासीलालजी का हृदय स्पष्ट हो जाएगा। वासावासं' का अर्थ वर्षावास किया है, जिसका स्पष्टीकरण उन्हीं शब्दों में है-'वर्षाकालावस्थिति' अर्थात् वर्षाकाल में अवस्थिति, और पज्जोसवेइ का अर्थ है-परिवसति। टीका में एक शब्द भी आज के तथाकथित वार्षिक पर्व का नहीं है। समवायांग सूत्र के उक्त 'समणे भगवं महावीरं' के मूल पाठ का, जिसके संबंध में जिनवाणी और सम्यग्दर्शन का यह उद्घोष है कि यह वार्षिक पर्वरूप पर्युषण - संबंधी पाठ है, देखिए, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर (सं 1995) से प्रकाशित समवायांग के गुजराती अनुवाद में क्या अर्थ किया है? पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 125 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ - " श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वर्षाऋतुना वीश दिवस सहित एक मास व्यतीत थये सते अने सीतेर रात्रिदिवस शेष रहे सते वर्षावास प्रत्ये निवास कर्यो (चौमासु रह्या) (आ हकीकत पर्युषणामाटे समजवी ) " उक्त संस्करण में ही अभयदेव सूरि की टीका का भी अनुवाद है - " समणे इत्यादि" - वर्षाना एटले चार मासना वर्षाकाल ना वीश रात्रि सहित एटले वीश दिवस अधिक एक मास व्यतीत थये सते अर्थात् पचास दिवसो गये सते तथा सीतेर रात्रि दिवस शेष रहे सते, अर्थात् भाद्रपदनी शुक्ल पंचमी ने वर्षावास प्रत्ये एटले वर्षाकाल ना अवस्थान प्रत्ये 'पज्जोसवेइ त्ति परिवसति' एटले सर्वथा प्रकारे निवास करे छे । पहेलाना पचास दिवसो मां तथा प्रकारनी (रहवाने योग्य) वसति नो अभाव विगेरे कारण होय तो बीजा स्थाननो पण आश्रय करे छे, परन्तु भाद्रपद शुक्ल पंचमी ( पंचमी थी ) तो वृक्षनी नीचे विगेरे कोई पण स्थले ( निश्चित ) निवास करे छे, ए आनुं तात्पर्य छे।” उक्त अनुवाद के कर्ता श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् हैं, जो वर्तमान में पर्युषण के प्रचलित पक्ष को ही मानने वाले संप्रदाय से सम्बन्धित हैं। मैं उनका अभिनन्दन करूँगा कि वे सत्य के प्रति कितने निष्ठावान हैं। अपनी वर्तमान परम्परा के विपरीत होते हुए भी उन्होंने प्राचीन उल्लेखों को तोड़ा मरोड़ा नहीं, अस्पष्ट भाषा में उलझाया नहीं। जो सत्य था, उसे स्पष्ट शब्दों में लिखा । मैं नम्र निवेदन करूँगा कि हमारे पक्ष के विद्वान् भी प्रामाणिकता से काम लें। अपनी प्रचलित मान्यताओं के व्यामोह में सत्य का अपलाप न करें, ऐतिहासिक मूल उल्लेखों को तोड़े - मरोड़े नहीं । क्या भगवान् महावीर प्रतिक्रमण करते थे? जिनवाणी, सम्यग्दर्शन तथा हिन्दी गुजराथी में पूज्य श्री घासीलालजी और दूसरे भी कितने ही महानुभाव समवायांग सूत्र के उक्त बहुचर्चित पाठ का अर्थ करते हुए काफी गड़बड़ा गए हैं। सम्यग्दर्शन लिखता है - " श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षावास के सित्तर रात्रि दिन शेष रहने पर पर्युषण किया । " जिनवाणी लिखती है-“ श्रमण भगवान् महावीर ने 1 मास 20 दिन रात्रि बीतने पर चातुर्मास के 70 रात्रि दिन शेष रहने पर पर्युषण किया । " पूज्य श्री घासीलाल जी भी, जैसा 126 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 कि पहले लिख आए हैं, काफी गड़बड़ के बाद यही लिखते हैं कि “ श्रमण भगवान् महावीर ने पर्युषण किया । " सम्यग्दर्शन की भूल समझ में आ सकती है, चूँकि उसका लेखक संस्कृत प्राकृत का अभ्यासी विद्वान् नहीं है । परन्तु मुझे तो आश्चर्य होता है, जिनवाणी के विद्वान् लेखक तथा समवायांग सूत्र के अर्थकार पूज्य श्री पर कि वे कैसे खोटा सिक्का बाजार में चला रहे हैं। क्या यही धर्मश्रद्धा की सुरक्षा का पथ है? वर्षावास शब्द और पज्जोसवेइ के साथ उसके व्याकरण सम्मत सम्बन्ध को साफ डकार जाते हैं, उसका उल्लेख तक नहीं करते। कैसे करें? वह साफ-साफ उनकी मान्यता को मूल से ही जो उखाड़ देता है। खैर ! मैं उक्त लेखको से पूछता हूँ, आप पर्युषण का वर्षावास अर्थ तो आषाढ़ पूर्णिमा को मान लेते हैं। उस वर्षावास का भादवा सुदी पंचमी से कोई सम्बन्ध नहीं है। आपकी दृष्टि में उक्त पंचमी का पर्युषण वार्षिक पर्व है, ओर इसके लिए समवायांग सूत्र के पाठ को आप उद्धृत करते हैं। मैं पूछता हूँ, आपके लेखानुसार श्रमण भगवान् महावीर ने उक्त पंचमी के दिन वर्षावास नहीं, अपितु वार्षिक पर्वरूप पर्युषण किया, तो भगवान् ने क्या पर्युषण किया? क्या भगवान् ने उस दिन, जैसा कि आप हम सब करते हैं, अपनी भूलों की, अपने चारित्र - सम्बन्ध अतिचारों की आलोचना की ? संवत्सरी प्रतिक्रमण किया? बताइए तो सही वार्षिक पर्व के रूप में क्या किया ? तीर्थंकर केवली का चारित्र निरतिचार चारित्र होता है, उनके अप्रमत्त संयम जीवन में दोष नहीं लगते, अतिचार नहीं लगते। अतः वे प्रतिक्रमण नहीं करते। कहाँ देख लिया - यह तीर्थंकर केवल ज्ञानियों के द्वारा वार्षिक पर्व का मनाना, आलोचना-प्रतिक्रमण करना ? क्या कहीं पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज की वह भूल ही तो आपको तंग नहीं कर रही है, जो उन्होंने समवायांग सूत्र के उक्त पाठ के अनुवाद में की है। उन्होंने लिखा है " श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी ने वर्षाकाल के चार मास में से एक मास और 20 दिन व्यतीत हुए पीछे व चातुर्मास के 70 दिन शेष रहते संवत्सरी प्रतिक्रमण किया । " - सम० पृ० 176 पूज्य ऋषिजी तो प्राकृत भाषा के विद्वान नहीं थे, संस्कृत टीका भी उन्होंने नहीं पढ़ी थी, और इधर प्रचलित मान्यता उनके समक्ष थी, अतः उन्होंने पर्युषण का सीधा अर्थ 'संवत्सरी प्रतिक्रमण' लिख छोड़ा। किन्तु आप तो ऐसे नहीं है। आपसे यह सब कैसे होता है? मान्यता का व्यामोह सत्य पक्ष को पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 127 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार करने से इन्कार करता है न? 'दृष्टिरागो हि पापीयान् दुस्त्यजो विदुषामपि । ' इसीलिए साफ शब्दों में संवत्सरी अर्थ न करके, 'पर्युषण' शब्द का यों ही गोलमाल भाषा में प्रयोग करते हैं, किन्तु अन्दर में रखते हैं, उसी वार्षिक संवत्सरी प्रतिक्रमण रूप अर्थ को । समवायांग सूत्र और कल्पसूत्र के किसी भी टीकाकार ने उक्त पाठ के 'पज्जोसवेइ' पाठ का वार्षिक प्रतिक्रमण रूप, जैसा कि आज परम्परा प्रचलित है, अर्थ नहीं किया है, अपितु कारणिक वर्षावास के लिए स्थिर रहना ही अर्थ किया है । समवायांग सूत्र की श्री अभय देवीय टीका का पाठ दिया जा चुका है। कल्पसूत्र के तो मूल में ही उक्त समय के लिए हेतु दिया है, 'जओ णं...... आदि शब्दों में। वह पाठ भी उद्धृत कर आए हैं, जो स्पष्ट उल्लेख करता है कि श्रमण भगवान् महावीर ने बीस दिन अधिक एक मास बीतने पर वर्षावासरूप पर्युषण किया, आज का प्रचलित संवत्सरी प्रतिक्रमण नहीं । और तो और, कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका के सम्पादक आचार्य सागरानन्द सूरि, जो अभी हुए हैं, उन्होंने भी भगवान् महावीर के द्वारा वर्षावास रूप पर्युषण करना ही लिखा है, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण रूप पर्युषण करने का खंडन किया है। जैन परम्परा, भगवान् के लिए सांवत्सरिक प्रतिक्रमण तो क्या, कोई भी प्रतिक्रमण नहीं मानती। अतः प्रत्येक ईमानदार लेखक वही लिखेगा, जो श्री सागरानन्द सूरि इस सन्दर्भ में लिखते हैं- " अवस्थानपर्युषणापेक्षयैव एतत्सूत्रम् । ततो जिनस्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणस्य अभावेऽपि न क्षतिः । अतएवाऽग्रे ' अगारीणं अगाराई'. इत्यादिनाऽवस्थानोपयोगि एव उत्तरम् । " यदि विद्वान् लेखकों का अभिप्राय सांवत्सरिक प्रतिक्रमण नहीं है, वार्षिक आलोचना नहीं है, तो फिर 'पर्युषण' से आपका क्या अभिप्राय है? प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रमाणित वर्षावास अर्थ मानते नहीं, सांवत्सरिक आलोचना एवं प्रतिक्रमण भी नहीं, तो फिर पर्युषण के रूप में भगवान् महावीर ने कौन-सा कैसा पर्युषण किया? आखिर कुछ स्पष्ट तो होना चाहिए। और जब भगवान् महावीर से सम्बन्धित पर्युषण की बात स्पष्ट हो जाए तो फिर आगे होने वाले श्रमणों की बात स्पष्ट हो । आर्यकालक ने भी वर्षावास ही किया था आर्यकालक ने उज्जयिनी से विहार कर प्रतिष्ठानपुर में भादवा सुदी 4 को वर्षावास ही आरंभ किया था। क्योंकि कालक कथा में, पर्व लेखानुरूप स्पष्ट 128. प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है-'मैं आऊँ, तबतक पर्युषण न करना।' जब आज की मान्यता के अनुसार भादवा सुदी पंचमी से पहले पर्युषण होता ही नहीं था, तब उन्हें प्रतिष्ठान श्रमण संघ को यह आदेश भेजने की क्या आवश्यकता थी? आर्यकालक ने एक दिन पहले पर्युषण किया तो इतिहास में उसका उल्लेख आया, किन्तु, औत्सर्गिक कही जानेवाली आषाढ़ पूर्णिमा से पचास दिन के परिवर्तन का कहीं कोई उल्लेख नहीं? उक्त प्रश्न के समाधान में कहना है कि आर्यकालक द्वारा एक दिन का परिवर्तन कोई खास बात नहीं है, खास बात है अपर्व में पर्युषण करना। कल्पसूत्र में यह तो साफ ही लिखा है कि 'स्थिति अनुकूल हो तो पहले भी पर्युषण करना कल्पता है'-'अतरा वि य से कप्पइ।' जब पहले करने का उक्त विधान है, तो फिर परिवर्तन का प्रश्न कहाँ रहता है? प्राचीन जैन परम्परानुसार आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर पाँच-पाँच दिन की वृद्धि से, क्षेत्रादि की अनुकूलता देखते हुए, कभी भी पर्युषण किया जा सकता है। भादवा सुदी पंचमी तो अन्तिम सीमा है, जबकि वर्षाएँ प्रायः समाप्त-सी हो जाती है, इसीलिए बृहत्कल्प भाष्य आदि के अनुसार उस दिन से तो वृक्ष के नीचे बैठकर भी पर्युषण-आगे का जघन्य 70 दिन का वर्षावास पूर्ण करने का विधान है। अतः स्पष्ट है कि आर्यकालक का परिवर्तन एक दिन पहले का नहीं, अपितु अपर्व में पर्व करने का परिवर्तन है, जो इतिहास के पन्नों पर चढ़ना ही चाहिए। पंचमी, दशमी, पंदरस पर्व हैं, इनके सिवा शेष तिथियाँ अपर्व हैं, जैसा कि निशीथ चूर्णि में12 एवं अन्य अनेक टीका ग्रन्थों में लिखा है। जैन इतिहास में आषाढ़ पूर्णिमा से बदल कर भादवा सुदी पंचमी को पर्युषण कब, किसने, क्यों किया, इसका कोई उल्लेख क्यों नहीं है? बात यह है कि भादवा सूदी पंचमी को पर्युषण करना कोई नई बात नहीं थी। अपवाद रूप में उसका उल्लेख पहले से था ही, और यह अपवाद रूप में किया भी जाता था। अतः उसके लिए 'कब, किसने, क्यों किए' का प्रश्न ही गलत है। यदि यह अपर्व में पर्व करने जैसी कोई नई बात होती और किसी एक व्यक्ति विशेष से इसका सम्बन्ध होता, तो संभव है, उल्लेख किया जाता। अपवाद उत्सर्ग कैसे हो गया? प्रश्न है अपवाद उत्सर्ग कैसे हो गया? ऐसे हो गया कि उस प्राचीन युग में श्रावक तो होते थे, पर आज जैसे श्रावक संघों का व्यवस्थित विकास नहीं पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 129 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ था। छेद सूत्र आदि आगम साहित्य एवं उनके भाष्य साहित्य में तथा अनेक जैन कथाओं में यत्र-तत्र उल्लिखित घटनाएँ इस बात की साक्षी हैं। उस समय साधु- संघ को किन परिस्थितियों में से गुजरना होता था, साधारण सी आवश्यकताओं के लिए भी क्या - क्या करना होता था, यह सब यदि कोई प्राचीन साहित्य पढ़े, तो उसे पता लगे । यही कारण है कि मकान की व्यवस्था सहज ही अनुकूल नहीं मिलती थी। अतः उस युग में शय्यातर का महत्व काफी बढ़ा चढ़ा था । और इस सम्बन्ध में शय्यातर से आहारादि न लेने आदि के अनेक नियमोपनियम बनाये गए थे। आज की स्थिति कहाँ थी तब ? वर्षावास के योग्य क्षेत्र मिलना कठिन था, क्षेत्र मिल भी जाता तो निर्दोष मकान मिलना मुश्किल था । तब साधु, आज की तरह पहले - महीनों पहले ही कहाँ वर्षावास की विनती मानता था ? और वह विनती होती भी कहाँ थी ? साधू अपने कल्पानुसार अप्रतिबद्ध विहार करता था पवन की तरह । विहार करते-करते जहाँ भी योग्य क्षेत्र मिलता, और तब वर्षावास का समय आ जाता तो वर्षावास कर लेता । जैन अजैन का प्रश्न नहीं था, प्रश्न था अनुकूलता का । यदि आषाढ़ पूर्णिमा को योग्य क्षेत्र मिल जाता तो वहीं वर्षावास कर लेता, यदि न मिलता तो आसपास या वहीं योग्य क्षेत्र एवं मकान आदि तलाश करता, और पाँच-पाँच दिन की वृद्धि के पूर्व निर्दिष्ट क्रम से जब भी मिलता, वर्षावास कर लेता । किन्तु गृहस्थों से अपने वर्षावास करने का कुछ जिक्र न करता । जिक्र करने में दोषों की संभावना जो रहती थी। अतः वर्षावास के दो रूप बने-एक गृहि - ज्ञात और दूसरा गृहि - अज्ञात । 3 आषाढ़ पूर्णिमा से शुरु होने वाला वर्षावास प्राय: अज्ञात ही होता था । प्रायः क्यों, यों कहिए, गृहस्थों से अज्ञात ही रखा जाता था । यदि साधु तभी अपने वर्षावास की निश्चित घोषणा कर दे, और वर्षावास गृहस्थों को ज्ञात हो जाए तो गृहस्थ साधु के द्वारा अवगृहीत मकान की सार संभाल के लिए आरम्भ करेंगे, जैसा कि पहले उद्धरण दे आए हैं। दूसरी बात यह होगी कि साधु का वर्षावास जानकर गृहस्थ वर्षा होने का अनुमान करेंगे, फलतः खेत जोतने - बोने और अपने मकान को आच्छादन करने आदि के उपक्रम में आरंभ समारंभ करेंगे। 14 अतः साधु चुप रहे, कुछ न कहे। पंच पंच दिन वृद्धि के क्रम से यावत् एक महीना बीस रात्रि बीतने पर वर्षावास गृहि ज्ञात भी हो जाए तो कोई आपत्ति नहीं। क्योंकि तब वर्षाएँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, अतः गृहिज्ञात होने पर न मकान आदि से सम्बन्धित आरंभ समारंभ की संभावना रहती है, और न अपने निमित्त से सुभिक्ष आदि जानकर गृहस्थों द्वारा 130. प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृषि आदि आरंभ करने की ही कोई स्थिति रहती है। यह सब काम बहुत पहले ही कर लिए गए होते हैं, अतः गृहस्थ के द्वारा संयम में स्वनिमित्तजन्य किसी भी दोष का काई प्रसंग नहीं आता। कितना अधिक संयम के प्रति सूक्ष्म लक्ष्य था तब के साधु को। आज यह स्थिति कहाँ है? अब तो वह अज्ञात ज्ञात हो जाता है, चौमास लगने से पहले ही दूर-दूर तक सुप्रसिद्ध हो जाता है। अखबारों में छप जाता है। चौमास की मंजूरी के लिए महीनों पहले ही बसों पर बसें और कारों पर कारें जो दौड़ती हैं। क्या इस स्थिति में कुछ अज्ञात रहता है? क्या सब व्यवस्थाएँ पहले से नहीं होती? क्या पहले से व्यवस्था के लिए लम्बे-चौड़े चन्दे चिठे नहीं किए जाते? फिर भी आज के संयमी निर्निमित्तक निर्दोष वर्षावास की कल्पना मन में लिए बैठे हैं तो यह आत्मवंचना नहीं तो क्या है? अतीत को वर्तमान की आँख से देखने वालों को तभी तो वह पर्युषण की विशुद्ध व्यवस्था, जिसका मैंने स्पष्टीकरण किया है, विचित्र सी लगती है। पर सत्य तो सत्य है। उसका अपना एक स्वरूप है। उसे कौन किस आँख से देखता है, इससे उसे क्या लेना देना है। हाँ तो अपवाद उत्सर्ग केसे हो गया, इसकी चर्चा है। आषाढ़ पूर्णिमा का गृहि-अज्ञात पर्युषण अंततः वर्षा के 50 दिन बीतने पर गृहिज्ञात हो जाता है, अतः उस दिन की प्रसिद्धि स्वतः सिद्ध हो जाती है। उस युग की स्थिति के अनुसार, जैसी कि इतिहास से प्रमाणित है, अनुकूल मकान आदि प्रायः मिलते ही न थे, अतः अपवाद की दृष्टि से अपनाया जाने वाला यह भाद्रपद कालीन पर्युषण अधि क संख्या में होता रहा, और इस कारण अपवाद ही उत्सर्ग हो गया। और यह स्थिति भी आई कि साधु समाज का गृहस्थ समाज से अधिकाधिक संपर्क बढ़ता गया, श्रावक संघ व्यवस्थित रूप में काम करने लगे, साधु की सेवा का बहुत कुछ दायित्व गृहस्थों ने अपने ऊपर ले लिया, परिणामस्वरूप पर्युषण के दो खंड हो गए। अज्ञात जैसा कोई भेद रहा ही नहीं। पंच पंच दिन वृद्धि के पर्व दिन भी धीरे- धीरे लुप्त हो गए। बस पर्युषण के दो ही दिन रह गए, एक आषाढ़ पूर्णिमा और दूसरा भादवा सुदी पंचमी। फलतः पर्युषण से संबंधित क्रियाकांड के भी दो भाग हो गए। वर्षाकाल में निवास रूप पर्युषण मूल रूप में आषाढ़ पूर्णिमा को बना रहा, और उसी से संबंधित केश लोच, पर्युषण कल्पसूत्र का वाचन तथा वार्षिक आलोचना-प्रतिक्रमण आदि पहले से ही गृहज्ञात के रूप में प्रसिद्धि पाए पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 131 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए भादवा सुदी पंचमी के हिस्से में आ गए। और इस प्रकार दोनों ही पर्युषण उत्सर्ग हो गए, अपवाद कोई रहा ही नहीं। बात लंबी होती जाती है, फिर भी कुछ स्पष्टीकरण तो करना ही होता है। उत्सर्ग का अपवाद होना या अपवाद का उत्सर्ग होना, अधिकतर समाज की बदलती परिस्थिति के कारण होता है। कुछ विशिष्ट प्रसंगों को छोड़कर, कोई एक व्यक्ति विशेष तथा दिनांक (तिथि) विशेष उसके मूल में नहीं होता। पर्युषण के इस परिवर्तन एवं विभाजन में भी बदलता हुआ समय एवं समाज ही हेतु रहा है, और कुछ नहीं। आगमानुसार दिन का तीसरा पहर भिक्षा एवं विहार का उत्सर्ग था, शेष काल अपवाद ! और वह अपवाद कब किसके द्वारा उत्सर्ग हो गया? एकबार भोजन के अतिरिक्त दुबारा, तिबारा भोजन, जो कभी अपवाद था, आज उत्सर्ग कैसे हो गया? एक पात्र से अधिक पात्र रखना, स्थविरादि के लिए अपवाद था, वह कैसे उत्सर्ग हो गया? एक से दो, दो से तीन, तीन से चार पात्र कब और किसके द्वारा उत्सर्गरूप हुए? जैन परंपरानुसार आषाढ़ और पौष-ये दो ही महीने बढ़ते हैं, चातुर्मास में कोई महीना बढ़ता ही नहीं। तब अपनी मूल परंपरा को छोड़कर चौमास में श्रवणादि-वृद्धि की मिथ्याश्रुतप्रतिपादित मान्यता को कब, क्यों किसने स्वीकार कर लिया? रात्रि के तीसरे पहर के सिवा अन्य पहरों में सोना, भजन आदि के रूप में गाना और लेखादि लिखना, किवाड़ खोलना, विहार में गृहस्थों का साथ रहना, रात को साधु के मकान में गृहस्थों का निवास करना, गृहस्थों से पढ़ना या पढ़ाना, गृहस्थों को पत्रादि लिखना या लिखाना, आदि अनेक अपवाद, ओर कुछ तो कभी शास्त्रनिर्दिष्ट अपवाद भी नहीं थे, उत्सर्ग कैसे हो गए? क्या किसी एक व्यक्ति ने किसी एक निश्चित दिन उक्त सब परिवर्तनों के प्रति उत्सर्ग हो जाने की घोषणा की? इतिहास में दो चार परिवर्तनों के लिए कुछ नाम हैं भी, तो वे भी बदलते आए समय प्रवाह के चतुर उद्घोषक ही हैं, और कुछ नहीं। वर्तमान पर्युषण काल का भी अपवाद से उत्सर्ग होना, एक ऐसा ही परिस्थितियों का बदलता प्रवाह था, और कुछ नहीं। संवत्सरी और चातुर्मासिक-दो पर्व एक दिन कैसे? संवत्सरी पर्व और चातुर्मासिक पर्व, दो भिन्न पर्व हैं। वे एक दिन कैसे होंगे, दोनों की प्रायश्चित्त व्यवस्था कैसे होगी? यह इतना उथला प्रश्न है कि मन 132 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार में पड़ जाता है। क्या प्रश्नकर्ताओं ने कुछ सोच समझ कर प्रश्न किया है, या ऐसे ही 'चलो यह भी एक ढेला सही' और बस अंधेरे में ढेला फेंक दिया है। ____ पाक्षिक पर्व भी को पर्व है, जो पाक्षिक आलोचना के रूप में साधु के लिए अति निकट का आवश्यक पर्व है। पाक्षिक क्षमापना भी है, उसका तप भी है, प्रायश्चित्त भी है। किन्तु जब वह तीन चातुर्मासिक पर्वो के साथ एक दिन ही आता है, तब क्या होता है? पाक्षिक और चातुर्मासिक पर्व एक साथ दो कैसे मानते हैं, कैसे दोनों का एक साथ प्रायश्चित्त लेते हैं, क्षमापना करते हैं? जो समाधान आपने इन दोनों पर्वो का, उनके प्रायश्चित्त आदि का कर रखा है, वही संवत्सरी और चातुर्मासिक पर्व के संबंध में कर लीजिए, क्या परेशानी है आपको? क्या वह शास्त्रार्थों का युग फिर से आ सकता है? ___आज ज्वरग्रस्त हूँ और ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ। मैं अपने विचार लिख देता हूँ, बाद में यदि कोई खास प्रश्न या शंका हो तो चर्चा करता हूँ। अन्यथा आधारहीन बेतुकी चर्चा-प्रतिचर्चाओं में मुझे रस नहीं है। मुझे इस गिरते स्वास्थ्य में और भी कुछ महत्त्वपूर्ण काम करने होते हैं। अतः मैं उत्तर देना चाहता नहीं था। किन्तु विचारकों का आग्रह रहा कि ऐसे तो व्यर्थ की भ्रांति फैलेगी, असत्यपक्ष को महत्त्व मिलेगा। उत्तर देना ही चाहिए। बात उनकी भी ठीक है। हमारा समाज स्वाध्यायशील कम है। प्राकृत संस्कृत के प्राचीन मान्य ग्रंथों से संपर्क प्रायः है ही नहीं। आगमों के भी गलत अनुवाद पढ़े जाते हैं, जिनमें मूल कुछ कहता है तो अनुवाद कुछ कहता है। हँसी आती है-ऐसे भ्रष्ट अनुवादों को पढ़ते समय तटस्थ विद्वानों को। जनता क्या करे, वह सुनी सुनाई बातों को ही 'बाबा वाक्यं प्रमाण' मान कर चलती है। फिर सांप्रदायिक गुरुजनों की बात का बहुमान तो भक्तों के लिए इतना विचारातीत है कि कुछ पूछिए ही नहीं। अतः भ्रांतिनिराकरण हेतु प्रतिवाद रूप में कभी कुछ लिखना ही होता है। परंतु मैं इसे बहुत उपयोगी पथ नहीं मानता। क्योंकि पत्रों में यह चर्चा परोक्ष रूप में चलती है, अतः उसे फिर तोड़-मरोड़ कर, औंधासीध | जो मन आया, भक्तों को समझा दिया जाता है और अपने उखड़ते पक्ष को जैसे-तैसे फिर जमा दिया जाता है। प्राचीन युग में आमने-सामने, जनता की उपस्थिति में चर्चा होती थी, जिसे शास्त्रार्थ भी कहते थे। इन चर्चाओं को सुनने के लिए संबंधित पक्षों की जनता ही नहीं, किन्तु अन्य जनता भी उपस्थित होती पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 133 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी और जिज्ञासु प्रत्यक्ष में उभयपक्ष के प्रतिपादित सिद्धांतों को सुनकर उनके बलाबल का, या सत्यासत्य का निर्णय करते थे। श्रावस्ती में केशी गौतम का सुप्रसिद्ध संवाद भी सर्वसाधारण जनता की उपस्थिति में ही हआ था। आज भी ऐसा हो तो मैं पसंद करूँगा। पसंद क्या, ऐसा होना ही चाहिए। संस्कृत प्राकृत भाषा के गंभीर अभ्यासी, साथ ही तटस्थ विद्वानों की निर्णायकता में आज के कुछ विवादास्पद विचारपक्षों की सार्वजनिक रूप से मुक्त चर्चा होना आवश्यक है। विचार चर्चा का यह पक्ष सत्य के अधिक निकट होगा, जनता के मन की भ्रांतियों के निराकरण में समर्थ होगा। क्या ऐसा कुछ हो सकेगा? हो सकेगा, तो बहुत ही सुंदर। शतशत साधुवाद। विगत दिल्ली यात्रा में भी मैंने सार्वजनिक चर्चा के लिए मुक्त आह्वान किया था, परन्तु खेद है कुछ हुआ नहीं। पर्युषण पर्व की मंगल चर्चा के प्रसंग पर यदि कहीं कुछ कटु एवं मर्यादाबाह्य लिखा गया हो, तो हार्दिक क्षमायाचना। संदर्भ 1. मूल शब्द अरक है, वही बोलचाल की भाषा में आरक या आरा बोला जाता है। 2. अनवस्थित कल्प का अर्थ अनियत कल्प है। कभी-कभार आवश्यकता होने पर पालन कर लिए जाते हैं, अधिकतर सामान्य स्थिति में पालन नहीं किए जाते। इनके लिए नित्य पालन जैसा कोई विधान नहीं है। आचार्य हरिभद्र पंचाशक की स्वोपज्ञ टीका में लिखते हैं "नो नैंव सततसेवनीयः, सदा विधेयोऽनित्यमर्यादास्वरूपोऽनियतव्यवस्थास्वभाव इति कृत्वा कदाचिदेव पालयन्तीति भावः।" 3. दोसाऽसति मज्झिमगा, अच्छंती जाव पुव्वकोडी वि। विचरति य वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिए य ।।6435।। 4. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणां ।।6425।। -बृहत्कल्पभाष्य 'सप्रतिक्रमण:' उभयकालं षड्विधावश्यकरणयुक्तो धर्मः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति.....मध्यमानां तु जिनानां तीर्थे 'कारणजाते' तथाविधेऽपराधे उत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति। -बृहकल्प भाष्य टीका 34 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यम जिनपतीनां कारणसद्भावेऽपि दैवसिकरात्रिके एव प्रायः प्रतिक्रमणे, न तु पाक्षिक- चातुर्मासिक-सांवत्सरिकाणि । तथा चोक्तं सप्ततिशतस्थानकग्रन्थेः " देसिय-राइय-पक्खिय - चउमासिय- वच्छरीअ नामाउ । दुहं पण पडिक्कमणा, मज्झिमगाणं तु पढमा ।। - कल्प-सुबोधिका, व्या. 1 प्रतिक्रमणम् – श्री आदिनाथ महावीर साधुभिनिश्चियेन उभयकालं प्रतिक्रमणं कर्तव्यम् । 22 तीर्थंकरसाधुभिस्तु अतिचारे कारणे जाते प्रतिक्रमणं क्रियते, न जाते न क्रियते । कल्पसूत्र कल्पलता व्या. 1 5. एषां च पञ्चानां मेघानां क्रमेणेदं प्रयोजनसूत्रम् ...पञ्चमेघवर्षणानन्तरम्। 6. कप्पइ निग्गंथाण निग्गंथीणा वा..... सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा... 7. अथास्मिन् श्री पर्युषणापर्वणि साधूनां धर्मकृत्यानि" संवत्सरप्रतिक्रान्ति:, लुंचनं चाष्टमं तपः। सर्वार्हद्भक्तिपूजा च, संघस्य क्षामणाविधिः । । " - - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका, 2 वक्षस्कार कल्पलता व्या. 1 8. आज भी मूर्तिपूजक परंपरा में, भादवे के पर्युषण में भी, पाँच दिन ही कल्पसूत्र वाचने की प्रथा है। 9. श्री कालकाचार्य के उक्त सन्देश कथन पर से विनयविजयजी की वह बात स्वयं अप्रमाणित हो जाती है, जो उन्होंने वार्षिक पर्वरूप पर्युषण का सम्बन्ध आचार्य कालक से जोड़ा है 'तत्र वार्षिक पर्व भाद्रपद सित पञ्चम्यां, कालकसूरेरनन्तरं चतुर्थ्यामेवेति' -सुबोधिका, व्या. 1 10. भाद्रपद मासप्रतिबद्धपर्युषणकरणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणमिति त्यज कदाग्रहम्। -सुबोधिका, व्या. 9 11. पंचपंचकवृद्धया गृहिज्ञातादिविस्तरस्तु नात्र लिखितः, सांप्रत संघाज्ञया तस्य विधेर्व्युच्छिन्नत्वाद् । सुबोधिका व्या. 1 12. तं पुण्णिमाए पंचमीए, दसमीए, एवमादिपव्वेसु पज्जोसवेयव्वं, णो अपव्वेसु । सीसो पुच्छति इयाणिं कहं चउत्थीए अपव्वे पज्जोसविज्जति ? आयरियो भणति - कारणिया च चउत्थी अज्जकालगायरिएण पवत्तिया । - निशीथ चूर्णि, दशम उद्देशक पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 135 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. एत्थ य अभिग्गहिय, वासतिराय सवासग मास। तेण परमभिग्गहियं, गिहिणायं कत्तिओ जाव।।4292।। -वृहत्कल्पभाष्य गिहीण य पुच्छंताण कहेंति - इह ठितामो वरिसाकाले। - निशीथ चूर्णि 10/43 14. ...वीसतिराते सवीसतिराते वा मासे आगते अप्पणो अभिग्गहियं विहिणातं वा कहेंति, आरतो ण कहेंति। -निशीथचूर्णि 10 1 43 'स्थिताः स्मः' इत्युक्ते गृहस्थाश्चिन्तयेयुः-अवश्यं वर्ष भविष्यति येनैते वर्षारात्रमत्र. स्थिताः, ततो धान्य विक्रीणीयुः, गृहं वा छादयेयुः, हलादीनि वा संस्थापयेयुः। यत एवमतोऽभिवर्धित वर्षे विंशतिरात्रे गते, 'इतरेषुच' त्रिषु चन्द्रसंवत्सरेषु सविंशतिरात्रे मासे गते गृहिज्ञातं कुर्वन्ति। बृ. कल्पभाष्य टीका, 42893 तदा ते गृहस्था मुनीनां स्थित्या सुभिक्षं संभाव्य... दन्तालक्षेत्रकर्षण गृहाच्छादनादीनि कुर्यः। .....अतः तत्परिहाराय पञ्चाशद्दिनैः वयमत्र स्थिताः स्म इति वाच्यम् -कल्पलता, व्या०6 15. जति अंते तो णियमा दो आसाढा भवन्ति, अह मज्झे, तो दो पोसा। __-नि. चू. 10/43 जैन टिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते चाषाढो वर्द्धते, नाऽन्ये मासाः। तट्टिपनकं तु अधुना न सम्यग् ज्ञायते। -सुबोधिका, व्या. 9 FOR LOCR. ___36 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9॥ पर्युषण और केशलोच कब और क्यों? प्रश्न - पर्युषण अर्थात् संवत्सरी पर्व कब करना चाहिए और उस प्रसंग पर केशलोच करने का क्या उद्देश्य है? क्या यह सबके लिए अनिवार्य है? यदि किसी विशेष परिस्थिति में लोच न किया जा सके तो क्या वह श्रमणसंघ में नहीं रह सकता? केशलोच के संबंध में प्राचीन और आधुनिक पंरपरा में क्या कुछ अंतर पड़ा है? यदि अंतर पड़ा है तो वह क्या है? केशलोच की सर्वमान्यता उत्तर- प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। समाधान के लिए चिंतन की गहराई में उतरना होगा, प्राचीन परंपरा और शास्त्रों एवं ग्रंथों का आलोडन भी करना होगा। यह एक नाजुक सवाल है। इसे यों ही चलती भाषा में इधर-उधर की दो चार बातें कह कर नहीं हल किया जा सकता। जैन श्रमण-परंपरा में केशलोच की व्यापक परंपरा है। श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथ आदि नई-पुरानी सभी शाखाओं में केशलोच की सर्वमान्य मान्यता है। दूसरी बातों में कितने ही मतभेद हुए हों, कितनी ही पुरानी पंरपराएँ टूटी हों और नयी बनी हों, परन्तु केशलोच की मान्यता में कोई उल्लेखनीय एकांत अंतर नहीं आया है। सभी परंपराओं में इसके लिए 'हाँ' है, 'ना' नहीं है। केशलोच का महत्त्व जैन श्रमणों के क्रियाकाण्डों में केशलोच एक कठोर क्रियाकाण्ड है।' अपने हाथों से अपने शिर के बालों को नौंच डालना, एक असाधारण साहस की बात है। यह देहभाव से ऊपर उठने की स्थिति है। तितिक्षा की, कष्ट सहन की चरम प्रक्रिया है। एक युग था, जब साधक शरीर की मोह-ममता से परे होता था, स्वयं कष्टों को निमंत्रण देकर उन्हें सहता था और अपनी अनाकुलता एवं धृति की परीक्षा करता था। अपने किसी कार्यविशेष की पूर्ति के लिए जनता से किसी 137 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह के सहयोग या सेवा की अपेक्षा नहीं रखता था। अधिक से अधिक स्वाश्रयी रहने की उसकी भावना थी। अतः वह केशकर्तन की समस्या का हल भी स्वयं बालों को उखाड़कर कर लेता था। जैन साधक के लिए केशलोच बाह्य तप है, परंतु वह अंदर के समभाव, कष्टसहितष्णुता, धैर्य, अनाकुलता, अहिंसा एवं स्वतंत्र जीवन आदि के परीक्षण की एक कसौटी भी है, अतः वह बाह्यतप की दृष्टि से अनिवार्य नहीं होते हुए भी साधना का एक अनिवार्य अंग है, अनिवार्य नहीं तो अनिवार्य जैसा अवश्य है। जिनकल्प और स्थविरकल्प प्राचीन काल में जैन श्रमणों में दो परंपराएँ थीं-एक जिनकल्प परंपरा और दूसरी स्थविरकल्प परंपरा। जिनकल्पी के लिए वर्ष के बारहों महीने प्रतिदिन लोच करना, अनिवार्य था। प्रतिदिन शिर और ठोडी पर हाथ फेरना और जहाँ भी कहीं कोई बाल हाथ में आये, उसे झट उखाड़ देना। इसका अर्थ है-जिनकल्पों के शिर पर कभी कोई बाल रह ही नहीं पाता था। स्थविरकल्पी मुनि के लिए प्रतिदिन लोच का विधान नहीं था। परंतु वर्षावास में-अर्थात् चातुर्मास में उसके लिए भी प्रतिदिन लोच का विधान था। यह ठीक है कि देशकाल की बदलती परिस्थितियों के कारण आजकल यह परम्परा नहीं रही है, आज कोई भी साधु-साध्वी चातुर्मास में प्रतिदिन लोच नहीं करता है। परंतु प्राचीनकाल में यह परंपरा थी, जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में आज भी उपलब्ध है। निशीथ भाष्य (3173) में लिखा है ___'धुवलोओ य जिणाणं, णिच्च थेराण वासवासासु।' -उडुबद्धे वासावासासु वा जिणकप्पियाणं धुवलोओ-दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः। थेराण वि वासासु धुवलोओ चेव-निशीथ विशेष चूर्णि। __जो भिक्षु या भिक्षुणी तरुण होते थे, समर्थ एवं निरोग होते थे, उन्हें वर्षाकाल में तो प्रतिदिन ही लोच करना होता था, किन्तु शेष-काल में, जिसे आगम में ऋतुबद्ध काल कहा है, चार-चार महीने के अनन्तर लोच करना होता था। -यदि समर्थस्तदा वर्षासु नित्यं लोचं कारयेत् - कल्प० सुबोधिका 9-57 138 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 'उड्डतरूणे चउमासो 7, निशीथ भाष्य 3213 -थेरकप्पितो तरूणो उड्डबद्धे चउण्हं मासाणं लोयं करावेंति । - निशीथ चूर्णि । जो साधु-साध्वी स्थविर अर्थात् वृद्ध हो जाते थे, उन्हें छह मास के अनंतर लोच करना होता था। यदि छह महीने पर भी लोच न कर सकते हों तो वर्ष में एक बार आषाढ़ पूर्णिमा के आसपास तो स्थविर को भी लोच करना ही होता था। स्थविर जराजर्जर होने के कारण असमर्थ होता है, नेत्र शक्ति भी क्षीण हो जाती है, अत: दुर्बलता एवं नेत्ररक्षा के लिए स्थविर को छूट दी गई है। इसके लिए देखिए कल्पसूत्र मूल और उसकी टीका । 'छम्मासिए लोए, संवच्छरिए वा थेरकप्पे ।' 9/57 - षाण्मासिको लोचः, संवच्छरिए वा थेरकप्पेति - स्थविराणां वृध्दानां जराजर्जरत्वेनाऽसामर्थ्याद् दृष्टिरक्षार्थं च सांवत्सरिको वा लोच: स्थविरकल्पे स्थितानामिति । लोच न करने पर प्रायश्चित्त जैन परंपरा देश, काल और व्यक्ति की स्थिति एवं परिस्थिति को लक्ष्य में रखकर अग्रसर होती है । वह कोई अंध परंपरा नहीं है, जो अंधे हाथी की तरह विवेकहीन गति से दौड़ती चली जाए, इधर-उधर के अच्छे बुरे का - उचित अनुचित का कोई भान ही न रखे। जिस प्रकार अन्य क्रियाकाण्डों में उत्सर्ग अपवाद का ध्यान रखा गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत लोच के संबंध में भी सही स्थिति को ध्यान में रखा है। प्राचीन ग्रंथकारों ने कहा है कि यदि भिक्षु या भिक्षुणी समर्थ हैं, निरोग हैं, कोई आधिव्याधि नहीं है, अच्छी तरह लोच कर सकते हैं, फिर भी यदि वे लोच न करें, नाई के द्वारा उस्तरे से शिर मुण्डा लें, या कैंची से बाल कटवा लें, तो उन्हें प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त समर्थ को आता है, असमर्थ को नहीं । यदि समर्थ होते हुए भी उस्तरे से मुण्डन कराए तो लघुमास प्रायश्चित्त आता है, और यदि कैंची से बाल कटवाए तो गुरु मास प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त क्यों आता है, इसका स्पष्टीकरणकरते हुए कहा है कि - समर्थ को परंपरा का पालन पर्युषण और केशलोच 139 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहिए। अतः लोच न करने पर एक तो परंपरा पालन न करने का दोष होता है। दूसरे यूका-जूं आदि प्राणियों की हिंसा हो सकती है। नाई अपने उस्तरा, कैंची और हाथ आदि कच्चे सचित्त जल से धोएगा तो यह पश्चात्कर्म दोष भी हो सकता है। असमर्थ के लिए अपवाद __अब प्रश्न असमर्थ का रह जाता है। प्राचीन परंपरा का जैन साहित्य इस संबंध में स्पष्ट है। वह एक ही डंडे से सबको नहीं हाँकता है। साधक एक व्यक्ति है। साधना का मूल स्रोत व्यक्ति के अपने अंदर में होता है। बाह्याचार तो केवल एक मर्यादा है, और वह अंतर्जीवन के परिपोषण एवं संवर्धन के लिए है। यदि बाह्याचार अंदर की मूल साधना का परिपोषण एवं संवर्द्धन करता है तो वह ठीक है, अन्यथा उसका कुछ मूल्य नहीं रहता है। जो आचार किसी विशेष परिस्थिति के कारण अंदर में सहर्ष स्वीकृत नहीं है, बाहर के दबाव आदि के कारण मन मार कर किया जाता है, शारीरिक स्थिति इन्कार करती है, किन्तु लोक-लज्जा आदि इकरार के लिए जोर जबर्दस्ती करते हैं, तो वह साधक के उत्थान का हेतु न होकर पतन का ही हेतु होता है। यही कारण है कि जैन धर्म की प्रज्ञाप्रधान परम्परा ने साधना के इन जटिल प्रश्नों पर अपने को बहुत सतर्क एवं जागृत रखा है। जैन परंपरा का आदर्श अहिंसा है, हिंसा नहीं। असमर्थ व्यक्ति पर समर्थ व्यक्ति के जैसे क्रियाकाण्ड का दबाव डालना, जैन दृष्टि में अहिंसा नहीं, हिंसा है - धर्म नहीं, अधर्म है। अतएव जैन दर्शन ने उत्सर्ग और अपवाद की एक लंबी चर्चा की है। प्रत्येक क्रियाकांड को साधना तुला के इन दो पलड़ों से तोला है। जीवन की सामान्य स्थिति उत्सर्ग है और विशेष परिस्थिति अपवाद है। जो धर्म व्यक्ति की सामान्य एवं विशेष स्थिति का विवेक नहीं रखता, आँख बंद कर सबको एक ही हाथ से धकेलता रहता है, वह कैसा धर्माचार, कैसा शासन? अतएव केशलोच के संबंध में कहा गया है कि समर्थ को अवश्य लोच