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अधिक लेखन से बचने के लिए संक्षिप्त रुचि के कारण स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख कर दिया है। जब यह मान लिया है कि अंग आगमों में भी आचार्यों का अंगुलीस्पर्श हुआ है, उन्होंने संक्षिप्तीकरण किया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि कहीं-कहीं कुछ मूल से बढ़ भी गया है, विस्तार भी हो गया है? मैं नहीं कहता कि उन्होंने कुछ ऐसा किसी गलत भावना से किया है, भले ही यह सब कुछ पवित्र प्रभुभक्ति एवं श्रुत महत्ता की भावना से ही हुआ हो, पर यह सत्य है कि जब घटाना संभव है, तो बढ़ाना भी संभव है । और, इस संभावना के साक्ष्य रूप प्रमाण भी आज उपलब्ध हो रहे हैं।
भूगोल - खगोल महावीर की वाणी नहीं
यह सर्व सम्मत तथ्य आज मान लिया गया है कि मौखिक परम्परा एवं स्मृतिदौर्बल्य के कारण बहुत-सा श्रुत विलुप्त हो गया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि सर्व साधारण में प्रचलित उस युग की कुछ मान्यताएँ भी आगमों के साथ संकलित कर दी गई हैं ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि ऐसा होना संभव है, और वह हुआ है।
उस युग में भुगोल, खगोल, ग्रह, नक्षत्र, नदी, पर्वत आदि के संबंध में कुछ मान्यताएँ आम प्रचलित थीं, कुछ बातें तो भारत के बाहरी क्षेत्रों में भी अर्थात् इस्लाम और ईसाई धर्मग्रन्थों में भी इधर-उधर के सांस्कृतिक रूपान्तर के साथ ज्यों की त्यों उल्लिखित हुई हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि ये धारणाएँ सर्वसामान्य थीं। जो जैनों ने भी लीं, पुराणकारों ने भी लीं और दूसरों ने भी ! उस युग में उनके परीक्षण का कोई साधन नहीं था, इसलिए उन्हें सत्य ही मान लिया गया और वे शास्त्रों की पंक्तियों के साथ चिपट गई! पर बाद के उस वर्णन को भगवान् महावीर के नाम पर चलाना क्या उचित है? जिस चंद्रलोक के धरातल के चित्र आज समूचे संसार के हाथों में पहुँच गए हैं और अपोलो 8 के यात्रियों ने आँखों से देखकर बता दिया है कि वहाँ पहाड़ हैं, ज्वालामुखी के गर्त हैं, श्री - हीन उजड़े भूखण्ड हैं, उस चंद्रमा के लिए कुछ पुराने धर्म ग्रन्थों की दुहाई देकर आज भी यह मानना कि वहाँ सिंह, हाथी बैल और घोड़ों के रूप में हजारों देवता हैं, और वे सब मिलकर चन्द्र विमान को वहन कर रहे है; 23 कितना असंगत एवं कितना अबौद्धिक है? क्या यह महावीर की वाणी, एक सर्वज्ञ की वाणी हो सकती है? जिन गंगा आदि नदियों की इंच-इंच भूमि आज
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 21
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