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गंगा जैसी महानदियों के संतरण में कितनी महान् हिंसा होती है? उसकी तुलना में उक्त यांत्रिक वाहनों में तो कुछ भी हिंसा नहीं है। बुद्धिमान व्यक्तियों को प्रत्येक कार्य में आय-व्यय एवं लाभ-हानि का सूक्ष्म बुद्धि से गणित लगाना ही चाहिए। अन्ध-हस्ति की तरह केवल साम्प्रदायिक मान्यताओं के पथ पर दौड़ते रहना न प्राचीन-युग में कुछ अर्थ रखता था और न आज के चिन्तन प्रधान वैज्ञानिक युग में कुछ अर्थ रखता है। सत्य के उपासक को मान्यताओं से ऊपर उठकर सत्य की ही एक मात्र उपासना करना सत्य की साधना है। इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने सत्य को भगवान् कहा है -
"सच्चं खु भगवं" संदर्भ :1. यही प्रसंग बृहत्कल्प भाष्य तथा निशीथ भाष्य में निर्दिष्ट है
वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्सकासि उवसग्गं। मिच्छादिट्ठि परद्धो, कंबल-सबलेहि तित्थं च।।
-बृहत्कल्प भाष्य 5628, निशीथ भाष्य 4218 2. सट्ठाणे सट्ठाणे, सेया बलिणो य हुंति खलु एए।
सट्ठाण – परट्ठाणा, य हुति वत्थूतो निप्फ ।।323।।
-शिष्यः पृच्छति –किमुत्सर्गः श्रेयान् बलवाँश्च?... उत्सर्ग-अपवादाश्च स्वस्थाने-स्वस्थाने श्रेयांसो बलिनश्च भवन्ति, परस्थाने-परस्थाने-ऽश्रेयांसो दुर्बलाश्च।
-बृहत्कल्प भाष्य एवं टीका
76 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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