करना चाहिए। क्योंकि लोच न होने पर शिर के सघन केश इधर-उधर आते-जाते वर्षा में भींग सकते हैं, उससे अप्काय की विराधना-हिंसा होने की संभावना है। पानी के संसर्ग से मैल होने के कारण जूं आदि जीव पैदा हो सकते हैं, और खुजलाने पर उनकी हिंसा हो सकती है, खुजलोने से शिर में नखक्षत भी हो 140 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं-आदि आदि। परंतु यदि साधक असमर्थ है, लोच उसे असह्य है, तथा शिर में कोई रोग है, मंद चक्षु है - अर्थात् नेत्रों की ज्योति क्षीण है, या क्षीण होने की संभावना है, बीमार है - दुर्बलता के कारण लोच नहीं हो सकता है, अथवा दुर्बल स्थिति में लोच करने पर ज्वर आदि होने की संभावना हो, दीक्षित यदि बालक हो - लोच करने पर रोने लगता हो, तो ऐसी स्थिति में लोच नहीं करना चाहिए। क्योंकि बलात् लोच की क्रिया में धर्म भ्रष्ट होने की संभावना है। अतः प्राचीन जैन दर्शन का अभिमत है कि लोच - जैसे एक कायक्लेश तप के लिए साधक को अहिंसा, सत्य आदि महाव्रत रूप मौलिक धर्मसाधना से भ्रष्ट कर देना, कोई अच्छी बात नहीं है । इसलिए कल्पसूत्र आदि प्राचीन ग्रंथों में कहा है, कि यदि भिक्षु लोच करने में समर्थ नहीं है और वर्षावास की आषाढ़ी पूर्णिमा आ जाए तो क्या करना चाहिए? असमर्थ को भी यह रात्रि नहीं लांघनी है। वर्षा में शिर पर केश नहीं रहने चाहिए । अतः ग्लान - बीमार या बालक आदि असमर्थ को उस्तरे से शिर मुंडा लेना चाहिए, या कैंची से बाल कटवा लेने चाहिए। असमर्थ यदि ऐसा करता है तो कोई आपत्ति नहीं है। यह अपवाद मार्ग है। अपवाद में प्रायश्चित्त भी नहीं होता है। प्रायश्चित्त 'दप्पिया प्रतिसेवना' का होता है, 'कप्पिया प्रतिसेवना' का नहीं। इसके लिए निशीथ भाष्य, व्यवहार भाष्य एवं बृहत्कल्प भाष्य आदि सुप्रसिद्ध प्राचीन आचार ग्रंथ देखे जा सकते हैं। ऊपर की पंक्तियों में जो कुछ लिखा गया है, उसके लिए मूल प्रमाण इस प्रकार हैं वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणिं उवायणावित्तए । अज्जेणं खुरमुंडेणं वा लुकुसिरएणं वा होयव्वं सिया....... - कल्पसूत्र 9-57 -पर्युषणातः परम्-आषाढ़ चातुर्मासकादनंतरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीया, आस्तां दीर्घाः असमर्थोऽपि तां रात्रिं नोल्लंघयेत्..... केशेषु हि अप्कायविराधना, तत्संसर्गाच्च यूकाः संमूर्च्छन्ति, तत कण्डूयमानो हन्ति, शिरसि नखक्षतं वा स्यात्..... यदि चासहिष्णुर्लोचे कृते ज्वरादिर्वा स्यात्, कस्याचित् बालो वा रूद्याद्, धर्मं वा त्यजेत्, ततो न तस्य लोचः, इत्याह अज्जेणं खुरमुंडेणं वा... पर्युषण और केशलोच 141 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्तु क्षुरेणाऽपि कारयितुमसमर्थो व्रणादिमच्छिरा वा तस्य केशाः कर्ता कल्पनीयाः ....। कल्पसूत्र सुबोधिका 9-57 अपवादतो ग्लानादिना क्षुरमुण्डनेन उत्सर्गतो लुचिताशिरोजेन इत्यर्थः। ___-कल्पलता 9-57 अपवाद के संबंध में कल्पसूत्र के निर्माता चतुर्दशपूर्वी, श्रुतकेवली आचार्यदेव भद्रबाहु स्वामी का उल्लेख ऊपर किया है। मूल पाठ के स्पष्टीकरण के लिए कल्पसूत्र की सुबोधिका और कल्पलता नामक सुप्रसिद्ध टीकाओं के उद्धरण भी दिए हैं। टीकाकारों ने वर्षाकाल में लोच करने के हेतुओं का, तथा लोच न करने के अपवादों का जो उल्लेख किया है, वह उनका अपना मनगढंत नहीं है। जैन वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ निशीथभाष्य और उसकी विशेष चूर्णि के आधार पर ही टीकाओं का उक्त विवेचन है। प्रमाण स्वरूप भाष्य और चूर्णि का पाठ देखना हो तो वह इस प्रकार है वासासु लोमए अकज्जते इमे दोसाणिसुदंते आउबधो, उल्लेसु, य छुप्पदीउ मुच्छति। ता कंडूय विराहे, कुज्जा व खय तु आयाते।। -निशीथ भाष्य, 3212 आउक्काए णिसुढंते आउविराहणा, उल्लेसु य बालेसु छप्पयाओ समुच्छंति, कंडुअंतो वा छप्पदादि विराहेति, कंडुअंतो वा खयं करेज्जा–तत्थ आय–विराहणा __-निशीथ विशेष चूर्णि कत्तरि-छुर-लोए वा, वितियं असहु गिलाणे या -निशीथ भाष्य 3214 -वितियपदेणं लोयं न कारवेज्जा। असहू लोयं न तरति अधियासेउ सिरोरोगेण वा, मंदचक्खुणा वा लोयं असहतो धम्मं छड्डेज्जा। गिलाणस्स वा लोओ कज्जति, लोए वा करेंते गिलाणो हवेज्ज। -विशेष चूर्णि 142 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण कब और क्यों? पर्युषण के समय जो लोच किया जाता है, वह कब करना चाहिए? यह प्रश्न गहराई से विचार करने जैसा है। बात यह है कि आजकल जो परंपरा है वह और है, और प्राचीन काल में जो परम्परा थी वह कुछ और थी। मनुष्य वर्तमान काल में जिस परंपरा का पालन करता है, वह उससे इतना चिपट जाता है कि अतीत की परंपरा को भूल जाता है। वर्तमान परंपरा को ही अनादि काल की परंपरा समझने लगता है। यदि कोई उससे भिन्न कुछ कहता है या करता है, तो वह सत्य की मूल स्थिति को समझने एवं स्वीकार करने से इन्कार कर देता है, और व्यर्थ ही लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जाता है। लोच कब करना चाहिए, इससे पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि पर्युषण कब करना चाहिए? पर्युषण के काल पर ही पर्युषण संबंधी लोच का काल आधारित है। आजकल की मान्यता के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास बीस रात्रि बीत जाने पर भादवा सुदी पंचमी को पुर्यषण (संवत्सरी) किया जाता है। परंतु यह अपवाद है, उत्सर्ग नहीं। प्राचीन काल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को होता था। पर्युषण का मूल अर्थ वर्षावास है। वर्षावास का अर्थ है-वर्षा में आवास करना, एक स्थान पर रहना। निशीथ भाष्य में पज्जोसवणा के जो आठ पर्यायवाचक नाम दिए हैं, उनमें एक 'वर्षावास' पर्याय भी है। समवायांग सूत्र के 70 वें समवाय में भी पर्युषण के लिए 'वासावासं पज्जोसवेइ' पाठ है। इस पर से स्पष्ट हो जाता है कि पर्युषण वर्षावास है। मंगसिर बदी प्रतिपदा के दिन से आठ मास विहार चर्या में भ्रमण करने के बाद चार महीने तक वर्षावास के लिए, जैनभिक्षु, आषाढ़ पूर्णिमा को एक स्थान पर ठहर जाता है। वर्षाकाल में प्रायः निरंतर घटाएँ छार्यां रहती हैं, जब तब पानी बरसता रहता है, इधर-उधर आने-जाने के पथ खराब हो जाते हैं, पथ में नदी और नाले उमड़ पड़ते हैं, हरितकाय मैदानों और मार्गों में फैल जाता है, जीवजंतु बहुत पैदा हो जाते हैं, अतः पर-विराधना एवं आत्म-विराधना से बचने के लिए वर्षाकाल में भिक्षु के लिए एकत्र वास का विधान किया गया है। वर्षा यदि जल्दी शुरू हो जाए तो पहले भी आकर ठहर सकता है, आषाढ़ पूर्णिमा को तो ठहर ही जाना चाहिए। यह पर्युषण का उत्सर्ग नियम है। पर्युषण अर्थात् संवत्सरी पर्व वार्षिक प्रतिक्रमण का दिन है। वर्ष का पर्युषण पर्व और केशलोच 143 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ ही है, वर्षा। अतः पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा का शास्त्र सम्मत है। जैन परंपरा के जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा वर्ष का अंतिम दिन है और श्रावण वदी प्रतिपदा नये वर्ष का प्रथम दिन है। भादवा सुदी पंचमी को किस शास्त्र के अनुसार कौन-सा वर्ष पूरा होता है? कोई नहीं। दिन पूरा होने तक दैवसिक, रात्रि पूरी होने पर रात्रिक, पक्ष पूरा होने पर पाक्षिक, चार मास पूरे होने पर कार्तिक पूर्णिमा आदि को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है। इसी प्रकार संवत्सर अर्थात् वर्ष पूरा होने पर संवत्सरी प्रतिक्रमण किया जाता है। और जैन परंपरा के अनुसार वर्ष पूरा होता है - आषाढ़ पूर्णिमा को । अतः यही दिन पर्युषण का, संवत्सरी का तथा संवत्सरी - प्रतिक्रमण का है। निशीथ भाष्य (3216-17) की चूर्णि करते हुए आचार्य जिनदास गणी ने स्पष्ट कहा है कि पर्युषण पर्व में वार्षिक आलोचना होनी चाहिए। उस समय किया जानेवाला अष्टम (तेला) तप, उपवास की अक्षमता, रोग तथा सेवा आदि से संबंधित अपवाद स्थिति को छोड़कर उत्सर्गतः अवश्य एवं अनिवार्य कर्तव्य है। यह वर्षाकाल के प्रारंभ में मंगल रूप होता है ।" उक्त भाष्य (3208) की ही चूर्णि में अन्यत्र लिखा है कि 'वरिसंते उववासो कायव्वो' - अर्थात् वर्ष के अंत में अवश्य उपवास करना चाहिए। निशीथ भाष्य ( 3153) में शब्दशः उल्लेख है- 'आसाढ़ी पूण्णिमोसवणा । ' उक्त भाष्य की चूर्णि में लिखा है - आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण करना, उत्सर्ग सिद्धांत है- 'आसाढ़पुण्णिमाए पज्जोसवेति, एस उस्सग्गो'। इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि प्राचीन काल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को ही किया जाता था। अब प्रश्न है कि कल्पसूत्र और समवायांग में 'सवीसइराए मासे वडकुते वासावासं पज्जोसवेइ' जो पाठ है, वह क्या है? वह पाठ तो कहता है कि आषाढ़ पूर्णिमा से एक महीना और बीस रात्रि बीतने पर पर्युषण करना चाहिए, जैसा कि आजकल किया जाता है। उक्त शंका के समाधान में कहना है कि यह उल्लेख अपवाद स्थिति का है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन यदि चातुर्मास के लिए मकान ठीक तरह का मिल जाए, जो ऊपर से छाया हुआ हो, लिपा हुआ हो, टपकता न हो, जल निकालने के लिए नाली आदि की व्यवस्था ठीक हो । गृहस्थ ने पहले से ही अपने लिए मकान को वर्षाकाल में रहने के योग्य तैयार कर रखा हो, तो भिक्षु उसी दिन अपना वर्षावास घोषित कर दे कि मैं यहाँ चार महीने 144 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहूँगा, वर्षाकाल व्यतीत करूँगा। यदि उस दिन ऐसा मकान न मिले, तो वर्षावास की घोषणा न करे, क्योंकि फिर गृहस्थ सोचेगा कि साधु जी यहाँ रह गए हैं, अतः इस मकान को ठीक-ठाक कर लें। गृहस्थ साधु के निमित्त मकान की लिपाई-पुताई आदि का आरंभ करेगा, तो वह साधु के लिए औद्देशिक होगा, फलतः साधु को दोष लगेगा। इसलिए पर्युषण की, अर्थात् वर्षावास की घोषणा न करे, और इस बीच उसी क्षेत्र में या आसपास के अन्य क्षेत्र में किसी अच्छे व्यवस्थित मकान की तलाश में रहे। यदि इस बीच मकान मिल जाए तो श्रावण वदी पंचमी को, फिर श्रावण वदी दशमी को, फिर पाँच दिन बाद अमावस्या को पर्युषण करे। तब भी यदि न मिले, तो फिर पाँच-पाँच दिन की वृद्धि करते हुए अंत में पचास दिन के बाद भादवा सुदी पंचमी को तो अवश्य ही पर्युषण कर लेना चाहिए। मकान न मिले तो वृक्ष के नीचे ही शेष वर्षावास बिता देना चाहिए, क्योंकि तब वर्षा कम हो जाती है, अतः वृक्ष के नीचे भी अच्छी तरह रहा जा सकता है। ___ कल्पसूत्र में उल्लिखित एक महीना बीस रात्रि वाले पर्युषण संबंधी अपवाद का स्पष्टीकरण करते हुए कल्पसूत्र के ही समाचारी प्रकरण के निम्नोक्त पाठ में लिखा है, जिसका कि मैंने ऊपर की पंक्तियों में वर्णन किया है: 'जओणं पाएणं अगारिणं अगरायं कडियाई उकंपियाई, छन्नाई, लित्ताई, गुत्ताई, घुट्टाइं, मट्ठाई, संपधूमियाई, खाओदगाई, खायनिद्धमणाई, अप्पणो अट्ठाए कडाइं, परिभुत्ताइं परिणामियाइं भवन्ति, से तेण्डेणं एवं वुच्चइ....' -कल्पसूत्र 9 1 2 निशीथ सूत्र की प्राचीन विशेष चूर्णि (315) में यही स्पष्ट शब्दों में बताया गया है। - सेसकालं पज्जोसर्वेताणं अववातो। अववाते वि सवीसति रातिमासातो परेण अतिक्कमेउं ण वट्टति। सवीसतिरातिमासे पुण्णे जति वासखेत्तं ण लब्भति, तो रुक्खहेट्ठा वि पज्जोसवेयव्वं। तं च पुण्णिमाए पंचमीए दसमीए एवमादिपव्वेसु पज्जोसवेयव्वं, णो अपव्वेसु। अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा के अतिरिक्त शेषकाल में पर्युषण करना, अपवाद है। और यह अपवाद भी एक महीना और बीस रात्रि के काल को अतिक्रमण पर्युषण और केशलोच 145 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वाला न होना चाहिए। इस काल सीमा के बाद तो यदि योग्य वासक्षेत्र न भी मिले, तब भी वृक्ष के नीचे ही पर्युषण कर लेना चाहिए। आचार्य अभयदेव ने स्थानांग सूत्र की अपनी टीका में भी पर्युषण का यही भाव सूचित किया है। पर्युषण वर्षकल्प है, उसमें ऋतुबद्ध अर्थात् शेषकाल से सम्बन्धित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादाओं का परित्याग कर वर्षा योग्य मर्यादाओं को अपनाना चाहिए। यदि कोई विशिष्ट कारण हो तो वर्षावास का उत्कृष्ट काल छह महीने का हो सकता है, और अपवाद की स्थिति में वर्षावास का जघन्य काल भादवा सुदी छठ से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक 70 दिन का होता है। संक्षेप में उक्त भावना नीचे के टीका-पाठ में देखी जा सकती है। "पर्याया ऋतुबद्धिका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-सम्बन्धित उत्सृज्यन्ते उज्यन्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्योसवना।" __ “अथवा परिः सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्तति विनानि, उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं, निरुक्तादेव पर्युषणा। तस्याः कल्प आचारो मर्यादेत्यर्थः।" -स्थानांग टीका, दशमस्थान समवायांग सूत्र में पर्युषण से सम्बन्धित जो पाठ है, वह 70 वें समवाय में है 50 वें में नहीं। उस पाठ में कहा है कि वर्षावास के एक महीना और बीस रात्रि बीतने पर, तथा 70 दिन शेष रहने पर पर्युषण करना चाहिए, वर्षावास में स्थित रहना चाहिए। समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइक्कते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहि वासावासं पज्जोसवेइ। -समवायांग 70 समवाय समवायांग सूत्र का उक्त सूत्र अपवाद सूत्र है। पूर्वार्ध का एक महीना वीस रात्रि वाला अंश मुख्य नहीं है, अगला सत्तर दिन शेष रहने का अंश ही मुख्य है, यही कारण है कि यह सूत्र 50 वें समवाय में न देकर 70 वें समवाय में दिया है। इसका अर्थ है कि विशेष परिस्थिति में, अपवाद में वर्षावास अर्थात चातुर्मास का कम-से-कम जघन्य काल 70 दिन का है। इसी भाव को आचार्य अभयदेव ने समवायांग की टीका में “पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविध-वसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, भाद्रपद शुक्ल पचम्यां तु 146 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयम्।" आदि के द्वारा स्पष्ट किया है और स्थानांग की टीका में 'एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्ततिदिनानि.....वसनं' के द्वारा जघन्य वर्षावास 70 दिन का बताकर अपवाद स्थिति का उल्लेख किया है। स्थानांग सूत्र के गुजराथी तथा हिन्दी टब्बों में भी यही वर्णन है। मैं यहाँ अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहता। इतने पर से ही विचारशील पाठक समझ सकते है कि पर्युषण की वास्तविक स्थिति क्या है? वह कब करना चाहिए और क्यों करना चाहिए? समान्यतः वह आषाढ़ पूर्णिमा को होना चाहिए। यह उत्सर्ग है। यदि वर्षा में रहने के योग्य उचित क्षेत्र व मकान आदि की व्यवस्था न हो, जैसा कि पहले स्पष्टीकरण कर आए हैं, तब पाँच-पाँच दिन की वृद्धि करते हुए अन्त में एक महीना बीस रात्रि के बाद पर्युषण करना, वर्षावास की निश्चित स्थापना करना, आवश्यक है। यह अपवाद है। पाठक देख सकते हैं, यह प्राचीन परम्परा कुछ समय से किस प्रकार उलट गई है। आज अपवाद उत्सर्ग हो गया है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पर्युषण की बात चौका देने वाली है। जिसने कभी प्राचीन साहित्य का तटस्थ अध्ययन नहीं किया है वह तो यह सब पढ़कर बौखला ही जाएगा, क्योंकि उसे यह पता नहीं कि हम पहले क्या करते थे? और उस शुद्ध परम्परा को छोड़कर अब क्या कर रहे हैं? यही कारण है कि आज जब कभी चातुर्मास में श्रावण या भादवे का महीना बढता है, तो संघ में तूफान आ जाता है। अपनी-अपनी परम्परा की प्रचलित मान्यताओं को लेकर एक बेतुका शोर मचने लगता है और अपने को शास्त्र मर्यादा के अनुकूल तथा दूसरों को उसके प्रतिकूल बताने की होड़ लग जाती है। बहुतों का तो धर्म ही खतरे में पड़ जाता है। संघ संगठन की दृष्टि से यदि कोई एक मान्यता प्रस्तावित हो जाती है तो उसे भी तोड़ने को तैयार हो जाते हैं, और इसके लिए कहते हैं कि यदि हमने अपनी पुरानी शास्त्रीय परम्परा के अनुसार पुर्यषण नहीं किया तो हम भगवान की आज्ञा के विराधक हो जाएँगे, हमें प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ेगा। मैं उन सब महानुभावों के समक्ष एक नम्र निवेदन करना चाहता हूँ कि आप भूल में हैं। यदि आप बदलती हुई नयी परम्पराओं को मानने के लिए तैयार नहीं हैं, केवल प्राचीन परम्पराओं के ही पक्षधर हैं, तो प्राचीन परंपरा आप सबके लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान करती है। बात जरा कड़वी है, पर सत्य के लिए सिद्धान्त की मूल स्थिति को तो स्पष्ट करना ही होगा। पर्युषण और केशलोच 147 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ सूत्र में कहा है कि जो भिक्षु अपर्युषणा में पर्युषणा स्वयं करता है, दूसरों से करवाता है, अथवा अनुमोदन करता है उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार जो पर्युषण के विहित काल में पर्युषणा स्वयं नहीं करता है, न दूसरों से करवाता है, और पर्युषण न करने वालों का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। मूल-पाठ इस प्रकार है:जे भिक्खू अपज्जोसवणाएँ पज्जोसवेति, पज्जोसवेंतं वा सातिज्जति। -10 1 42 जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ, ण पज्जोसर्वेतं वा सातिज्जति। ___-10 | 43 पर्युषण का उत्सर्ग काल आषाढ़ पूर्णिमा है। वर्षावास के योग्य शुद्ध क्षेत्र एवं मकान आदि मिल जाए तो आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण करना चाहिए। यदि कभी ऐसा योग्य क्षेत्र एवं मकान आदि न मिले तो अन्ततोगत्वा अपवाद स्थिति में नौ महीने बीस रात्रि का विहारकाल पूर्ण करके भादवा सुदी पंचमी को तो पर्युषण कर ही लेना चाहिए।' इस से आगे नहीं जाना चाहिए। कल्प सूत्र के समाचारी प्रकरण में इसी लिए कहा है अन्तरा वि य से कप्पइ, नो से कप्पइ तं रयणिं उवाइणावित्तए- 9। 