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________________ "प्रत्युषसि प्राणिवधादिषु पंचस्वतिचारेषु अष्टशतोच्छ्वासमात्रः कालः कायोत्सर्गः कार्यः।"-भगवती आराधना, टीका, गाथा 118 प्रस्तुत प्रकरण के समर्थन में प्रमाणों का एक विस्तृत संग्रह है। किन्तु, हम यहाँ मान्य आचार्यों के पर्याप्त प्रमाण उपस्थित कर चुके हैं। अतः अब अधि क पाठों का उल्लेख करने का कोई विशेष अर्थ नहीं रहता। नदी-संतरण को पूर्वाचार्य बहुत अधिक पापकारी एवं अधर्म नहीं मानते थे। यदि मानते होते, तो केवल अन्तर्मुहूर्त काल संबंधी सीमित श्वासोच्छवासों के कायोत्सर्ग से उसकी शुद्धि स्वीकार नहीं करते। किसी बहुत बड़े तप आदि प्रायश्चित्त का विधान करते। इस प्रकार के कायोत्सर्ग तो साधारण गोचरचर्या, विहार आदि के साधारण क्रिया के हेतु किए जाते हैं। अतः नदी -संतरण को घोर पाप बताते हुए व्यर्थ का हल्ला मचाना शास्त्र-ज्ञान की अनभिज्ञता का ही द्योतक है। हमारा विनम्र निवेदन है कि मान्यताओं का आग्रह छोड़कर प्रस्तुत समाधान के लिए प्राचीन परम्परा को ही मान्य करना चाहिए। नदी-संतरण के हेतु जीवन-रक्षा सम्बन्धी ही अधिक है। किन्तु, जीवन-रक्षा किसलिए? संयम एवं धर्म पालन के लिए न? अतः धर्म-प्रचार के हेतु भी उसका प्रयोग किया जाए, तो यह कल्पनीय ही ठहरता है, अकल्पनीय नहीं। ध र्म-प्रचार के लिए बृहत्कल्प सूत्र में निर्दिष्ट अंग-मगध, कौशाम्बी, थूणा और कुणाल आदि के मध्य क्षेत्र को ही आर्य-क्षेत्र माना है और वहीं साधु-साध्वी को विहार करने का विधान है, अन्यत्र नहीं। परन्तु, प्राचीनकाल से ही उक्त क्षेत्र के बाहर विहार होते रहे हैं। बृहत्कल्प-सूत्रकार भी कहते हैं कि ज्ञान-दर्शन आदि की वृद्धि होती हो तो उक्त आर्य क्षेत्र से बाहर तथाकथित अनार्य क्षेत्र में विहार हो सकता है। अतः स्पष्ट है कि धर्म सम्पादन एवं धर्म-प्रचार मुख्य है। स्वाध्याय का अन्तिम परिपाक भी धर्म-कथा में ही है। अतः नदी-संतरण की भाँति यदि देश-कालानुसार प्रसंग विशेष में धर्मप्रचारार्थ कार एवं वायुयान आदि शीघ्रगामी यानों का प्रयोग किया जाए, तो इसमें क्या आपत्ति है? कुछ भी तो नहीं। जबकि जीवन-रक्षा के लिए, भिक्षा जैसे साधारण कार्य के लिए भी नदी पार की जा सकती है और प्रायश्चित्त केवल एक अल्प कालिक कायोत्सर्ग ही है, तो फिर धर्म-प्रचार तो विशिष्ट प्रयोजन है। वह अनर्थ नहीं, अर्थ है। और, साधारण अर्थ नहीं, विशिष्ट अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। यह जिन-शासन की प्रभावना का मुख्य अंग है। इसे कैसे अपदस्थ किया जा सकता है? भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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