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________________ 'दगतीरे पडिक्कमिडं इरियावहिया य पत्थिओ भयवं । ' - महावीर चरियं आचार्य गुणचन्द्रसूरि ने अपने प्राकृत गद्यबद्ध महावीर चरियं में भी उक्त कथन को ही समादृत किया है “इओ य भयवं महावीरो नावुत्तिन्नो संतो जलतीरंमि इरियावहियं पडिक्कमिय सुरसरिया परिसरे । - आचार्य गुणचन्द्र, महावीर चरियं, पृष्ठ 181 क्रिया - काण्ड की दृष्टि से दिगम्बर- परम्परा उग्र क्रिया- काण्डी मानी जाती है। उक्त परम्परा के महान् आचार्य हैं, वीरनन्दी सैद्धान्तिक चक्रवर्ती। उनके द्वारा प्रणीत आचारसार एक मान्य आचार ग्रन्थ है। उसमें भी आचार्यश्री ने मलोत्सर्ग एवं नदी आदि उतरने के समय कायोत्सर्ग का ही विधान किया है “व्युत्सर्गोन्तर्मुहूर्त्तादिकालं कायविसर्जनम् । सद्ध्यानं तन्मलोत्सर्गनद्याद्युत्तरणादिषु ।। " - आचारसार, षष्ठोऽधिकार, 45 उक्त श्लोक में स्पष्ट है कि नदी - संतरण और मलोत्सर्ग रूप प्रतिष्ठापन समिति दोनों को एक समान माना गया है। इस लिए दोनों के लिए ही कायोत्सर्ग मात्र का विधान है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के बीच की एक मध्यस्थ परंपरा रही है-यापनीय-परंपरा | जैन संस्कृत व्याकरण शाकटायन के निर्माता श्री शाकटायन, भगवती आराधना के कर्ता आचार्य शिवार्य तथा अपराजितसूरि जैसे सुप्रसिद्ध अनेक विद्वान्-आचार्य इसी परम्परा के हैं । भगवती आराधना की अपनी सुप्रख्यात तत्त्वगर्भ टीका 'वजयोदया में कायोत्सर्ग का ही विधान किया है " समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत्, परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहार्थ । एवमेव महतः कान्तारस्य प्रवेशनि:क्रमणयो - भगवती आराधना टीका, गाथा 152 उक्त आचार्य का ही एक और प्रमाण है कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में। वह कायोत्सर्ग के परिमाण स्वरूप किए जाने वाले श्वासोच्छ्वास की गणना से सम्बन्धि त है । प्राणी - वधआदि पाँचों ही अतिचारों के लिए कायोत्सर्ग का काल मात्र 108 श्वासोच्छ्वास माना गया है 74 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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