8 अब प्रश्न यह है कि जब आजकल आरंभ में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही सिद्धान्तानुसार चातुर्मास के योग्य क्षेत्र मिल जाते हैं, उपाश्रय आदि के रूप में मकान भी पक्के, साफ-सुथरे व्यवस्थित प्राप्त हो जाते हैं, अन्य भी कोई कारण नहीं होता कि जिसके लिए अपवाद का सेवन किया जाए, तो व्यर्थ ही अपवाद सेवन का दोषाचरण क्यों किया जाता है? कारणवश अपवाद का सेवन करना पड़े, तो प्रायश्चित्त नहीं होता। परन्तु यदि कोई बिना कारण अपवाद का सेवन करता है तो वह प्रायश्चित का भागी होता है। उक्त विवेचन पर से स्पष्ट है कि आजकल सूत्रोक्त प्राचीन परंपरा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण न करके भादवा सुदी पंचमी को जो पर्युषण किया जाता है, वह न उत्सर्ग है, और न अपवाद है। साधना के दो ही मार्ग हैं-उत्सर्ग और अपवाद। दो के अतिरिक्त जो भी मार्ग हैं, वह मार्ग नहीं; उन्मार्ग है। पथ नहीं, कुपथ है। अतः उत्सर्ग और ___148 प्रजा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पष्प Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवाद दोनों मार्गों से दूर शास्त्र एवं परंपरा से निषिद्ध अमार्ग पर जाने वाले स्पष्ट ही प्रायश्चित्त के भागी हैं। क्या मैं आशा करूँ कि प्राचीन परंपरा के पक्षधर अपनी वर्तमान अशास्त्रीय परंपरा का मोह त्याग कर आषाढ़ पूर्णिमा के पर्युषण पर्व का सैद्धान्तिक पक्ष अपनाएँगे । पर्युषण पर लोच कब और क्यों? पर्युषण पर्व से सम्बन्धित लोच कब करना चाहिए और क्यों ? उक्त प्रश्न पर हम प्रारंभ में ही विस्तार से चर्चा कर आए हैं। यहा संक्षेप में यह कहना है कि जब पर्युषण हो, तभी पर्युषण से सम्बन्धित केश लोच भी करना चाहिए । पर्युषण उत्सर्ग से आषाढ़ पूर्णिमा का शास्त्र एवं प्राचीन परंपरा से सिद्ध है, अतः केशलोच भी आषाढ़ पूर्णिमा के वर्षान्त प्रतिक्रमण से पहले ही करना सिद्ध है। कल्पसूत्र के मूल पाठ का स्पष्टीकरण करते हुए सुबोधिका में साफ लिखा है कि पर्युषण से अर्थात् आषाढ़ चातुर्मासी के अनन्तर भिक्षु को लंबे केश तो क्या, गोलोम प्रमाण छोटे केश भी नहीं रखने चाहिए। हेतु वही अप्काय की विराध ना का है, ज्वर आदि की उत्पत्ति का है, शिर खुजलाते समय यूका आदि की हिंसा एवं अपने नखक्षत आदि हो जाने की संभावना है। पर्युषणातः परमाषाढ़चतुर्मासकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीयाः । - कल्पसूत्र सुबोधिका 9 1 57 अपकाय विराधना आदि का टीका पाठ पहले लिखा जा चुका है। निशीथ सूत्र की विशेष चूर्णि में भी केशलोच की हेतुकता के लिए अप्काय विराधना आदि का ही उल्लेख है- आउक्काइयविराहणाभया संसज्जणभया य वासासु धुवोओ कज्जति - 31731 वर्षा के कारण लंबे केशों के भींग जाने पर अप्काय आदि की विराधना होती है, अतः वर्षावास में- चौमास में भिक्षुओं को प्रतिदिन लोच करना चाहिए। यदि रोगादि कारणवश लोच न हो सके तो अपवाद में क्षुरमुंडन तथा कर्तरी मुंडन कराना चाहिए। क्षुरमुंडन कराए तो महीने - महीने के अनन्तर कराना चाहिए, और, यदि कर्तरी मुंडन कराए तो अर्धमास अर्थात् पंदरह-पंदरह दिन के अन्तर से कराते रहना चाहिए। इसके लिए कल्प - सूत्र का मूल पाठ दृष्टव्य है - मासिए खुरमुंडे, अद्धमासिए कत्तरीमुंडे - 91571 आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने लोच न करने पर अपवाद में जो क्षुरमुंडन आदि का विधान किया है, पर्युषण और केशलोच 149 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह स्पष्ट सूचना देता है कि केश लोच आषाढ़ पूर्णिमा के दिन से ही प्रतिदिन प्रारंभ कर देना चाहिए। यदि अशक्त भिक्षु लोच न कर सके तो उसे क्षुरमुंडन आदि ही करा लेना चाहिए। अपवाद स्थिति को छोड़कर आषाढ़ पूर्णिमा के प्रतिक्रमण से पहले शिर पर बाल, किसी भी हालत में नहीं रहने चाहिए। यदि कोई रखता है तो वह निशीथ सूत्र के अनुसार गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। वर्तमान परंपरा उपर्युक्त प्राचीन परंपरा के सर्वथा विपरीत है। अब तो वर्षा के भरे पूरे महीने (श्रावण और भादवा) शिर पर सघन बालों को रखे हुए ही बीत जाते हैं, वर्षा का पानी बालों में पड़ता रहता है और अप्काय आदि की विराधना चालू रहती है, और उक्त दोषों के कारण निशीथ सूत्रानुसार प्रायश्चित्त का प्रसंग उपस्थित रहता है और जब वर्षा का मौसम समाप्त होने को होता है, तब लोच किया जाता है। कितनी बड़ी असंगति है इसमें ! वर्तमान परंपरा तो पर्युषण सम्बन्धी लोच के मूल उद्देश्य एवं आधार को ही समाप्त कर देती है। जब प्राचीन ग्रन्थों की परंपरा के अनुसार लोच का हेतु ही नहीं रहा, तब असमय में लोच करने का क्या अर्थ रह जाता है? देशकालानुसार बदलती हुई छोटी-मोटी नगण्य बातों के विरोध में शास्त्र तथा प्राचीन परंपरा के नाम पर क्षुब्ध होने वाले हमारे परम्परा भीरु मुनिराजों को चाहिए कि वे पक्षातीत हृदय से उपर्युक्त शास्त्रविहित प्राचीन परंपरा को अपनाएँ, और अपनी चिरागत भूल का शास्त्रमर्यादा के प्रकाश में उचित संशोधन करें। लोच न करने पर क्या साधुता नहीं रहती? साधना के दो रूप हैं-एक निश्चय और दूसरा व्यवहार। निश्चय अन्तर् की स्थिति है और वह वीतरागता और समभाव। मूल साधन यही है। व्यवहार बाहर के नियमोपनियम हैं, संघीय व्यवस्थाएँ हैं। निश्चय नहीं बदलता, व्यवहार बदलता रहता है। व्यवहार का आधार देश है, काल है, व्यक्ति है और व्यक्ति की परिस्थिति है। देश, काल आदि शाश्वत नहीं हैं, बदलते रहते हैं। और जब ये बदलते हैं, तो इनके आधार पर गठित व्यवहार भी बदल जाता है। लोच निश्चय नहीं, व्यवहार है। यह अमुक स्थितियों में की गई संघीय व्यवस्था बहुत प्राचीन है। सबके लिए परिपालन करने योग्य है। परन्तु किसी साधक की शारीरिक स्थिति अनुकूल नहीं है, वह लोच या क्षुरमुंडन आदि कराने की भी स्थिति में ___150 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, या अन्य कोई विशिष्ट कारण है, तो लोच नहीं भी किया जा सकता है। उक्त अपवाद की स्थिति में अन्तरंग की साधुता, जो वीतराग भावना पर आधारित है, नष्ट नहीं हो जाती। यह नहीं कि लोच न करने पर साधु अपने छठे गुण स्थान आदि की साधुत्व-भूमिका से नीचे गिर जाए। मुनि दीक्षा से पहले लोच करना आवश्यक है प्रचलित संघीय व्यवस्था में। परन्तु भरत चक्रवर्ती और माता मरुदेवी आदि जब गुणस्थानों की विकास भूमिका पर अग्रसर हुए तो उन्हें बिना लोच किए ही साधुत्व की भूमिका प्राप्त हुई और केवलज्ञान भी प्राप्त हुआ। बाहुबली एक वर्ष तक ध्यान में खड़े रहे, उन्होंने पर्युषण काल में या अन्य काल में कहाँ लोच किया? भगवान महावीर आदि जब ध्यानमुद्रा में होते थे, तो कहाँ लोच करते थे? स्थूलभद्र के युग में सिंह गुफावासी आदि मुनि, जो वर्षावास ध्यानावस्थित रहे, उन्होंने कब लोच किया? भगवान् ऋषभदेव ने जब दीक्षा ली तो पंचमुष्टि लोच की जगह चतुर्मुष्टिः लोच किया और मस्तक पर एक खासी अच्छी लम्बी शिखा रहने दी। यह कैसे हुआ? यदि लोच का रूप ऐकान्तिक एकरूपता का ही होता तो भगवान् ऐसा नहीं कर सकते थे। कल्पसूत्र में वह उल्लेख आज भी उपलब्ध है-'सयमेव चउमुट्ठियं लोयं करेइ-9 ऋषभ चरित्राधिकार। भगवान् महावीर ने पंचमुष्टि के रूप में पूर्ण केश लोच किया है, जबकि भगवान् ऋषभदेव ने पूर्ण केश लोच नहीं किया। यह भेद स्पष्ट बताता है कि लोच का सम्बन्ध जितना बदलती हुई संघीय व्यवस्था से है, उतना आध्यात्मिक सनातन साधना से नहीं। अतः परिस्थिति विशेष में यदि कोई लोच नहीं कर सकता है तो इस का यह अर्थ नहीं कि वह साधुत्व भाव से भ्रष्ट हो जाता है। जो दर्शन गृहस्थ जीवन में भी भावविशुद्धि का प्रकर्ष होते ही कैवल्य एवं निर्वाण होने की स्थापना करता है, बन्धन मुक्त होने की बात कहता है, वह यह कैसे कह सकता है कि लोच के बिना धर्म नहीं हो सकता, आत्मविशुद्धि नहीं हो सकती। साधुत्व नहीं रह सकता। जैनधर्म में भाव महान् है, द्रव्य नहीं, अंतरंग महान् है, बहिरंग नहीं। संघ परंपरा की दृष्टि से लोच का महत्त्व है। यदि कोई विशिष्ट कारण न हो तो वह समय पर अवश्य करणीय है। कब और किस स्थिति में करणीय है, और क्यों करणीय है? कब और किस परिस्थिति में अकरणीय है? इस पर प्रस्तुत लेख में तटस्थ दृष्टि से विचार चर्चा उपस्थित की गई है। आशा है, सुधी जन इस पर अनाग्रह भाव से मुक्त चिन्तन पर्युषण और केशलोच 151 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की दिशा में अग्रसर होंगे तथा पुरानी और नयी परम्परा की विभेदरेखा का स्पष्ट विश्लेषण करेंगे। संदर्भ :1. केसलोओ य दारूणो -उत्तराध्ययन 19/33 2. तरूणानां चातुर्मासिक इति -कल्पसूत्र-सुबोधिका 9/57 3. संवच्छरो वर्षारात्रः -समय सुंदरीय कल्पलता 4. (क) जत्ति उड्डबद्धे वासासु वा खुरेण कारवेंति तो–मासलहुँ, कत्तीए मासगुरूं। आणादियाण दोसा, छप्पतिगाण विराहणा, पच्छकम्मदोसा य। -निशीथ विशेष चूर्णि-गा. 3213 5. पज्जोसवणा य वासवासो य -नि. भा. 3139 6. पव्वेसु तव करेंतस्स इमो गुणो भवति.... उत्तरगुणकरणं कतं भवति, एगग्गया य कता भवति, पज्जोसवणासु वरिसिया आलोयणा दायव्वा, वरिसाकालस्स य आदीए मंगलं कतं भवति। सड्ढाण य धम्मकहा कायव्वा। पज्जोसवणाए जइ अट्ठम ण करेइ तो चउगुरूं...... वितियं अववादेण ण करेज्जपि - उपवासस्स असहू ण करेज्ज, गिलाणो वा न करेज्जा, गिलाणपडिचरणो वा, सो उपवासं वेयाच्चं च दो विकाउं असमत्थो एवमादिएहिं कारणेहिं पज्जोसवणाए आहारतो सुद्धो। 7. वासाखेत्तालंभे -निशीथ भाष्य 3146 आसाढ़े सुद्ध वासासवासपाउग्गं खेत्तं मग्गतेहिं ण लद्धं ताव जाव आसाढ़ चउम्मासातो परतो सवीसतिराते मासे अतिकूते लद्धं ताहे भद्दवया जोण्हस्स पंचमीए पज्जोसवंति एवं णवमासा सवीसतिराता विहरणकालो दिट्ठो ___ -विशेष चूर्णि 8. जेभिक्खू पज्जोसवणाए गोलोमाइपि बालाई उवाइणावेइ, उवाइणावेंत वा सातिज्जति। -निशीथ सूत्र 10 1 44 9. भगवान् ऋषभदेव ने अपने हाथों चतुर्मुष्टि लोच किया। यहाँ चतुर्मुष्टि से अभिप्राय यह है कि शिर के पांच भाग हैं, चार तो आगे-पीछे अगल-बगल आदि चारों दिशाओं में और एक बीच में। भगवान् ऋषभदेव ने चारों ओर से तो लोच कर लिया, किन्तु बीच के भाग का लोच नहीं किया, शिखा रहने दी। ___152 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रीय विचार चर्चा दीक्षाकालीन केशलोच: कहाँ गायब हो गया 44 'पर्युषण और केश - लोच कब और क्यों ? " शीर्षक से लिखे चिन्तन प्रधान लेख में केश - लोच सम्बन्धी सन्दर्भ में मैंने लिखा था - " जैन श्रमणों के क्रिया-काण्डों में केश- लोच एक कठोर क्रिया- काण्ड है। अपने हाथों से अपने सिर के बालों को उखाड़ डालना, एक असाधारण साहस, धैर्य, एवं सहिष्णुता की बात है। यह प्रक्रिया देह - भाव से ऊपर उठने की, तितिक्षा की, कष्ट सहन की चरम प्रक्रिया है । जैन साधक के लिए केश - लोच बाह्य तप है, परन्तु वह समभाव, कष्ट-सहिष्णुता, धैर्य, अनाकुलता, अहिंसा एवं स्वतंत्र जीवन आदि रूप आभ्यान्तर- तप के परीक्षण की भी एक कसौटी है......... । ” 10 / 44 वस्तुतः केश- लोच एक उग्र तपः साधना है। उत्तराध्ययन के अनुसार " वह दारुण है। " सूत्र कृतांग सूत्र में कहा है- " अनेक भिक्षु केश - लोच से संतप्त हो जाते हैं। 2 केश- लोच: कब, कौन, कितनी बार करे प्राचीन काल का जिन - कल्पी मुनि प्रतिदिन केश - लोच करता था। स्थविर - कल्पी मुनि को भी चार-चार महीने के अनन्तर वर्ष में तीन बार लोच करना चाहिए। वर्षाकाल में तरुण भिक्षुओं को भी प्रतिदिन लोच करना होता है । 1 जराजर्जर शरीर एवं नेत्र-शक्ति से क्षीण वृद्ध साधुओं को छह-छह महीने में और यदि साधु अधिक वृद्ध हों, तो वर्ष में एक बार वर्षाकाल के प्रारंभ में, लोच करना आवश्यक है। केश- लोच का अपवाद यह सब वर्णन उत्सर्ग का है, अपवाद की स्थिति में तो इसमें आवश्यक हेर-फेर हो सकता है। सिर - रोग, मन्द-चक्षु, ग्लान आदि की विशेष परिस्थिति में लोच करना अनिवार्य नहीं है । यह केश - लोच का अपवाद नया नहीं है। कल्पसूत्र, 153 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ भाष्य आदि प्राचीन - से - प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है । " केश- लोच : तब और अब मूल आगम साहित्य में केश - लोच का वर्णन है, परन्तु वह कब और कितनी बार करना चाहिए, ऐसा विधान रूप में कोई उल्लेख नहीं है। वर्ष में तीन बार, दो बार एवं एक बार तथा वर्षावास में प्रतिदिन आदि लोच करने का यह सब वर्णन प्राचीन भाष्यों, चूर्णि एवं टीकाओं में है। लोच करने का विधि रूप से वर्णन सिर्फ कल्पसूत्र में है । वर्षा काल में प्रतिदिन तथा वर्ष में तीन बार लोच करने की परम्परा कब और क्यों लुप्त हुई ? यह विचारणीय है। तरुण भिक्षु के लिए तो वर्ष में तीन बार और वर्षाकाल में प्रतिदिन लोच करना अनिवार्य रहा है। आज के तरुण एवं समर्थ भिक्षु, ऐसा क्यों नहीं करते? क्या वे सभी सुखशीलया हो गए हैं? इसका समुचित उत्तर है किसी आगमाभ्यासी के पास ? केश- लोच की परम्परा बदलती-बदलती आज कहाँ और किस रूप में पहुँच गई है, यह किसी से छुपा नहीं है ? वृद्ध और अशक्त भिक्षुओं की केश- लोच सम्बन्धी छूट का, आज के तरुण और समर्थ भिक्षु भी किस प्रकार प्राचीन परम्परा - विरुद्ध खुला उपयोग कर रहे हैं? यह सबके सामने है। इसके लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा है क्या ? केश- लोच : भौतिक हेतुवाद पर आधारित नहीं है केश- लोच जैन - साधना की एक अध्यात्म - भावना प्रधान स्वयं प्रेरित क्रिया है। वह साधक की आन्तरिक तितिक्षा का एक उत्कृष्ट मान दण्ड है। वह अन्तर्-विवेक के प्रकाश में सहज भाव से करने जैसी साधना है । वह जनता में प्रतिष्ठा पाने या साधु संस्था की शोभा बढ़ाने आदि भौतिक वासनाओं की पूर्ति हेतु नहीं है। आत्म- रश्मि ( मासिक पत्र) 20 अगस्त 1970 का यह कथन तो बहुत नीचे स्तर का है - " समाज से भोजन, वस्त्र, मकान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करता है, तब उसे ( साधु को ) केश- लोच की प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। " केश - लोच के लिए यह लोकैषणा का हेतुवाद जैन धर्म से मेल नहीं खाता।6 यह जो जैन-साधना के मूल्य को बिल्कुल गिरा देता है। जो उक्त दृष्टि से बिना अन्तर्-जागरण के लोचादि बाह्यक्रिया करता है, वह साधु ही नहीं है । साधक की अन्तरात्मा जगे, वह देह - बुद्धि के निम्न स्तर से उँचा उठे, तभी उक्त क्रिया-काण्डों की सार्थकता है। अन्यथा लोकैषणा के चक्कर में तो कुछ साधक • 154 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केश- लोच से बढ़कर भी अत्यन्त घोर देह - पीड़न करते देखे गए हैं, आध्यात्मिक मूल्य क्या है? कुछ भी तो नहीं "जन- मन- रंजन धर्मनुं, मोल न एक छदाम ” क्या समाज ऐसे भिक्षुओं से अपरिचित है, जो बाहर में बराबर समय पर केश- लोच करते रहते हैं और अन्दर में मन चाहे गुलछर्रे उड़ाते हैं। साधुत्व तो क्या, नैतिक जीवन भी उनका ठीक नहीं होता । और, कुछ तो ऐसे भी हैं, जो दाढ़ी आदि का लोच श्रृंगार की दृष्टि से भी करते रहते हैं। उन्हें ठोड़ी पर बढ़े हुए बाल अच्छे नहीं लगते हैं। अतः दाढ़ी का लोच जल्दी-जल्दी किया जाता है । क्या, ऐसे लोगों का केश- लोच जैन-साधना की कोटि में आता है ? नहीं आता है। बाह्य तप केवल बाह्य नहीं है, उसका कोई भी बाह्य हेतु नहीं है। वह तो अन्तरंग - तप की अभिवृद्धि के लिए होता है - तभी वह तप है, अन्यथा नहीं " बाह्यं तपः परम दुश्वरमाचरस्त्वम् । आध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहणार्थम् || " - आचार्य समन्तभद्र मैं केश- लोच के महत्त्व को भौतिक आकांक्षाओं के निम्न स्तर पर उतारना ठीक नहीं समझता। भोजन, वस्त्र, मकान आदि कुछ सुविधाएँ मिले या न मिले, बाह्य प्रतिष्ठा, शोभा की दृष्टि से लोगों को अच्छा लगे या न लगे साध क को इस आधार पर अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय नहीं करना है। सच्चे साध क का, जो भी निर्णय होता है, वह एक मात्र आध्यात्मिक - विकास को ध्यान में रख कर होता है। धर्म - साधना की आत्मा, आत्म- रमणता है, अन्य नहीं । दीक्षाकालीन केश - लोच केश- लोच के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर और भी लम्बी चर्चा की जा सकती है। परन्तु, प्रस्तुत में मुझे केश - लोच के संदर्भ में वह चर्चा करनी है, जो अत्यावश्यक है। दुर्भाग्य से केश - लोच की वह परम्परा आज विलुप्त हो चुकी है, जो कभी साधक के जागृत वैराग्य की उज्ज्वल प्रतीक थी, देहातीत - भाव की एक निर्मल अध्यात्म - ज्योति थी । परन्तु उसका प्राचीन काल में, जब भी कोई स्त्री या पुरुष प्रव्रज्या ग्रहण करता था, मुनिधर्म की दीक्षा लेता था, तो अपना केश- लोच भी स्वयं करता था । देह - भाव शास्त्रीय विचार चर्चा : दीक्षाकालीन केशलोचः कहाँ गायब हो गया ? 