SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "कश्चाऽहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्य मुहुर्मुहुः । " जब तक तुमको अपने स्वरूप का, अपनी शक्ति का, अपने कर्म का बोध नहीं है, सही ज्ञान नहीं है, तब तक कदापि आगे नहीं बढ़ सकोगे । अस्तु सन्मति ही महत्त्वपूर्ण है, जिससे हम स्वयं समझ सकेंगे और दूसरों को भी सम्यक् रूप से समझा सकेंगे । सन्मति के अभाव में न हम दूसरों को सम्यक्तया समझा सकते हैं और न दूसरे हमको समझ एवं समझा सकते हैं। अतः महावीर के लिए प्रयुक्त सन्मति नाम यथार्थ है । यह एक महत्त्वपूर्ण बोध महावीर के तीर्थ का है, शासन का है - सन्मति दे भी सकें और सन्मति ले भी सकें। सत्य दूसरों को दे भी सकें और अगर अन्य कहीं भी सच्चाई है, तो उसे मुक्त मन से ग्रहण भी कर सकें। महावीर के तीर्थ में कहीं भी एकान्त आग्रह नहीं है। क्योंकि सत्य अनन्त है। इसलिए सत्य जहाँ भी मिले और वस्तुतः वह ग्रहण करने योग्य हो तो उसे खुले हृदय से ग्रहण करो। तुम्हारा जीवन साफ, स्वच्छ और स्पष्ट होना चाहिए। जैसे अन्दर वैसे बाहर - " जहा अन्तोतहा बहिं" आज के धर्म-संघों की, धर्म गुरुओं की स्थिति बड़ी विचित्र है । अन्दर में कुछ है और बाहर में उनका रूप कुछ और ही नजर आता है। इसी का प्रमाण है कि महावीर का तीर्थ, महावीर का शासन टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गया। और, एक दो नहीं, अनेक पंथ, सम्प्रदाय हो गए। गुजरात में गाँवों के नाम पर सम्प्रदाय हैं - गोंडल, लीम्बडी, दरियापुरी आदि। और पंजाब, राजस्थान आदि में गुरुओं के नाम से प्रचलित हैं सम्प्रदाएँ - हुकमीचन्दजी की संप्रदाय, जयमलजी, धर्मदासजी, रतनचन्दजी, जीवराजजी, रघुनाथजी आदि की सम्प्रदाएँ । क्या यह संघ उक्त गाँवों का है, उक्त धर्म-गुरुओं का है? क्या महावीर का धर्म तीर्थ किसी गाँव विशेष या धर्म-गुरु विशेष की जायदाद है, बपौती है? श्रमण भगवान् महावीर को, उनके धर्म तीर्थ को सब भूल गए। कोई गाँवों के अहंकार में बन्द हो गया, तो कोई धर्मगुरु के क्षुद्र दायरे में आबद्ध हो गया। सबने अपनी-अपनी समाचारी बना ली। मैं विचार करता हूँ कि यह सब क्या है। न इन नामों में दार्शनिकता है, न ऐतिहासिक गौरव है। श्रमण भगवान् महावीर तित्थयरे - तीर्थंकर हैं। वे तीर्थ के संस्थापक हैं, सन्मति तीर्थ की स्थापना 185 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy