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________________ नाप ली गई है उन नदियों को आज भी लाखों मील के लंबे चौड़े विस्तार वाली बताना, क्या यह महावीर की सर्वज्ञता एवं भगवत्ता का उपहास नहीं है? ___ आज बहुत से जिज्ञासु मुझसे पूछ रहे हैं, बहुत से तर्कप्रेमी श्रावकों के प्रश्न आ रहे हैं, उनसे भी और आप सभी से मैं यह कहना चाहता हूँ कि आज हमें नये सिरे से चिन्तन करना चाहिए। यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर सत्य का सही मूल्यांकन करना चाहिए। दूध और पानी की तरह यह अलग-अलग कर देना चाहिए कि भगवान की वाणी क्या है? महावीर के वचन क्या है? एवं उसमें उत्तरकालीन विद्वानों की संकलना क्या है? यह साहस आज करना होगा, कतराने और सकुचाने से सत्य पर पर्दा नहीं डाला जा सकेगा। आज का तर्क प्रधान युग निर्णायक उत्तर मांगता है और यह उत्तर धर्मशास्त्रों के समस्त प्रतिनिधियों को देना होगा। मैं समझता हूँ कि आज के युग में भी आपके मन में तथाकथित शास्त्रों के अक्षर -अक्षर को सत्य मानने का व्यामोह है, तो महावीर की सर्वज्ञता को अप्रमाणित होने से आप कैसे बचा सकेंगे? यदि महावीर की सर्वज्ञता को प्रमाणित रखना है, तो फिर यह विवेकपूर्वक सिद्ध करना ही होगा कि महावीर की वाणी क्या है? शास्त्र का यथार्थ स्वरूप क्या है? और वह शास्त्र कौन-सा है? अन्यथा आनेवाली पीढी कहेगी कि महावीर को भूगोल-खगोल के संबंध में कुछ भी अता-पता नहीं था, उन्हें स्कूल के एक साधारण विद्यार्थी जितनी भी जानकारी नहीं थी ! शास्त्रों की छंटनी करनी होगी प्रश्न उपस्थित होता है, हम कौन होते हैं, जो महावीर की वाणी की छंटनी कर सकें? हमें क्या अधिकार है कि शास्त्रों का फैसला कर सकें कि कौन शास्त्र हैं और कौन नहीं ! ____ मेरा उत्तर है, हम महावीर के उत्तराधिकारी हैं, भगवान् का गौरव हमारे अन्तर्मन में समाया हुआ है, भगवान् की अपभ्राजना हम किसी भी मूल्य पर सहन नहीं कर सकते। हम त्रिकाल में भी यह नहीं मान सकते कि भगवान् ने असत्य प्ररूपणा की है। अतः जो आज प्रत्यक्ष में असत्य प्रमाणित हो रहा है, या हो सकता है, वह भगवान का वचन नहीं हो सकता इसलिए हमें पूरा अधिकार है कि यदि कोई भगवान् को, भगवान् की वाणी को चुनौती देता है तो हम 22 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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