155 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ऊँचे उठे हुए साधक का यह अन्तर्नाद था, जो उपस्थित जन - समाज में वैराग्य - भावना की एक तीव्र लहर पैदा कर देता था। यह दीक्षाकालीन केश - लोच साधक स्वयं करता था, किसी अन्य से नहीं करवाता था। आज की तरह यह नाटक नहीं होता था कि नाई से सिर के बाल मुंडवा लिए, सिर्फ चोटी के रूप में दो-चार बाल रख छोड़े और दीक्षादाता गुरुजी ने जनता के समक्ष उन्हें राख की चुटकी से उखाड़ कर केश- लोच की रस्म अदा कर दी। जय-जयकार हो गया और भक्तजन - बाल - ग्रहण करने हेतु ऊपर - तले गिरने पड़ने लगे। उस युग में ऐसा दिखावा नहीं था। साधक स्वयं अपने हाथों से पंचमुष्टि लोच करता था और विवेक मूलक दृढ़ता के साथ साधना - पथ पर चल पड़ता था । श्रमण भगवान् महावीर दीक्षित होते समय अपने हाथों से केश-लोच करते हैं। भगवती मल्ली ( भगवान् मल्लीनाथ ) भी स्वयं केश - लुंचन करते हैं । " भगवान् ऋषभदेव और नेमिनाथ तथा अन्य तीर्थंकर भी स्वयं केश - लोच करते हैं।" तीर्थंकर ही नहीं, अन्य साधारण साधक भी ऐसा ही करते हैं। ऋषभदत्त ब्राह्मण', शिवराजर्षि परिव्राजक ", महाबलकुमार 2, मेघकुमार 3, पोटिला 14, काली' 5, सुभद्रा", राजीमति ", ? आदि अनेक भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ दीक्षा - काल में स्वयं केश - लुंचन कर के दीक्षित - प्रव्रजित होते हैं। सर्वत्र 'सयमेव' लोच करने का शब्दोल्लेख है, जिसे कोई भी जिज्ञासु आगमों में यथास्थान देख सकता है। दीक्षा - काल और नाई दीक्षाकालीन केश- लोच की यथा प्रसंग चर्चा चलने पर कुछ साधुओं तथा श्रावकों द्वारा नाई की बात की जाती है। कहा जाता है, कि वर्तमान में नाई के द्वारा बाल कटाने की प्रथा प्राचीन युग से चली आ रही है। प्राचीन युग में भी नाई बुलाया जाता था और वह दीक्षार्थी के बालों का मुण्डन कर देता था । अतः दीक्षा - काल में केश- लोच आवश्यक नहीं है। इसके लिए मेघकुमार आदि के उदाहरण दिए जाते हैं। परन्तु, यह कथन सत्य पर आधारित नहीं है। प्राचीन युग में स्त्रियों के समान पुरुष भी सिर पर लम्बे केश रखते थे, कटवाते नहीं थे, जैसा कि आजकल भी राम - कृष्ण आदि महापुरुषों के चित्रों में देखा जा सकता है। अस्तु, दीक्षा लेते समय नाई चार अंगुल छोड़ कर लम्बे बालों को काट देता था, जिससे कि वे केश - लुंचन के योग्य स्थिति में आ जाएँ । तत्पश्चात् दीक्षार्थी 156 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार अंगुल छोड़े हुए केशों का अपने हाथों से लोच करता था। अतएव मेघकुमार के दीक्षा-प्रसंग में सम्राट् श्रेणिक ने नाई को बुलाकर कहा है- "देवानुप्रिय ! तु जाओ और पहले सुगन्धित गन्धोदक से अपने हाथ-पैरों को अच्छी तरह साफ करो। अनन्तर चार पुट वाले श्वेतवस्त्र से अपना मुख बाँध कर मेघकुमार के केशों को चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण योग्य कर दो अर्थात् मेघकुमार के बाल चार अंगुल प्रमाण छोड़कर शेष सब काट दो। राजा के उक्त कथनानुसार नाई सारी क्रिया संपादित कर देता है। तदनन्तर जब मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षा ग्रहण करता है, तो अपने आप पंचमुष्टि केश-लोच करता है "तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंच मुट्ठियं लोयं करे।।" मेघकुमार के वर्णन के अनुसार ही भगवती में जमालि राजकुमार का वर्णन है। वहाँ पर भी जमालि का पिता इसी प्रकार नाई से चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण योग्य बाल कटवाता है और फिर जमालि दीक्षा लेते समय स्वयं पंचमुष्टि लोच करता है। मेघकुमार के वर्णन में चार पटल के मुखवस्त्र का उल्लेख है, जो नाई बाल बनाते समय मुख पर बाँधता है। और, यहाँ आठ पटल के वस्त्र का उल्लेख है "अट्ठ पडलाए पोत्तीए मुँह बंधाइ" ज्ञाता सूत्र के पञ्चम अध्ययन में शैलक राजा भी इसी प्रकार दीक्षा ग्रहण करता है। क्योंकि वहाँ पर भी उनकी रानी पद्मावती के द्वारा 'अग्रकेशों' के ग्रहण करने का उल्लेख है "पंडमावई देवी अग्गकेसे पडिच्छइ" दीक्षा-कालीन केश-लोच से पहले नाई के द्वारा अग्रकेशों का कर्तन भी कोई अनिवार्य स्थिति नहीं है। तीर्थंकर और नारी जाति की दीक्षाओं के प्रसंग में कहीं भी नाई को बुलाने का उल्लेख नहीं है। ये सब नाई से अग्रकेश नहीं कटवाते हैं, सीधे ही केश-लोच करते हैं। उक्त वर्णन से सिद्ध है कि दीक्षा-काल में केश-लोच तो हर स्थिति में अनिवार्य है, भले ही कोई साधक दीक्षा के पूर्व नाई से अग्रकेश कटवाए या न कटवाए। दीक्षा के समय स्वयं अपने हाथ से लोच करने की परम्परा रही है। शास्त्रीय विचार चर्चाः दीक्षाकालीन केशलोचः कहाँ गायब हो गया? 157 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह प्राचीन परम्परा : लुप्त कैसे हो गई? प्रश्न है, यह परम्परा लुप्त कैसे हो गई? दीक्षा कालीन केश - लोच कैसे गायब हो गया? और, कैसे उसकी जगह नाई के द्वारा मूल से ही पूर्णतया केश कर्तन ने ले ली ? पूरा - का - पूरा सिर मुंडा कर दो-चार बाल रखना और गुरु के द्वारा उनके लोच का प्रदर्शन- दिखावा करना, यह गलत परम्परा कैसे चालू हो गई? बात यह है, भारतवर्ष का मध्यकालीन युग अन्धकार पूर्ण रहा है। जैन - परम्परा भी इस अन्धकार से अलिप्त नहीं रह सकी । धार्मिक तेज जब क्षीण हो जाता है, तब प्रायः ऐसा ही हुआ करता है। तत्कालीन स्थिति, जो 'संघ-पट्टक' आदि ग्रन्थों में उल्लिखित है, उससे पता चलता है कि छोटे-छोटे बच्चों को, जिन्हें यह भी पता नहीं कि वैराग्य किस चिड़िया का नाम है, दीक्षित किया जाता था। अभावग्रस्त दरिद्र लोग, अच्छे रहन-सहन के प्रलोभन पर, साधु बना लिए जाते थे। अधिकतर दीक्षाएँ सेवा लेने और वंश परंपरा चलाने की भावना से दी जाती थी। एक बार नाई से सिर मुंडवा कर दीक्षित हो गए कि फिर अन्दर से जैसे-तैसे लोच की बात होती रहती थी । गुरु, चेलों की गीली आँखों में सब-कुछ हो सकता था । प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष में गए कि सब झंझट समाप्त। दूसरों से लोच कराने का मूल भी इसी स्थिति में है । साधक के लिए स्वयं अपने हाथों से लोच करना, प्रथम उत्सर्ग पक्ष है। दूसरों से लोच कराना अपवाद पक्ष है, जो हाथ आदि अंगों की विकृति विशेष में अथवा अन्य किसी विशेष गाढ़ागाढ़ परिस्थिति में विहित है। बिना कारण केवल सुविधा की दृष्टि से, दूसरे भिक्षु से लोच कराना अपवाद नहीं है। अतः वह शास्त्र - विहित भी नहीं है। स्वयं अपने हाथों से लोच करने में देर लगती है, अतः दर्द की मात्रा लम्बी होती है। बस, दूसरों से लोच करा लिया जाए, ताकि जल्दी ही लोच की झंझट समाप्त हो जए। आप देखते हैं, कुछ सन्त दर्द कम करने की मनोवृत्ति से लोच कराने का मुहूर्त देखते हैं, स्तोत्र का पाठ एवं मन्त्र जपते हैं, लोच करने में किसका हलका और नम हाथ है, यह भी तलाशा जाता है, घी आदि द्रव्य भी लगाए जाते हैं। यह सब केश- लोच के दर्द से बचने के उपक्रम हैं, जो मध्य-युग से चले आ रहे हैं। कोई भी सहृदय विचारक देख सकता है, केश- लोच की यह कैसी दु:स्थिति है। मेरे विचार में यही दुर्बल मना साधकों का कारण था कि दीक्षा - कालीन केश - लोच समाप्त हो गया और उसके स्थान में वर्तमान परम्परा नाई से सिर मुंडवाने की परम्परा चालू हो गई। 158 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन परम्परा पुनर्जीवित होनी चाहिए ___ कैसी भी स्थिति रही हो, दीक्षा-कालीन केश-लोच की परम्परा, जो अपने में एक वैराग्य-प्रधान उज्ज्वल परम्परा थी, विलुप्त हो गई। मैं अपेक्षा करता हूँ, वह फिर से जीवित होनी चाहिए। जब दीक्षार्थी सर्व-साधारण जनता के समक्ष अपने हाथों से अपना लोच करता है, तो कितनी अधिक वैराग्य भाव की उद्दीप्ति होती है, जैन-साधना कितनी महिमान्वित होती है। जैन-दीक्षा देहातीत भाव की, सहज विरक्ति की साधना है। उसके लिए महान् धृति-बल की अपेक्षा है। केश-लोच उसी धृति-बल की परीक्षा है, यह परीक्षा दीक्षा के पूर्व होनी चाहिए न ! यह क्या बात है, दीक्षा पहले हो जाती है और उसकी परीक्षा बाद में होती है। बाद में भी परीक्षा होती रहनी चाहिए, वर्ष में तीन बार और वर्षावास में तो प्रतिदिन लोच होते रहना चाहिए, कोई बात नहीं। किन्तु, दीक्षा-काल में स्वयं अपने हाथ से लोच करने की प्राथमिक परीक्षा तो अत्यन्त आवश्यक है। क्या परम्परा प्रेमी, पुरातन परम्पराओं के अनुरागी संयमी और उत्कृष्ट आचारी मुनिराज मेरे उक्त विचार पर कुछ लक्ष्य देंगे? देंगे, तो कब? संदर्भ :1. केसलोओ य दारुणो। -उत्तराध्ययन, 19, 34. 2. संतता केस लोएण। -सूत्रकृतांग 3, 13. 3. निशीथ भाष्य, 3213. 4. निशीथ भाष्य, 3173. 5. कल्पसूत्र, 9, 57. कत्तरी-छुर-लोए वा विनियं असह गिलाणेय। -निशीथ भाष्य 3212 वित्तीयपवेणं लोयं न कारवेज्जा। असह् लोयं तरति अधियासेउ। सिरोरोगेण वामंद चक्खुणा वा लोयं असहतो धम्मं छड्डेज्जा। गिलाणस्स वालोओ न कज्जति, लोए वा करेंते गिलाणो हवेज्ज। __ -चूर्णि 6. न लोगस्सेसणं चरे। -आचारांग, 14,1. 7. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कंद 8. ज्ञाता सूत्र, अध्य. 8 शास्त्रीय विचार चर्चा: दीक्षाकालीन केशलोचः कहाँ गायब हो गया? 159 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन 10. भगवती 9, 33. 11. वही 11, 10 12. वही, 11, 11 13. ज्ञातासूत्र 1, 1 14. वही 2, 14 15. वही 2, 1 16. पुफिया, 4 17. उत्तराध्ययन, 12 18. तए णं सेणिए रायमा कासवयं एवं वयासी-गच्छहि णं तुम णं तुम देवाणुप्पिया, सुरभिणा गंधोदएणं निक्के हत्थपाए पक्खालेहि, सेमाए चउप्फलाए पोत्तीए मुहं बंधि त्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि। -ज्ञातासूत्र 1, 1 19. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया, जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपओगे अग्गकेसे पडिकप्पेहि। ........ तए णं से जमालि खत्तिय कुमारे सयमेव पंच मुठ्ठियं लोयं करेई। – भगवती सूत्र 9, 33 160• प्रा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्द-मूल : भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा संसार के प्रत्येक प्राणी के प्राणों का, जीवन का आधार आहार है। आहार है तो जीवन है, नहीं है तो नहीं है। अतः श्रमण भगवान् महावीर ने इसी सन्दर्भ में कहा था-'आहारट्रिया प्राणा।' वैदिक-परमपरा का भी यही उद्घोष है-'अन्नं वै प्राणाः।' अन्य प्राणियों की बात अलग से छोड़ देते हैं। यहाँ हम मानव के आहार के सम्बन्ध में ही चर्चा करेंगे। क्योंकि मानव के आहार के सम्बन्ध में विधि -निषेधों की जितनी चर्चा अतीत में हुई है और वर्तमान में हो रही है, उतनी अन्य प्राणियों के लिए कहाँ हुई है? मानव, केन्द्र है प्राणि जगत् का, उसी के लिए शास्त्र निर्मित हुए हैं, उसी के सुधार के लिए-मंगल-कल्याण के लिए अधिकांश में भगवदात्मा महान् दिव्य पुरुषों की वाणी मुखरित हुई है। उसी के लिए विधि-निषेधों के अनेकानेक व्रत, नियम आदि विहित हुए हैं। मानव शुभाशुभ के, पुण्य-पाप के मध्य-द्वार पर खड़ा है। उसमें शुभत्व विकसित हो, तो वह सही अर्थ में मानव, मानव मात्र ही नहीं, देव एवं देवातिदेव भी हो सकता है। और, यदि दुर्भाग्य से अशुभ वृद्धि पा जाए, तो वह नरदेह में नर पशु, यहाँ तक कि दैत्य, दानव, पिशाच, राक्षस भी बन सकता है। और आप जानते है प्रस्तुत शुभ एवं अशुभ का अधिकांश में क्षेत्र आहार है। जैसा आहार होता है, वैसा मन होता है। जैसा मन होता है, वैसा ही कर्म होता है। और जैसा कर्म होता है, वैसा ही जीवन होता है। जीवन के शुभाशुभत्व का प्रभाव वैयक्तिक ही नहीं रहता है, वह परिवार एवं समाज तक विस्तार पाता है। इस प्रकार व्यक्ति व्यष्टि नहीं, समष्टि है। अन्य प्राणी जहाँ व्यष्टि की क्षुद्र सीमा तक ही अवरुद्ध रहते हैं, वहाँ मानव व्यापक समष्टि तक पहुँचता है। अतः मानव के आहार के सम्बन्ध में, जो जीवन-निर्माण का प्रमुख हेतु है, आदिकाल से ही शास्त्र पर शास्त्र निर्मित होते आ रहे हैं। आहार को धर्माधर्म तक का विराट रूप मिल गया है। 161 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-आहार के सम्बन्ध में सबसे पहली चर्चा है भक्ष्याऽभक्ष्य की। जो आहार दूसरे प्राणियों की हत्या करके प्राप्त किया जाता है, वह क्रूरता एवं हिंसा से जन्य मांस, मछली, अण्डा अभक्ष्य आहार है। यह बाघ, गीध आदि जंगली हिंस्र पशु-पक्षियों तथा राक्षसों का आहार माना गया है। प्रायः सभी आत्मदर्शी ध र्माचार्यों ने उक्त आहार को गर्हित, अतः अभक्ष्य बताया है। अहिंसा प्रधान धर्मों ने मांस आदि उक्त अभक्ष्य आहार की कसकर निन्दा की है, और उसे नरक गमन का हेतु कहा है। मानव अपने दन्त आदि अंगों की दृष्टि से मूलतः शाकाहारी प्राणी है, मांसाहारी नहीं। मानव-हृदय की सहज संवेदनशीलता भी ऐसी अनुकम्पा द्रवित है कि वहाँ मांसाहार कथमपि उपयुक्त नहीं हैं। अन्यत्र हमने इस पर काफी चर्चा की है, अतः प्रस्तुत में हम अपने एक बहुचर्चित विषय पर ही केन्द्रित रहना चाहते है। मांसाहार के निषेधानन्तर शाकाहार आदि की चर्चा है। शाकाहार अर्थात् मुख्यतया वनस्पति-आहार के सम्बन्ध में भी चिन्तन ने काफी स्वच्छ विचार प्रस्तुत किए हैं। लशुन, प्याज आदि कुछ ऐसी वनस्पतियाँ हैं, जो कुछ उत्तेजक हैं, मानसिक वृत्तियों को क्षुब्ध कर देनेवाली हैं, अतः तमोगुणी होने से उनका भी शास्त्रकारों ने अमुक अंश में निषेध किया है। रोगादि कारणविशेष में लशुन आदि भी विहित हैं, किन्तु स्वस्थ स्थिति में उत्सर्गरूपेण वर्जित हैं। खासकर जैन और वैष्णव परंपराएँ इनके निषेध पर काफी बल देती हैं। तमोगुण जन्य मादकता का तन और मन दोनों पर ही प्रभाव पड़ता है, अतः तमोगुणी आहार किसी भी रूप में हो, उससे बचना ही चाहिए। साधक के लिए तो विशेष रूप से वर्जित है। यही कारण है कि प्राचीन जैन-परम्परा में दुध, दही, मक्खन, घी आदि की भी विकृतियों में परिगणना है, फलतः उनका भी मुक्त भाव से अतिसेवन निषिद्ध है। "दुद्ध दही विगइओ आहारेइ अभिक्खणं....पावसमणेत्ति वुच्चई।" वनस्पति-शाकाहार के सम्बन्ध में आहार की चर्चा ने, जैन-परम्परा में आगे चलकर एक और मोड़ लिया। वह है वनस्पतिगत जीवों की संख्या का जैन-परम्परा में वनस्पति के जीवों की संख्या से तीन भेद हैं-संख्यात असंख्यात और अनन्त। प्रत्येक वनस्पति आम्र एवं जामुन आदि वृक्ष तथा घीया, तोरई आदि शाक कुछ संख्यात की गणना में आते हैं और कुछ असंख्यात की गणना में। भूमि में परिवर्धित होने वाले शकरकन्द, गाजर मूली आदि कन्दमूल अनन्त जीवों 163 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वनस्पतियाँ हैं। अतः प्रत्येक वनस्पति तो भक्ष्य की गणना में है, और अनन्तकाय कन्द-मूल अभक्ष्य की गणना में। परन्तु जीवों की न्यूनाधिक संख्या का यह भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी विचार प्राचीन आगमकाल का न होकर उत्तरकाल का है। जैनधर्म निवृत्ति पर बल देता है। अतः वह साधक को इच्छा-निरोध के लिए प्रेरित करता है। भोगोपभोग की जितनी कम इच्छा एवं अपेक्षा होगी, उतनी ही उसके तत्संबंधी राग-द्वेष के विकल्प कम होंगे। फलतः आश्रव एवं बन्ध का दायरा कम होगा, और संवर एवं निर्जरा का दायरा बढ़ेगा। आश्रव एवं बन्ध अध र्म है। उसके विपरीत संवर एवं निर्जरा धर्म हैं, मोक्ष का मार्ग है। यहाँ तक तो ठीक है। साधक को अपनी आहारेच्छा पर, जितना भी हो सके, नियन्त्रण करना ही चाहिए। परन्तु यह नियन्त्रण इच्छा एवं आसक्ति के आधार पर होना चाहिए, न कि निषेध के अति उत्साह में भक्ष्याभक्ष्य जैसे शब्दों के आधार पर। मांस आदि के लिए तो अभक्ष्य शब्द का प्रयोग उपयुक्त है, किन्तु जीवों की गणना के आधार पर वनस्पति-आहार के लिए उक्त शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं है। ___बात यह है कि जो अभक्ष्य है, वह अभक्ष्य ही है, कस्तुरी मुक्तापिष्टि आदि के रूप में कुछ अमुक आपवादिक स्थितियों को छोड़कर। हल्दी, सौंठ, अदरक आदि स्पष्ट ही अनन्त काय कन्दमूल हैं। प्रश्न है, कन्दमूल को एकान्त अभक्ष्य कहने वाले और उपयोग न करने वाले हल्दी आदि का उपयोग मुक्त रूप से कैसे करते हैं? गृहस्थ ही नहीं, साधु-साध्वी भी करते हैं। समाधान दिया जाता है कि वे शुष्क अर्थात् सूख जाते हैं, तब अचित्त होने से उपयोग में लिए जाते हैं। मैं पूछता हूँ, क्या पक्व होने और सूख जाने पर अभक्ष्य, भक्ष्य हो जाता है। बात कड़वी है, पर सत्य की स्पष्टता के लिए कहना ही होगा कि तब तो मांस आदि अभक्ष्य भी पक जाने या सूख जाने पर भक्ष्य हो जाएँगे। किन्तु ऐसा है नहीं। अतः स्पष्ट है कि अनन्तकाय कन्दमूल वनस्पतियाँ, अनन्त जीवात्मक होने के नाते अभक्ष्य नहीं है। अभक्ष्य की मान्यता वाले अनन्तकाय हल्दी, अदरक आदि कन्दमूल को, गीले या सूखे किसी भी रूप में नहीं खा सकते है। असंख्य और अनन्त की गणना में क्या अन्तर है? असंख्य में यदि एक संख्या भी बढ़ जाए, तो वह असंख्य से अनन्त की परिधि में आ जाता है। इसलिए अन्य दर्शन असंख्य और अनन्त में कोई भेद नहीं करते हैं। प्रश्न है, असंख्य तक तो भक्ष्य है, और मात्र एक जीव की वृद्धि होते ही वह अभक्ष्य कैसे कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा 163 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गया। आग्रह नहीं, चिन्तन अपेक्षित है, वनस्पति सम्बन्धी भक्ष्याभक्ष्य विचार के लिए। जैनधर्म का अहिंसा एवं हिंसा सम्बन्धी चिन्तन प्राणिगत चेतना के आध पर पर है। विकसित चेतना वाले स्थूल प्राणी की हिंसा में जो तीव्रता है, वह अल्प चेतना वाले प्राणी की हिंसा में नहीं है। जीवों की संख्या की न्यूनाधिकता पर हिंसा की तीव्रता मन्दता आधारित नहीं है, जैसा कि समझा जा रहा है। वह तो जीवों की न्यूनाधिक चेतना और उनकी हिंसा करने वाले व्यक्ति के भावों की उग्रता मन्दता आदि पर आधारित है। इसीलिए आचार्य सोमदेव आदि ने कहा है कि कृषक खेत आदि में हिंसा करता हुआ भी हिंसा-जन्य पाप का उतना पात्र नहीं है, जितना कि मत्स्य बन्धक धीवर बाहर में हिंसा नहीं करता हुआ भी पाप का भागी है। ऐसा ही भाव आचार्य अमृतचन्द्र ने अन्य उदाहरणों के आधार पर, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में दर्शाया है। जीवों की न्यूनाधिक संख्या के आधार पर हिंसा-अहिंसा की मान्यतावाले जैन नहीं हस्तितापस थे, जिनका वर्णन जैनागमों में भी मिलता है। ये तापस कहते थे कि वनस्पति एवं अन्न आदि खाते हैं, तो बहुत अधिक जीवों की हिंसा हो जाती है, अतः हाथी तथा हाथी जैसा एक विशालकाय प्राणी मार लें तो कम हिंसा होगी। एक प्राणी कई व्यक्तियों की, कितने ही दिनों तक की भूख निवारण में काम आता रहेगा। उक्त मत का जैन-दर्शन ने प्रचण्डता से खण्डन किया है। अतः कन्दमूल को वनस्पति जीवों की अधिक संख्या के आधार पर एकान्त अभक्ष्य बताने वाले महानुभावों को उपर्युक्त चिन्तन पर विचार करना चाहिए कि कहीं वे भ्रमवश हस्तितापसों के विचार पक्ष में तो नहीं जा रहा है? मैंने पूर्व में कहा है कि प्राचीन आगम में वनस्पति-आहार के सम्बन्ध में जीवों की न्यूनाधिक संख्या के आधार पर भक्ष्याऽभक्ष्य की चर्चा नहीं है। कन्दमूल की अचित्त परिणति होने पर पूर्वकाल में उसे मुनि भी ग्रहण करते थे, आगम साहित्य में अनेकशः उल्लेख मिलते हैं, इस सम्बन्ध में। दशवैकालिक सूत्र आचार-शास्त्र का मूर्धन्य शास्त्र है। आचारांग से पूर्व भिक्षु-आचार के परिबोध के लिए, दशवैकालिक सूत्र के अध्ययन का ही व्यापक प्रचलन है। अतः यहाँ साक्षी के रूप में अन्यत्र दूर न जाकर दशवैकालिक का ही साक्ष्य प्रस्तुत किया जा रहा है। 164 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे समक्ष टीका, दीपिका, अवचूरि तथा गुजराथी टब्बा के साथ दशवैकालिक सूत्र का बहुत पुरातन मुद्रित संस्करण है। यह संस्करण, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा के चुस्त श्रावक श्री भीमसिंह माणकजी (बम्बई) द्वारा विक्रम संवत् 1957 तथा सन् 1900 में प्रकाशित है। कन्दमूल के सम्बन्ध में एकान्त अभक्ष्य की मान्यता का आग्रह, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा को ही प्राय: सर्वाधि क है। अत: अन्य प्रकाशनों को छोड़कर हम यहाँ इसी परंपरा के पुरातन प्रकाशन को उपस्थित कर रहे हैं। मूल - सूत्र है, सातवीं-आठवीं शती के सुप्रसिद्ध श्रुतध र आचार्य श्री हरिभद्रजी की टीका है, और प्राचीन - गुजराथी बालावबोध (टब्बा ) है। विस्तार भय से दीपिका और अवचूरि का पाठ छोड़ दिया है। ये दोनों आचार्य हरिभद्रीय टीका का ही अनुसरण करते हैं, अतः अलग से इनकी यहाँ उपादेयता भी नहीं है। कंदे मूले य सचित्ते फले बीए य आमए 11317।। कन्द, मूल, फल और बीज कच्चे सचित्त साधु न ले। लेता है तो अनाचीर्ण है, दोष है। कन्दो वज्र कन्दादि, मूलं च सट्टामूलादि सचित्तमनाचरितम् । तथा फलं त्रपुष्यादि, बीजं च तिलादि आमकं सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः । - आचार्य हरभद्रजी की टीका 'कन्दः' एटले वज्रादि कन्द, तथा 'मूलम्' एटले मूल, ऐ बे वस्तु सचित्त वापरवी, ते अनाचरित । आमम् एटले लीलूं कांचूं, एवां फलं, ते कर्कटी आदिक फल, अने तिलादिक बीज, ऐ बे लीलां कांचा वापरावां, ते क्रमें करी आडत्रीशमं तथा ओगण चालीशमं अनाचरित जाणवुं । - गुजराथी बालावबोध उपर्युक्त मूल, टीका और बालावबोध पर से स्पष्ट है कि साधु के लिए कन्द, मूल, फल, बीज आदि सचित्त कच्चे अनाचीर्ण हैं, अचित्त पके हुए नहीं । .... कंद मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं च सन्निरं । तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवज्जए 15 | 11 70।। कन्द, मूल, फल, पत्रशाक, तुम्बाक - दूधी धीया, अदरक यदि कच्चे सचित्त हों तो साधु ग्रहण न करें, त्याग दें। कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा 165 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....कन्दं सूरणादि लक्षणम्। मूलं विदारिकादि रूपम्। प्रलंबं वा तालफलादि। आम छिन्नं वा सन्निरम्। सन्निरमिति पत्रशाकं तुम्बाकं त्वग्मज्जान्तर्वति। आर्दी वा तुलसीमित्यन्ये। श्रृंगबेरं चाईकम्। आमं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः। --आचार्य हरिभद्रजी की टीका ___.....सूरण बिगेरे कन्द, विदारिकादि मूल, अथवा प्रलंबं एटले तालादिकना फल। अने आमं कांचं अथवा छिन्नं छेथु एवं सन्निरं पत्रशाक तथा तुंबागं दूधियु, ते ने तथा शृंगबेरं एटले आदूं एटला वानां आमकं एटले काचां सचित्त होय तो तेने परिवर्जयेत् त्याग करे। -गुजराथी बालावबोध उपर्युक्त उल्लेखों के सिवा दशवैकालिक के पंचम अध्ययन (द्वितीय उद्देशक, गा० 27-28) में शालूक आदि कन्दों के नामोल्लेख पूर्वक पुनः कन्द मूल की चर्चा है, और अन्त में 'आमगं परिवज्जए' उन्हीं पूर्वोक्त शब्दों में कच्चे, सचित्त कन्द-मूल खाने का निषेध किया है। पक्व एवं अचित्त के खाने का आगम में कहीं पर भी निषेध नहीं है। ऊपर में दशवैकालिक सूत्र के आधार पर जो कन्द-मल आदि का वर्णन किया गया है, उस पर से एक और बात पर भी ध्यान देने जैसा है। कन्द के साथ अन्य फल, शाक, बीज तथा इक्षुखण्ड आदि का भी उल्लेख है। सूत्रकार तथा टीकाकार आदि ने कन्द-मूल तथा फल आदि का भक्ष्य तथा अभक्ष्य के रूप में वर्गीकरण नहीं किया है। सामान्य रूप से मात्र सचित्त वनस्पति का निषेध ही अभीष्ट है, कन्दमूल को अभक्ष्य कहना और उन्हें सचित्त तथा अचित्त दोनों ही रूपों में निषिद्ध करना, अभीष्ट नहीं है। जैन संघ में श्वेताम्बर परंपरा के समान ही एक महत्त्वपूर्ण दिगम्बर परंपरा भी है। दिगम्बर मुनि उग्र आचार एवं कठोर क्रियाकाण्ड का विशेष पक्षध र है। अतः प्रस्तुत में हम कन्द-मूल के भक्ष्याभक्ष्य के सम्बन्ध में उक्त परम्परा के विचार भी जिज्ञासुओं के लिए अपस्थित कर रहे हैं। आचार्य वट्टकेर स्वामी दिगम्बर-परम्परा के प्राचीन महान् श्रुतधर आचार्य हैं। मुनिधर्म के वर्णन में उनका प्राकृत भाषानिबद्धं 'मूलाचार' ग्रन्थ आचारशास्त्र ____166 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रतिनिधि शास्त्र है। श्वेताम्बर-परम्परा के आचारांग सूत्र के समान ही दिगम्बर-परम्परा में मूलाचार का बहुमान पुरःसर प्रामाण्य है। मूलाचार के अनेक उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र एवं श्री भद्रबाहु स्वामी की आवश्यक नियुक्ति के उल्लेखों के साथ शब्दशः एवं अर्थशः मिलते हैं, जो उनकी प्राचीनता एवं प्रामाणिकता के स्पष्टतः उद्घोषक हैं। मूलाचार का सन् 1919 में मुनि अनन्तकीर्ति दिगम्बर ग्रन्थ माला द्वारा प्रकाशित संस्करण, मेरे समक्ष है। पं० श्री मनोहरलालजी शास्त्री का सम्पादन है, हिन्दी टीका है। नवम अनगार भावनाधिकार में मुनि के आहार की चर्चा है। आचार्य वट्टकेर, मुनि के लिए कन्द, मूल, फल आदि अपक्व-कच्चा खाने का निषेध करते हैं, पक्व का नहीं। 'फल-कन्द-मूल बीयं, अणग्गिपक्वं तु आमयं किंचि। णच्चा अणेसणीयं, णवि य पडिच्छन्ति ते धीरा ॥825॥" -अग्नि पर नहीं पके, ऐसे फल, कन्द, मूल, बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ, उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर-वीर मुनि खाने की इच्छा नहीं करते। जं हवदि अणिव्वीयं, णिवट्टियं फासुयं कप्पं चेव। णाऊण एसणीयं, तं भिक्खं मुणी पडिच्छंति ॥825।। -जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया हो, ऐसे आहार को खाने योग्य समझ कर मुनिराज उसके लेने की इच्छा करते हैं। उक्त गाथाओं पर से स्पष्ट है कि मुनि कन्द, मूल आदि प्रासुक हों तो उन्हें अशनीय (खाने योग्य) समझ कर आहार में ले सकता है। अनशनीयता के रूप में कन्दमूल का निषेध अपक्वता से सम्बन्धित है, पक्वता से नहीं। दशवैकालिक सूत्र के समान ही यहाँ मूलाचार में भी कन्द, मूल का फल और बीज आदि के साथ सामान्यतया वनस्पति के रूप में उल्लेख है। प्रत्येक वनस्पति से भिन्न, निषेध के लिए अभक्ष्य रूप में पृथक् उल्लेख नहीं है। ___मैं समझता हूँ, अनाग्रह की यथार्थ दृष्टि के जिज्ञासु, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही, उक्त आगम कालीन प्राचीन स्पष्ट उल्लेखों पर से कन्द, मूल की कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा 167 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ष्याभक्ष्य से सम्बन्धित विचार धारा का मर्म समझ जाएंगे और व्यर्थ के कदाग्रहों से अपने को अलग रखेंगे। प्रत्येक साधक को मान्यता और सिद्धान्त के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। अनेक प्रचलित मान्यताओं से सत्य कहीं परे होता है। उसे अनाग्रही साधक ही देख सकते हैं आग्रही नहीं - 'सत्यमेव जयते । ' आलू के सम्बन्ध में अलग से चर्चा कर रहा हूँ। बात यह है कि प्रान्तभेद से जैन समाज में आलू खाया जाता है, कहीं नहीं भी खाया जाता है। खास कर गुजराथ में नहीं खाया जाता। खाना और न खाना एक अलग बात है । परन्तु आलू को अनन्त काय कन्द मान कर उसे अभक्ष्य कहना और खाने वालों को घृणा की दृष्टि से देखना, यह युक्त नहीं है । आलू विदेशों से आया है। वह कन्द की श्रेणी में नही आता । वह जड़ नहीं है अपितु तने में लगने वाला फल विशेष है। आलू भूमि से ऊपर भी तने में लग सकता है। वह भूमि में नहीं पैदा होता। उसकी सुरक्षा एवं विकास के लिए मिट्टी अलग से ऊपर में दी जाती है। और उस मिट्टी की तह के नीचे वह विकास पाता है। यह बात साधारण वनस्पति - परिचय की पुस्तकों में भी देखी जा सकती है। स्थूल दृष्टि से ही भूमिगत होने की बात कही जाती है, जैसे कि काफी समय तक मूंगफली ( सींगदाना) को भी भूमिगत होने के कारण व्यर्थ ही कन्द के रूप में वर्जित करते रहे हैं। वस्तुस्थिति को सांगोपांग रूप से स्पष्टतया समझना आवश्यक है । व्यर्थ के पूर्वाग्रहों के आधार पर कुछ-की- कुछ कल्पना कर लेना और उस पर धार्मिक विग्रह एवं कलह खड़े कर देना, कथमपि उचित नहीं है। आलू को कन्द समझ लेने और मान लेने के सम्बन्ध में इसी प्रकार व्यर्थ विग्रह चल रहा है। नई दुनिया, इन्दौर का दिनांक 9-12-1983 का अंक अभी-अभी एक धर्म बन्धु ने मुझे दिखाया है। उसके एक समाचार पर से आलू की स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती है। लिखा है "मनीला के वैज्ञानिकों ने टमाटर और आलू के पौधे को मिलाकर 'पोमाटो' नामक एक नया पौधा तैयार किया है, जिस पर आधे टमाटर और आधे आलू की शक्ल के फल लगते हैं। " वैज्ञानिकों की यह शोध स्पष्ट रूप से टमाटर के समान ही आलू को , 168• प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा द्वितीय पुष्प Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जार भी एक फल विशेष ही प्रमाणित करती है। यदि आलू मूल में सचमुच ही कन्द होता, तो टमाटर के साथ फल के रूप में कैसे विकास प्राप्त करता? आलू आदि-कन्दमूल के खाने के संबंध में मेरा कोई भी व्यक्तिगत आग्रह नहीं है। मैं नहीं कहता कि खाना ही चाहिए। जो साधक अपनी इच्छा का निरोध कर कन्द-मूल या शाक-सब्जी आदि को त्याग करते हैं, मैं उनका अनुमोदन करता हूँ। प्रस्तुत चर्चा पर से मैं केवल एक ही बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जो भी विधि या निषेध हो, वह प्रामाणिक हो, शास्त्रीय आधार पर हो। अपनी कल्पित मान्यता के आधार पर, शास्त्र-द्वारा प्रमाणित मौलिक सत्य का अपलाप करना और पारस्परिक निन्दा के वितण्डावाद में उलझना ठीक नहीं है। कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा 169 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 यह एक नया पागलपन - आज जैन समाज में, विशेषतः स्थानकवासी-समाज में एक नया धार्मिक-उन्माद, एक नया जनून पैदा होता जा रहा है, जो एक प्रकार से धर्म के नाम पर मानसिक पागलपन की सीमा पर पहुँच रहा है। यह वह पागलपन है, जो कहता है कि जैन स्थानकों, उपाश्रयों आदि में अपने द्वारा मान्य साधु-साध्वियों के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं ठहरने देंगे। वर्तमान युग की दृष्टि से कुछ क्रांतिशील विचारक साधु-साध्वियों ने परम्परागत क्रिया-काण्डों में विवेक पूर्वक कुछ युगानुरूप परिवर्तन किए हैं, जिनमें यथाप्रसंग वाहन आदि के भी परिवर्तन हैं। किन्तु, तथाकथित धर्म - धुरन्धरों की दृष्टि में यह सब पापाचार है, अतः वे हमारे पवित्र उपाश्रय में, स्थानक में निवास के अधि कारी नहीं रहे हैं। सूक्ष्म दृष्टि से तो क्या, स्थूल दृष्टि से भी देखा जाए, तो आप द्वारा मान्य आपके अनेक पूज्य पुरुषों ने, महात्माओं ने परंपरागत चली आ रही अपनी चर्या में अनेक परिवर्तन कर लिए हैं। वे आरम्भ - परिग्रह के जाल में दूर तक उलझ गए हैं। अपने शिष्यों को पढ़ाने के लिए, पत्र-व्यवहार एवं अपने कार्यक्रमों की रिपोर्ट आदि भेजने के लिए वेतनभोगी पण्डित रखते हैं, यत्र-तत्र स्थानकों एवं संस्थानों का निर्माण करवा रहे हैं। दीक्षा आदि के आडम्बर भी कम नहीं हैं। हजारों के मूल्य के शाल उपयोग में ले रहे हैं। विहार आदि में कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं परोक्ष शास्त्रीय-मार्ग का अतिक्रमण कर रहे हैं, वर्षों - ही वर्षों से डोली, व्हीलचेयर, बाबा गाड़ी, रिक्शा आदि वाहन का प्रयोग कर रहे हैं और क्षुद्र नश्वर शरीर के अपवाद के नाम पर कार एवं वायुयान का प्रयोग कर लेते हैं । कहाँ तक गिनाए ? एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है, इनके उक्त धार्मिक पराक्रमों की । इतने लम्बे-चौड़े प्रत्यक्ष परिवर्तन हो गए है, फिर भी अन्ध-भक्तों में यह श्रद्धा फैलाई जा रही है कि हम तो शास्त्र के अक्षर-अक्षर पर चल रहे हैं। मियांजी 170 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिर पड़े फिर भी टांग ऊँची। कमाल है, इस दुःसाहस का। इन सबके लिए उपाश्रय के द्वार खुले हैं। जबकि इन लोगों में कुछ तो वे लोग भी है, जिनकी चारित्रहीनता की भद्र कथाएँ समाचार पत्रों के पृष्ठों तक भी पहुंच चुकी है, फिर भी वे पूज्य है, इसलिए कि वे सम्प्रदाय में हैं। सम्प्रदाय के घेरे में, बाड़े में बन्द यदि धर्म प्रचारार्थ आदि की दृष्टि से तथा युगानुरूप सामाजिक चेतना की लक्ष्यता से उपयोगी परिवर्तन के कुछ प्रयोग कर लेते हैं, तो इनकी नजरों में धर्म का सत्यानाश हो जाता है। आज के स्थानक क्या है? मल-मूत्र आदि के अशास्त्रीय परिष्ठापन के गन्दगी के केन्द्र बन रहे हैं। इसलिए बम्बई आदि महानगरों के नये बन रहे उपनगरों में अन्य लोग स्थानक-उपाश्रय नहीं बनने दे रहे हैं। चूँकि साधु-साध्वी उपाश्रयों के द्वारा गन्दगी फैलाते हैं। यह समाचार यूँ ही हवा में नहीं फैला है। बम्बई से प्रकाशित गुजराती जैन प्रकाश में आ चुका है। __और फिर, कहने को स्थानकवासी समाज जड़ पूजा का विरोधी है। परन्तु ईंट-पत्थर के बने जड़ मकान, जिसे स्थानक कहते हैं, उसकी पवित्रता में विक्षिप्त है। और यह पवित्रता, वह पवित्रता भी है, जिनमें उत्सव-प्रसंगों पर गो-मांस-भक्षी तक मांसाहारी और मद्यपायी सादर निमंत्रित किए जाते हैं तथा एक-दूसरे से बढ़कर सत्कार-सम्मान भी पाते हैं। एक बात और बता दूँ-सच्चे निर्ग्रन्थ साधुओं को तो ऐसे उपाश्रयों में ठहरना ही नहीं चाहिए। क्योंकि वे साधुओं के लिए औद्येशिक हैं। कितना ही झुठलाने का प्रयत्न किया जाए, स्पष्ट है कि साधुओं के निमित्त ही इनका निर्माण होता है और अनेक जगह तो चन्दा आदि एकत्रित कराकर साक्षत् साधु ही बनवाते हैं। सिद्धान्त-दृष्टि से ये साधु अनाचारी हैं। बात कड़वी है, किन्तु सत्य तो सत्य है। भले ही वह कड़वा हो या मीट्ठा। जैन समाज का यह दुराग्रह कभी रंग ला सकता है। विहारकाल में जैन-साधु वैष्णव आदि सम्प्रदायों के मठों, मन्दिरों आश्रमों, रामद्वारों तथा गुरुद्वारों आदि में ठहरते है। और वे ठहराते भी हैं, जबकि वे स्पष्टतः जैन-धर्म और जैन-साधुओं को नास्तिक समझते है। और आप उन्हें मिथ्या-दृष्टि मानते हैं। पारम्परिक विचार विरोध का कितना अनन्त अन्तराल है। फिर भी वे सम्मान के यह एक नया पागलपन 171 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ, उनकी अपनी दृष्टि में आपके इन नास्तिक साधुओं को प्रेम से अपने यहाँ ठहराते हैं एवं भिक्षा आदि भी देते हैं। परन्तु, आप लोग तो उन साधुओं को अपने उपाश्रयों में कहाँ ठहराते हैं? उनको तो क्या ठहराएँगे? अपने ही जैन - परम्परा के भिन्न विचार रखने वाले श्वेताम्बर - दिगम्बर मुनि तथा विचार क्रांति के पक्षधर स्थानकवासी मुनियों तक को भी नहीं ठहरने देते हैं। मैं पूछता हूँ आपका अनेकान्त कहाँ है? वे वैष्णव आदि अन्य पक्ष उदार हैं या आप ? वे मानवतावादी हैं या आप ? मानवीय सभ्यता की कसौटी पर कौन खरा उतर रहा है? हृदय की सच्चाई से कुछ उत्तर है आपके पास ? कुछ नहीं है, यह सब परिग्रहवाद और सम्प्रदायवाद के अहंकार का नग्न रूप है। इस बदलते युग में इन अहंकारों की आयु बहुत थोड़ी रह गई है। साधारण जन तो अपनी आँख रखता नहीं है, परन्तु मुझे आश्चर्य है, श्री एम. जे. देसाई जैसे विचारशील व्यक्ति भी जब इस तरह भिन्न विचार के और क्रान्तिशील साधु-साध्वियों को अपने अपाश्रय में न ठहरने देने का सगर्व अपने पत्र में दावा करते हैं। क्या वस्तुतः इस युग का यह शोभनीय आचरण है? आपके इस आग्रह से उनका तो अपना कुछ बनता - बिगड़ता नहीं है। स्पष्ट है, यह चोट उनके गौरव पर नहीं, आपके छोटे मन पर ही पड़ती है। अच्छी है, समय पर कुछ समझदारी से काम लिया जाए। आगम, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि के विस्तृत अध्ययन पर से स्पष्ट है कि साधु को गाँव एवं नगर में रहना ही नहीं चाहिए। गाँव एवं नगर के बाहर वन, उद्यान (बाग), चैत्य, गुफा, देवमंदिर आदि में ठहरना उचित है। यदि अपवादवश कभी ठहरना ही हो, तो गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक ही ठहरा जा सकता है। यह विधान केवल जैन-आचार - शास्त्र का ही नहीं है, अन्य वैदिक आदि परम्परा के साधुओं के लिए उनके धर्म - शास्त्रों में ऐसा ही उल्लेख है। महर्षि पतञ्जलि, अन्य धर्म - सूत्रकारों एवं स्मृतिकारों ने स्पष्ट उल्लेख किया दूर क्यों जाएँ? जब स्वामी विवेकानन्दजी बेलगाँव में श्री हरिपद मित्र के यहाँ ठहरे थे, तब उनके द्वारा अधिक ठहरने का आग्रह करने पर 20 अक्टूबर 1892 को स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें स्पष्टतः कहा था - " सन्यासियों को नगर में तीन दिन और गाँव में एक दिन से अधिक ठहरना उचित नहीं है।" यह स्पष्टतः उल्लेख-श्री रामकृष्ण आश्रम, नागपुर - 2 से प्रकाशित "विवेकानन्दजी की कथाएँ" हैं 172 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक हिन्दी पुस्तक में देखा जा सकता है। इस पर से भारतीय साधुओं की अतीतकालीन परम्परा की चर्या की स्पष्टतः झाँकी उपलब्ध हो जाती है कि साधु बिना किसी विशेष कारण के गाँव एवं नगर में न ठहरे। यहाँ पर तो सच्चे साध्वाचारी साधुओं को नगर में ठहरना भी वर्जित है। मैं जीवन के 82 वें वर्ष में चल रहा हूँ। मुझे इस प्रकार के पक्ष - अपक्ष के सम्बन्ध में कोई रुचि नहीं है। फिर भी सत्य का तकाजा है कि धर्म एवं सत्य के नाम पर फैलाये जानेवाले भ्रमों का प्रतिकार किया जाए। सत्य के लिए निन्दा - स्तुति अपने में कोई अर्थ नहीं रखते। मैं जानता हूँ, मेरे लेखों से कुछ लोगों के क्षुद्र मन उत्तेजित होंगे, और वे इधर-उधर मन चाहा अन्ट - सन्ट लिख भी सकते हैं और छाप भी सकते हैं। यह उनकी अपनी मनोवृत्ति और तदनुकूल उनका कर्म है । मुझे इसकी कुछ भी चिंता नहीं है । जीवन और प्रकृति ने साथ दिया, तो मैं जीवन के अन्तिम श्वास तक असत्य एवं दम्भ पर समयोचित प्रहार करता ही रहूँगा। भगवान् महावीर ने कहा है "सच्चं खु भगवं " सत्य ही भगवान् है। भगवान् सत्य की प्रतिष्ठा बनाए रखना, भगवान् सत्य की पूजा है और यह सत्य के उपासक के जीवन में अन्तिम क्षण तक होती रहनी चाहिए। यह एक नया पागलपन 173 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 आज की एक महती अपेक्षा : परिवार नियोजन आज प्रायः समग्र ज्ञात विश्व निरन्तर बढ़ती जा रही जनसंख्या से त्रस्त है। पौराणिक कथाश्रुति के अनुसार द्रौपदी के चीर की भांति जनसंख्या सिमटने में ही नहीं आ रही है। एक युग था कभी, जबकि शत पुत्रवती होने का एक आशीर्वाद था। अब तो यह अभिशाप बन कर रह गया। हर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के पास उपभोग के साधन सीमित हैं। अन्न, वस्त्र, भवन आदि कितने ही निर्मित होते जाएँ, यदि उपभोक्ताओं की संख्या अधिकाधिक बढ़ती जाए, और वह बढ़ ही रही है, तो समस्या का समाध न कैसे होगा ? प्रकृति का उत्पादन भण्डार अनन्त नहीं है, आखिर उसके शोषण की भी एक सीमा है। यही कारण है कि मनुष्य के मन की इच्छाओं की इच्छानुरूप पूर्ति नहीं हो पा रही है। भौतिक दृष्टि की प्रधानता से इच्छाएँ भी मानवीय आवश्यकताओं की रेखा को पार कर बाढ़ के कारण तूफानी नदियों की भाँति मर्यादाहीन अनर्गल गति से इधर-उधर फैलती जा रही हैं। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने मानव मन को सब-कुछ आवश्यक - अनावश्यक पाने के लिए पागल बना दिया है। संयम जैसी कोई बात नहीं है। आखिर संयम की भी एक सीमा है। भूख से बढ़कर कोई वेदना नहीं है। एक प्राचीन महर्षि ने, जो स्वयं के शिखर पर आरूढ़ थे, खुले मन से यथार्थ कथन किया है- 'खुहासमा वेयणा नत्थि' संस्कृत भाषा में भी एक उक्ति है - 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ' - भूखा आदमी कौन-सा पाप नहीं करता? वह सभी पापाचार, दुराचार, अत्याचार, अनाचार कर सकता है। उसे योग्यायोग्य का विवेक नहीं रहता। जनसंख्या बढ़ती है, तो भूखों की संख्या बढ़ेगी ही। सभी को इच्छानुरूप तो क्या जीवनरक्षानुरूप भोजन भी मिलना कठिन हो जाता है। और, उसका जो परिणाम होता है, वह हमारे सामने है। अखबारों में सुबह - सुबह क्या पढ़ते हैं? 174• प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही चोरी, डकैती, बटमारी, जेबकटी, छीना-झपटी आदि-आदि। इसके साथ ही हत्या, खूनखराबी। साधारण से दो-चार पैसों के लिए मारा-मारी। यह मारामारी अन्यत्र ही नहीं, परिवार में भी हो चली है। अपने ही रक्त से जन्मी संतानें माता-पिता तक की हत्याएँ कर देती हैं, यह खबर आम हो गई है। देश में हर तरफ गुण्डा-तत्त्व बढ़ता जा रहा है, मनुष्य अपनी पवित्र मानवता की तिलांजलि देकर क्रूर दानव बनता जा रहा है। धर्म परम्पराओं ने काफी समय तक पाप और पुण्य, नरक और स्वर्ग आदि के उपदेशों से मनुष्य को नियंत्रित रखा है। मर भले ही जाएँ, किन्तु अन्याय का एक दाना भी खाना हराम है, पाप है। परन्तु आज ये उपदेश कुछ अपवादों को छोड़कर अपनी गुणवत्ता एवं अर्थवत्ता की पकड़ खो चुके हैं। वे स्वयं भी माया-जाल में फंस गए हैं। धर्मगुरु, धर्मगुरु नहीं, अर्थगुरु होते जा रहे हैं। अतः स्पष्ट है, संयम की लगाम, मनुष्य के बुभुक्षित पागल मन अश्व को कैसे लग सकती है। माना कि कुछ अधिक भोगासक्ति भी इन अनाचारों की जननी है। परन्तु यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि पहले मनुष्य बहत अधिक अपेक्षित आवश्यकता की पूर्ति हेतु कुछ छोटी-मोटी गलतियाँ करता है। फिर धीरे-धीरे वे गलतियाँ जड पकड़ लेती हैं, मनुष्य के अन्तर्विवेक को समाप्त कर देती हैं, फलत: मनुष्य संवेदनशीलता से शून्य होकर कुछ का कुछ हो जाता है। और यह सब होता है-अनियंत्रित भीड के कारण। ठीक ही लोकोक्ति है 'जो भीड में जाए, वह भाड़ में जाए।' वस्तुतः युग की जनसंख्या की बढ़ती भीड़-भाड़ ही हो गई है। भाड़ यानि जलभुनने के लिए दहकती आग। मनुष्य आखिर मनुष्य है। वह कीटाणु तो नहीं है। जो इधर-उधर ध ल-चाटकर, गन्दगी खाकर अपनी छोटी-सी जिन्दगी पूरी कर लेगा, और मर जायेगा, या मार दिया जाएगा। अधिक संख्या में बढ़ते कीटाणुओं के संहार की भी आये दिन सरकारी और गैर सरकारी योजनाएँ बन रही हैं, अधिकता तो कीटाणुओं की भी अपेक्षित नहीं है। इसी तरह मनुष्य की जनसंख्या की अनर्गल वृद्धि से जो एक तरह कीटाणु ही होता जा रहा है, वह विषाक्त कीटाणु। आज का मनुष्य अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है। प्रलोभनों का शिकार हो रहा है। और, इस तरह निरपराध अपनी ही जाति के, अपने ही निरपराध मानव भाई की आज की एक महती अपेक्षा : परिवार नियोजन 175 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्या कर देता है। अपेक्षा है, यदि इस अपराधवृत्ति को रोकना है, तो जनसंख्या की वृद्धि को सर्वप्रथम रोकना है। अन्यथा, सब धर्म, कर्म, सरकार और उनके कानून धरे के धरे रह जाएँगे । परिवार में एक दिन अतीत में देवी कही जाने वाली नारी मात्र भोग्य वस्तु बन गई है और बन गई है - अनर्गल बच्चे पैदा करने की जीवित मशीन । वह देवीत्व का अपना गौरव खो चुकी है। अधिक बच्चों के कारण उसने अपना देहिक स्वास्थ्य और सौंदर्य तो खोया ही है। मन का स्वास्थ्य और सौन्दर्य भी खो चुकी है, खोती जा रही है। जैनागम ज्ञातासूत्र की 'बहुपुत्तिया ' कथा - नारी के समान अधिक बच्चों के कारण खुद गन्दी रहती है, घर गन्दा रहता है, मोहल्ले और मोहल्लों की गलियां गंदी रहती है। साधारण परिवारों में, जिनकी ही संख्या अधिक है, बच्चों को न समय पर पौष्टिक भोजन मिलता है, न बीमारी होने पर ठीक तरह चिकित्सा हो पाती है। सरकारी रिपोर्ट है, अकेले भारत में 'ए' विटामिन से सम्बन्धित भोजन के अभाव में पाँच लाख के लगभग बच्चे हर वर्ष अंधे हो जाते हैं। ज्यों-त्यों करके कुछ बड़े हुए कि इधर-उधर घरेलू कार्यों और होटलों में नौकरी के नाम पर मजदूर बन जाते हैं। ये बाल मजदूर, कानूनी अपराध होते हुए भी लाखों की संख्या में बेरहमी के साथ दिन-रात श्रम की चक्की में पिसते जा रहे हैं, और समय से पहले दम तोड़ देते हैं और कुछ उनमें से घृणित अपराध कर्मी बन जाते हैं। मैंने देखा है, तीर्थ-स्थानों में नन्हे नन्हे बच्चे भिखारी बने हैं और चन्द पैसों के लिए गिड़गिड़ाते हुए यात्रियों के पीछे-पीछे दूर तक दौड़ते रहते हैं। ये फटेहाल बच्चे, बच्चे क्या, जीवित नर कंकाल ही नजर आते हैं। दया आती है। इस दया ने कुछ काम भी किया है। पर... पर आखिर दया की एक सीमा है व्यक्ति की परिस्थिति में। और, अब तो यह दया की धारा भी सूखती जा रही है। जब भरण-पोषण ही ठीक नहीं है, तो शिक्षा-दीक्षा तो एक स्वप्न है। कहाँ पढ़ें, पेट की पढ़ाई पूरी हो, तो आगे कुछ और हो । कितनी ही बार भीख मांगते बच्चों से पूछा है- तुम किसी स्कूल में पढ़ते क्यों नहीं? उत्तर मिला है - बाबा, क्या पढ़ें? हमें पढ़ाई नहीं खाना चाहिए खाना ! इसका समाधान है कुछ ? इतने अधिक स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों के होते हुए भी अनक्षर, अनपढ़, , 176 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशिक्षितों की संख्या कम होने के बजाय, प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। इस बढ़ती का मूल है, जनसंख्या की वृद्धि में। अभी-अभी समाचार पत्रों में सुप्रसिद्ध समाज शास्त्रियों की एक रिपोर्ट पढने को मिली है। अगले सौ वर्षों के आसपास विश्व की जनसंख्या दश खरब हो जाएगी। क्या होगा तब? भूमि तो बढ़ने से रहीं कहाँ और कैसे रहेंगे इतने लोग? क्या चूहों की तरह धरती के नीचे बिलों में रहेंगे? और, खाएंगे क्या? क्या आदमी, आदमी को खाने के लिए मजबूर हो जाएगा। मजबुरी बूरी है, वह सब करा सकती है। उसे अर्थ या अनर्थ का, भले या बुरे का कुछ अता-पता नहीं है। अतः समय रहते सावधान होने की अपेक्षा है, मानव जाति के हित-चिन्तकों को। कुछ अधिक सात्विक कहे जाने वाले लोग या धर्म, कहते हैं बढ़ती जन-संख्या को ब्रह्मचर्य के द्वारा नियंत्रण करना ही ठीक है, अन्य साधनों से नहीं। बात अपने में ठीक है। परन्तु हजारों वर्षों से धर्म परंपराएँ ब्रह्मचर्य का, इन्द्रिय संयम का उपदेश देते आ रहे है। परन्तु शून्य ही परिणाम आया है इस उपदेश का प्रत्यक्ष हमारे सामने है। अगर इसकी कुछ प्रभावकता होती, तो क्या इस तरह जनसंख्या बढ़ती? धर्मगुरु एक ओर तो मनुष्य की कामुकता को प्रतिबन्धि त करने का उपदेश देते रहे, किन्तु दूसरी ओर क्या कहते रहे यह भी पता है आपको? राजा, महाराजा, श्रेष्ठीजनों के पूर्वजन्म के पुण्य की महिमा के गुणगान में उनके सैकड़ों हजारों पत्नियाँ भी बताते रहे। जिसके पास जितनी अधिक पत्नियाँ वह उतना ही अधिक पुण्यवान ! यह दुमुही बातें क्या अर्थ रखती हैं। मनुष्य की कामवृत्ति ब्रह्मचर्य में न जाकर, इसके विरोधी कामपिपासावर्धक वर्णनों की ओर ही अग्रसर होती रही। अच्छा है ब्रह्मचर्य से, इन्द्रिय संयम से धर्म के साथ जन-संख्या वृद्धि की समस्या भी हल हो जाए। 'आम के आम गुठली के दाम।' कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु, सर्वसाधारण से अपेक्षा रखना, एक तरह का दिवा-स्वप्न ही है। अतः परिवार नियोजन के अन्य साधनों का विवेक पूर्वक उचित सीमा में प्रयोग हो, तो कोई आपत्ति नहीं। बहु-विवाह की प्रथा कहीं भी, किसी भी धर्म या जाति में हो, वह बंद होनी ही चाहिए, धर्म विशेष या जाति विशेष के नाम इस तरह की छूट रहना, राष्ट्र को बर्बाद करना है। आज की एक महती अपेक्षा : परिवार नियोजन 177 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भपात जैसे कृत्य तो भयावह हैं। वे पाप तो हैं, साथ ही नारी जीवन के साथ खिलवाड़ भी हैं। इस तरह अनेक अपने प्राण दे बैठती हैं। गर्भपात की अपेक्षा गर्भनिरोध ही ठीक है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। हर कर्म में लाभ-हानि का ध्यान रखना आवश्यक है। गर्भनिरोध की प्रक्रिया में भी संभवतः कुछ गलत परिणाम आ सकते हैं। परन्तु, इन कुछ गलतियों की कल्पना में सर्वनाश को निमंत्रण नहीं दिया जा सकता। प्राकृतिक चिकित्सा अच्छी है, परन्तु जब वह कारगर न हो, तो अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ भी अपनाई जा सकती हैं। मैंने अच्छे-अच्छे प्राकृतिक चिकित्सकों, योगियों, अध्यात्मवादियों और आंग्ल चिकित्सा पद्धति के कट्टर विरोधी धर्म गुरुओं को बड़े-बड़े हॉस्पीटलों में भरती होते और अनाप-शनाप अंग्रेजी एलोपैथिक अभक्ष्य दवाइयाँ खाते देखा है। यही बात अन्ततः परिवार नियोजन की प्रक्रिया में है। समाज कल्याण के लिए, राष्ट्र-हित में समयोचित कदम उठाना पाप नहीं है। पाप है, समयोचित कदम न उठाना। आप भला माने या बुरा मानें, मुझे गलत समझे या सही, मेरे अन्तर्मन को जो सही लगा है, वह नि:संकोच मैंने लिखा है। आज कोई भी हो, यदि पूर्वाग्रह एवं व्यर्थ दोषारोपण की वृत्ति से मुक्त होकर सोचेंगे, समझेंगे, विचार करेंगे, तो मुझे पूर्ण नहीं, तो कुछ तो सही पाएँगे ही ! बस, इतनी-सी बात मेरे लिए पर्याप्त है-शेष आनन्द-मंगल ! 178. प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 सन्मति प्रचार हेतु : सन्मति-तीर्थ की स्थापना - श्रमण भगवान् महावीर वैशाली का राजकुमार है। ऐश्वर्य वैभव एवं भोग-विलास के वातावरण में जीवन का शैशव एवं यौवन उभरता रहा है। इसलिए उनके वैराग्य में न दुःख की छाया रही है, न अभाव एवं पीड़ा-वेदना की कराह परिलक्षित होती है। उनके जीवन में उभरते विराग भाव में ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित रही है। मन में दुःख, दर्द और पीड़ा तो थी, परन्तु वह निज की व्यक्तिगत नहीं थी। वह थी, अन्धकार में भटक रही, ठोकरें खा रही, जन-मन की पीड़ा। धर्म के नाम पर पाखण्डों के फैल रहे अज्ञान अन्धकार में पथ-भ्रमित जनता को मार्ग नहीं मिल रहा था। श्रद्धालु-जन केवल चल रहे थे, पर न मंजिल का पता था और न मार्ग का ही। ऐसे विकट समय में वर्धमान की अन्तर्-चेतना में ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित हुई। इसलिए उनका वैराग्य ज्ञान-गर्भित वैराग्य है। जीवन के यथार्थ स्वरूप को समझ कर साधना-पथ पर गतिशील वैराग्य है। तीस वर्ष की भरी हुई तरुणाई में इन्सान की आँखें (अन्तर्चक्षु) बन्द रहती हैं, ऐसे मादक क्षणों में संसार भोग-वासना के बन्धनों में बन्धा रहता है, परन्तु यह विराट ज्योति-पुरुष भर यौवन में संसार के बन्धनों से मुक्त होकर चल पड़ा सत्य की शोध में। और जन-जन के मंगल हेतु, कल्याण हेतु रास्ता खोजना शुरु किया। साढ़े बारह वर्ष तक भयंकर निर्जन वनों में वृक्षों के नीचे आसन जमाए बैठा रहा, जहाँ दिन-रात व्याघ्र-सिंह दहाड़ते गर्जते रहते थे। पर्वत शिखरों पर और वैभारगिरि (राजगृह) की सप्तपर्णी जैसी अंधकाराछन्न गहन गुफाओं में चार-चार महीने तक निराहार-निर्जल रहकर आसन लगाकर ध्यानस्थ हो गए प्रकाश के साक्षात्कार के लिए। अन्धकार में प्रकाश की खोज, ज्योति की तलाश? हाँ, उजाले की आवश्यकता अंधेरे में ही तो है। अंधकार ही नहीं, तो प्रकाश की आवश्यकता ही क्या है? हाँ तो, श्रमण वर्धमान की, महावीर की साधना प्रकाश की, ज्योति की साधना है। उनके दिव्य शरीर की कान्ति से एक ओर अंधेरी गुफा सन्मति तीर्थ की स्थापना 179 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशमान हो रही थी, तो दूसरी ओर अन्तर्-हृदय की अन्धेरी गुफा-ज्ञान-ज्योति से जगमगा रही थी। ऐसे साढ़े बारह वर्ष की दीर्घ तप:साधना, ध्यान-साधना की धारा में प्रवहमान श्रमण महावीर वैशाख शुक्ल नवमी को ऋजुवालिका के तट पर पध रे। उस समय उसका नाम ऋजुवालिका था, आज हम उसे बराकर नदी के नाम से सम्बोधित करते हैं। उसके उत्तर तट पर शाल-वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में स्वयं में ध्यानस्थ हो जाते हैं। शाल-वृक्ष श्रमण महावीर का ज्ञान-वृक्ष है। दो दिन स्वयं स्वयं के चिन्तन में संलग्न रहे। वह अन्तर्-ज्योति विशाल होते-होते वैशाख शुक्ल दशमी को सूर्यास्त के समय अनन्त हो गई। उस अनन्त प्रकाश को, अनन्त ज्योति को हम केवलदर्शन-केवलज्ञान कहते हैं। इस प्रकार श्रमण महावीर राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ आदि विकारों से सर्वथा मुक्त हो गए, अरहन्त हो गए, वीतराग हो गए। वह ज्योति-पुरुष जिस लक्ष्य को लेकर साधना-यात्रा पर चला था, उस लक्ष्य पर पहुँच गया। वैशाख शुक्ल दशमी की संध्या बेला में जब प्रकृति का सूर्य अंधेरे में डूब रहा था, उस समय श्रमण महावीर के अन्तर् क्षितिज पर अनादि काल की रात्रि का भेदन कर उदित हो रहा था अनन्त ज्ञान का ज्योतिर्मय सूर्य। केवलज्ञान का सूर्य उदय हुआ कि समस्त अंधकार छिन्न-भिन्न हो गया। शक्रस्तव के शब्दों में-"जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं, तारयाणं, बुद्धाणं बोहियाणं..." वह जिन अर्थात् विजेता हो गया और जन-जन को विजय का मार्ग बताने लगा। स्वयं संसार-सागर को तैरकर पार कर गया और संसार को तैरने का पथ बताने लगा। स्वयं प्रबुद्ध हो गया, और भव्य प्राणियों को-जो अज्ञान की निशा में सो रहे थे, जगाने हेतु उसकी उपदेश-धारा बहने लगी। उनका प्रथम उपदेश कहाँ पर हुआ? ऋजुबालिका के तट पर। उस समय उनकी दिव्य देशना को किसी ने समझा नहीं। वहाँ की स्थिति ऐसी थी कि किसी ने बोध प्राप्त नहीं किया। यहाँ बोध प्राप्त न करने का अर्थ है – तीर्थ की स्थापना नहीं हुई। अतः धर्म तीर्थ की स्थापना हेतु श्रमण भगवान् महावीर वहाँ से तत्काल चल पड़े। सत्य का साक्षात्कार होने के बाद वाणी मौन के तटबन्ध को तोड़कर मुखर हो उठती है, भले ही सुनने वाला उसे सम्यक् रूप से समझ पाए या न समझ पाए। _180 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दार्शनिक एक गूढ़ रहस्य को सुलझाने में संलग्न था। जीवन-चर्या की हर क्रिया के साथ उसका मन-मस्तिष्क सत्य को सुलझाने में संलग्न रहता था। एक दिन प्रातः स्नान करने टब में बैठ गया। निर्वस्त्र स्नान कर रहा था। शरीर को मलते-मलते रहस्य की गुत्थी सुलझ गई, उसे सत्य का साक्षात्कार हो गया। फिर क्या था, वह एक दम उठा और उस प्राप्त सत्य के ऊपर पड़े हुए आवरण का उद्घाटन करने घर से निकल कर गलियों को पार करता हुआ बाजार में पहुँच गया-पा लिया, पा लिया.... पुकारता हुआ। लोग आश्चर्यचकित हो देखने लगे यह क्या? इतना बड़ा दार्शनिक और नंगा ही चला आ रहा, पगला गया है क्या? जब उसने उस रहस्य पर पड़े आवरण को हटाकर सत्य को सामने रखा, तब समझ में आया कि इसे सत्य को बताने की इतनी उत्कण्ठा थी कि उसे वस्त्र पहनने का भी ध्यान नहीं रहा। श्रमण महावीर भी अनन्त ज्योति के प्रज्वलित होते ही मुखरित हो गए। इस बात का कोई अर्थ नहीं रहा उनके सामने कि उनकी दिव्य देशना को कौन समझेगा? उन्हें यह सोचने की अपेक्षा ही नहीं रही वाणी रूप दिव्य-गंगा को धारण करने वाला शिव है या नहीं। वह ज्योतिर्मय तेजस्वी धारा प्रवहमान हो ही गई। उस ज्योति-पुरुष ने देखा, कि पावापुरी में एक विशाल यज्ञ का आयोजन हो रहा है। राजगुरु के पद पर प्रतिष्ठित वेदों के ज्ञाता विद्वान अपने विशाल शिष्य मण्डल के साथ यज्ञ के आयोजन में लगे हैं। हजारों मूक पशुओं की यज्ञ-वेदी पर आहुति दे दी जाएगी। आकाश धुएँ की कालिख से भर जाएगा और धरती निरपराध मूक पशुओं के खून से रंग जाएगी। चतुर्दश पूर्वधर श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु लिखते हैं-इस महान् हिंसा को रोकने हेतु भगवान् महावीर संध्या वेला में ही वहाँ से चल पड़े पावापुरी के लिए। और वे सारी रात चलते रहे। प्रातः उनका समवसरण लगा पावापुरी के महासेन वन में। इधर श्री इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह विद्वान अपने-अपने विशाल शिष्य मण्डल के साथ यज्ञ की तैयारी में लगे थे। उधर यज्ञ मण्डप के निकट महासेन वन में तीर्थंकर महावीर की दिव्य ध्वनि अनुगृजित हो उठी। वह श्रमण भगवान् महावीर की हिंसा जन्य यज्ञों के विरोध में अहिंसा की प्रथम देशना थी। यज्ञ के विरोध की सूचना यज्ञ-मण्डप तक भी पहुँची। इसे सुनकर इन्द्रभूति गौतम को मालूम पड़ा कि श्रमण भगवान् महावीर यज्ञ का विरोध कर रहे हैं। उसका सन्मति तीर्थ की स्थापना 181 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार जाग उठा । महावीर क्षत्रिय कुमार है। क्षत्रिय को स्वयं वेद पढ़ने का अधिकार तो है, परन्तु जनता को सुनाने का अधिकार उसे नहीं है । वह गुरु के, ब्राह्मण के चरणों में बैठकर शिक्षा लेने का अधिकारी तो है, परन्तु गुरु के उच्च सिंहासन पर बैठ कर उपदेश देने का अधिकारी नहीं है । परन्तु, यह क्षत्रिय गुरु बन गया है और गुरु के आसन पर बैठ कर यज्ञ के विरोध में उपदेश दे रहा है, जन - मन में यज्ञ के विरोध में वातावरण तैयार कर रहा है। मैं स्वयं जाकर शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करता हूँ । गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ चल पड़ा भगवान् महावीर के समवसरण की ओर । समवसरण में प्रवेश करते ही श्रमण भगवान् महावीर ने कहा - " सागयं गोयमा!” गौतम, तुम ठीक समय पर आए हो । स्वागत है तुम्हारा। आज तो साध भी अपनी परम्परा से भिन्न परम्परा के साधु के आगमन पर भी ऐसी उदात्त भाषा का प्रयोग नहीं करते। परन्तु, भगवान् महावीर गौतम के लिए, जो अभी मिथ्यादृष्टि है, हिंसक यज्ञों का आयोजन कर रहा है। फिर भी भगवान् उसे आदर के साथ सम्बोधित करते हैं। गौतम का कुछ अहंकार तो यहीं टूट गया। ये तो मेरा नामगोत्र भी जानते हैं। । वह मन में सोचने लगा कि यह क्षत्रिय तो है, परन्तु लगता है क्षत्रियत्व से, जाति से बहुत ऊपर उठ गया है। इसके जीवन में सत्य की ज्योति है । फिर जब प्रभु की पीयूषवर्णी वाणी सुनी, तो उस पावन - निर्मल वाग्गंगा में मन का मैल ध लता गया, उसका चित्त शुद्ध होता गया । अन्तर् में ज्ञान - दीप प्रज्वलित हो गया और वहीं प्रबुद्ध हो गया गौतम । आया था अहंकार के साथ और बोध पाते ही स्वयं ही नहीं, अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ समर्पित हो गया प्रभु चरणों में। यह भी नहीं, कि अपने परिवार से मिलने और घर की व्यवस्था करने के लिए थोड़ा समय ले लूँ। आगमों में ऐसा वर्णन भी आता है, कि अनेक व्यक्तियों ने बोध प्राप्त करने के बाद कहा भगवन्, हम घर जाकर अपने माता-पिता एवं परिजनों से अनुमति लेकर पुनः आते हैं आपके चरणों में दीक्षित होने के लिए | परन्तु, गौतम ने तथा उनकी तरह क्रमशः आए अन्य दस विद्वानों ने ऐसा नहीं किया। वे अपने-अपने शिष्यों के साथ आए, शास्त्रार्थ किया और बोध प्राप्त होते ही वहीं दीक्षित हो गए। और श्रमण भगवान् महावीर ने भी यह नहीं कहा कि गौतम ! तुम और तुम्हारे पाँच सौ शिष्य श्रमण - प्रव्रज्या स्वीकार कर रहे हो, 182 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके पूर्व अपने अभिभावकों - माता-पिता तथा पत्नी आदि की अनुमति ले आओ। परन्तु, स्पष्ट है कि भगवान् ने भी ऐसा नहीं कहा। ज्यों वह जागृत हुआ, त्यों ही उसे एवं उसके शिष्यों को तथा अन्य विद्वानों को भी उनके शिष्यों के साथ दीक्षित कर लिया और तीर्थ की स्थापना कर दी। इतिहास की दृष्टि से आज का यह वैशाख शुक्ला एकादशी का दिन महत्त्वपूर्ण है । उसी स्मृति में हम अभी जो शास्त्र पाठ कर रहे थे - यह नन्दीसूत्र का पाठ है, जो महान् ज्योतिर्धर आचार्य श्री देववाचक की रचना है, उसमें तीर्थ की महिमा, भगवान् महावीर की महिमा और गणधरों की महिमा के गौरव गान है। भगवान् महावीर का तीर्थ इतना उदात्त एवं अद्भुत तीर्थ है कि इसमें सम्मिलित होने के पूर्व बाहर में कोई जाति, वर्ग, वर्ण आदि के घेरे में कैसा भी रहा हो, परन्तु तीर्थ में आने के बाद कोई भेद-भाव नहीं रहा - न जाति का, न वर्ग का और न वर्ण का। सब श्रमण- श्रमणी हैं, सब श्रावक-श्राविका हैं, न कोई ऊँचा है और न कोई नीचा है। परन्तु, आज हम देखते हैं कि संघ में आने के बाद भी दसे- बीसों के नाम पर संघर्ष होते हैं, ढइये - पाँचों की जाति को लेकर संघर्ष होते हैं साधुओं में भी । श्रावक वर्ग में पनप रहे जातीय भेदों को मिटाने का प्रयास होता नहीं। भगवान् महावीर के तीर्थ की उदात्त भावना के अनुरूप भ्रातृभाव की, बन्धुत्व की भावना जगाई नहीं जाती, परन्तु साधु संघ में भी उन भेदों को स्थान मिल जाता है। और अनेक बार ये जातीय भेद इतने उभर कर सामने आते रहते हैं, जो महावीर के तीर्थ के महत्त्व को कम कर रहे हैं। आज निष्क्रिय जड़ क्रिया-काण्डों के पकड़े हुए आग्रहों पर तो जोर दिया जाता है, परन्तु तीर्थ की मूल भावना की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। भगवान् महावीर का तीर्थ तो तीर्थ रहा। उसमें जाति एवं वर्ग का कोई महत्त्व नहीं था। यदि शूद्र ने पहले दीक्षा ले ली और एक श्रोत्रिय ब्राह्मण बाद में दीक्षित होता है, तो वह उसे वन्दन करेगा। एक महारानी की दासी या सम्राट दास पहले दीक्षित हो गया है और महारानी एवं सम्राट् बाद में दीक्षा ग्रहण करते हैं, तो वे उस दासी एवं दास को बिना किसी भेद-भाव के वन्दन करेंगे। इसका तात्पर्य है कि महावीर का तीर्थ समन्वय का तीर्थ है। इस दृष्टि से यह तीर्थ महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि भगवान् महावीर सर्वप्रथम सम्यक् - बोध की बात कहते हैं, सन्मति तीर्थ की स्थापना 183 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर आचार की-“पढ़मं नाणं तओ दया।" क्योंकि जिसे सम्यक्-बोध नहीं है, वह अज्ञानी आचार का पालन ही क्या करेगा? इसलिए भगवान् महावीर के शब्दों में आचार मुख्य नहीं, मुख्य है-सम्यक्-बोध, सम्यक्-ज्ञान __ “अन्नाणी किं काही? किं वा नाहीइ छेय - पावगं" भगवान् महावीर की यही एक महत्त्वपूर्ण घोषणा थी-सर्वप्रथम स्वयं को जानो। स्वयं के स्वरूप का सम्यक्-बोध साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण सोपान है। उनके पूर्व एवं उनके समय में भी अनेक गुरु ऐसे थे, जो शिष्यों को यों ही साधना-पथ पर ढकेलते जा रहे थे। स्वरूप-बोध की कोई बात नहीं, सिर्फ कर्म-क्रिया-काण्ड करते रहो। परन्तु भगवान् ने कहा-आँख बन्द करके चलने का कोई अर्थ नहीं है। चलने के पहले, कर्म-पथ पर गति करने के पूर्व स्वरूप का सम्यक्-बोध प्राप्त करो। उसके पश्चात् तुम स्वयं निर्णय करो कि क्या करना है, क्या नहीं करना है? आचार्य कल्प महाकवि धनंजय ने जब भगवान् महावीर के नामों का वर्णन किया। तो सर्वप्रथम उनके 'सन्मति' नाम का उल्लेख किया "सन्मतिर्महती:रो महावीरोऽन्त्य काश्यप। नाथान्वयो वर्धमानो यत्-तीर्थमिह साम्प्रतम।।" इसमें सबसे पहले सन्मति नाम रखा है। यहाँ छन्द भंग का तो प्रश्न नहीं था। पहले महती आदि अन्य नाम भी रख सकते थे। परन्तु वास्तव में महावीर सन्मति का देवता है। सन्-श्रेष्ठ, निर्मल और मति-बोध वाले। वस्तुतः जब तक साधक को सम्यक्-ज्ञान नहीं होता, उसकी मति सम्यक् नहीं होती, तब तक उसका कर्म भी सम्यक् नहीं हो सकता। इसलिए सम्यक्-मति का, सन्मति का सबसे पहले होना आवश्यक है। क्योंकि दुनिया के सभी पाप, अधर्म अज्ञान एवं दुर्मति में से ही जन्म लेते हैं। अतः जब तक अज्ञान-अंधकार समाप्त नहीं होगा, सन्मति प्राप्त नहीं होगी, तब तक न तो कोई व्यक्ति सुखी हो सकेगा, न कोई परिवार, समाज एवं राष्ट्र सुखी हो सकेगा। इसलिए कहा गया है-मैं कोन हूँ? मेरी क्या शक्ति है, मैं क्या कर सकता हूँ? इसका बार-बार चिन्तन करो, अनवरत चिन्तन करो। स्वयं को जानो, समझो और अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो 184 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कश्चाऽहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्य मुहुर्मुहुः । " जब तक तुमको अपने स्वरूप का, अपनी शक्ति का, अपने कर्म का बोध नहीं है, सही ज्ञान नहीं है, तब तक कदापि आगे नहीं बढ़ सकोगे । अस्तु सन्मति ही महत्त्वपूर्ण है, जिससे हम स्वयं समझ सकेंगे और दूसरों को भी सम्यक् रूप से समझा सकेंगे । सन्मति के अभाव में न हम दूसरों को सम्यक्तया समझा सकते हैं और न दूसरे हमको समझ एवं समझा सकते हैं। अतः महावीर के लिए प्रयुक्त सन्मति नाम यथार्थ है । यह एक महत्त्वपूर्ण बोध महावीर के तीर्थ का है, शासन का है - सन्मति दे भी सकें और सन्मति ले भी सकें। सत्य दूसरों को दे भी सकें और अगर अन्य कहीं भी सच्चाई है, तो उसे मुक्त मन से ग्रहण भी कर सकें। महावीर के तीर्थ में कहीं भी एकान्त आग्रह नहीं है। क्योंकि सत्य अनन्त है। इसलिए सत्य जहाँ भी मिले और वस्तुतः वह ग्रहण करने योग्य हो तो उसे खुले हृदय से ग्रहण करो। तुम्हारा जीवन साफ, स्वच्छ और स्पष्ट होना चाहिए। जैसे अन्दर वैसे बाहर - " जहा अन्तोतहा बहिं" आज के धर्म-संघों की, धर्म गुरुओं की स्थिति बड़ी विचित्र है । अन्दर में कुछ है और बाहर में उनका रूप कुछ और ही नजर आता है। इसी का प्रमाण है कि महावीर का तीर्थ, महावीर का शासन टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गया। और, एक दो नहीं, अनेक पंथ, सम्प्रदाय हो गए। गुजरात में गाँवों के नाम पर सम्प्रदाय हैं - गोंडल, लीम्बडी, दरियापुरी आदि। और पंजाब, राजस्थान आदि में गुरुओं के नाम से प्रचलित हैं सम्प्रदाएँ - हुकमीचन्दजी की संप्रदाय, जयमलजी, धर्मदासजी, रतनचन्दजी, जीवराजजी, रघुनाथजी आदि की सम्प्रदाएँ । क्या यह संघ उक्त गाँवों का है, उक्त धर्म-गुरुओं का है? क्या महावीर का धर्म तीर्थ किसी गाँव विशेष या धर्म-गुरु विशेष की जायदाद है, बपौती है? श्रमण भगवान् महावीर को, उनके धर्म तीर्थ को सब भूल गए। कोई गाँवों के अहंकार में बन्द हो गया, तो कोई धर्मगुरु के क्षुद्र दायरे में आबद्ध हो गया। सबने अपनी-अपनी समाचारी बना ली। मैं विचार करता हूँ कि यह सब क्या है। न इन नामों में दार्शनिकता है, न ऐतिहासिक गौरव है। श्रमण भगवान् महावीर तित्थयरे - तीर्थंकर हैं। वे तीर्थ के संस्थापक हैं, सन्मति तीर्थ की स्थापना 185 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघकर नहीं। तीर्थ में जो पवित्रता है, वह अन्य में नहीं। तीर्थ संस्थापक महाप्रभु का दार्शनिक क्षेत्र में सुप्रसिद्ध एक नाम है-सन्मति। इसलिए आज से हम अपने आपको 'सन्मति तीर्थ' के नाम से सम्बोधि त करेंगे और जन-जन को सन्मति-तीर्थ का बोध देंगे, उस महान् सत्य का बोध कराएँगे। श्रमण भगवान् महावीर का समवसरण भूमि पर तीर्थ-स्थापना के 2543 वें वर्ष के पावन-प्रसंग पर 'सन्मति-तीर्थ की उद्घोषणा की जा रही है। भगवती सूत्र में उल्लेख है कि तीर्थंकर समवसरण में देशना देने के लिए सिंहासन पर बैठते हैं, तब 'नमो तित्थस्स' के रूप में तीर्थ को नमस्कार करते हैं। मैं कल महान समन्वयवादी आचार्य हरिभद्र के महान् ग्रन्थ 'ललित विस्तरा' का अध्ययन कर रहा था। उसमें एक प्रश्न है-"भगवान् के द्वारा तीर्थ को यह वन्दन किसलिए।" आचार्य ने कहा-यह तो एक कल्प है। क्योंकि तीर्थंकर का महत्त्व तीर्थ-स्थापना है। संसार-सागर को तैरकर पार करने का महत्त्वपूर्ण साधन है तीर्थ। इसलिए धर्म तीर्थ महान् है। इसी कारण भगवती सूत्र में 'नमो तित्थस्स' और ललित विस्तरा में आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'नमस्तीर्थाय' लिखकर तीर्थंकरों द्वारा तीर्थ को नमस्कार करने का उल्लेख किया है। मैं विचार करता हूँ कि तीर्थ कितना पावन एवं महान् है कि अपनी रचना को रचनाकार स्वयं नमस्कार करता है। क्योंकि वास्तव में धर्मतीर्थ संसार के कल्याण के लिए है। ___ आज के पावन ऐतिहासिक दिवस पर हम भी सन्मति तीर्थ को नमस्कार करके संकल्प करते हैं हम अपने को भगवान सन्मति-महावीर के पवित्र नाम के साथ जोड़ते हैं। सम्प्रदाय की दृष्टि से नहीं, मान्यताओं एवं परम्पराओं की दृष्टि से भी नहीं और परम्परा से क्या कहा गया इससे भी नहीं, प्रत्युत हम तो इस दृष्टि से अपने को प्रभु चरणों में समर्पित कर रहे हैं, उनके साथ स्वयं को जोड़ रहे हैं, कि सत्य का साक्षात्कार करने मुक्त मन से चिन्तन किया जाए, स्वयं सत्य को समझा जाए और जन-जन को सत्य समझाया जाए। सन्मति स्वयं प्राप्त की जाए और सम्पर्क में समागत जनों को सन्मति दी जाए। हम उस महान् सत्य का जन-जन को बोध कराने का विचार रखते हैं, जिसका अनन्त ज्ञानियों ने अपने ज्योतिर्मय ज्ञान में साक्षात्कार किया है। इस दृष्टि से तीर्थ स्थापना के पावन 186 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवस पर हम अपने आपको उस तीर्थ की स्थापना में स्थापित कर लेते हैं। अतः महाप्रभु सन्मति के साथ तीर्थ शब्द का प्रयोग कर तीर्थंकर सन्मति-महावीर की समवसरण भूमि पर सन्मति-तीर्थ की स्थापना कर रहे हैं। प्रभु चरणों में शत-शत वन्दन के साथ यही प्रार्थना है "सबके मन में सन्मति जागृत हो जन-मन में सद्बुद्धि की ज्योति जगे" OCRAT OR सन्मति तीर्थ की स्थापना 187 । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसन्त उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज के आशीर्वाद के साथ सन् 1973 से आध्यात्मिक विकास और मानव सेवा को जोड़ने के नम्र प्रयास के परिणामस्वरूप आचार्य चन्दनाश्रीजी के नेतृत्व में वीरायतन की स्थापना हुई। आज कमिक विस्तार पाकर अनेक स्थलों में साध्वियों के मार्गदर्शन में यह संस्था कार्यरत है। जैन समाज और विशेषतः युवावर्ग तथा विदेश में रहते प्रज्ञा एवं भावना से सम्पन्न लोग इस सेवायज्ञ में समर्पित हैं। इस वैचारिक कान्ति में विशाल जैन समुदाय का सहयोग प्राप्त हैं। तीर्थकर महावीर ने कहा है-"जह दीवो दीव सयं” अर्थात् एक दीपक हजारों दीपकों को प्रज्वलित करता है। भगवान महावीर के दिव्य वचन के आलोक में वीरायतन सेवा, शिक्षा एवं साधना त्रिविध क्षेत्र में सतत् प्रयास कर रहा हैं। प्रकाशक : वीरायतन - राजगीर मूल्य 50/