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फिर आचार की-“पढ़मं नाणं तओ दया।" क्योंकि जिसे सम्यक्-बोध नहीं है, वह अज्ञानी आचार का पालन ही क्या करेगा? इसलिए भगवान् महावीर के शब्दों में आचार मुख्य नहीं, मुख्य है-सम्यक्-बोध, सम्यक्-ज्ञान
__ “अन्नाणी किं काही? किं वा नाहीइ छेय - पावगं"
भगवान् महावीर की यही एक महत्त्वपूर्ण घोषणा थी-सर्वप्रथम स्वयं को जानो। स्वयं के स्वरूप का सम्यक्-बोध साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण सोपान है। उनके पूर्व एवं उनके समय में भी अनेक गुरु ऐसे थे, जो शिष्यों को यों ही साधना-पथ पर ढकेलते जा रहे थे। स्वरूप-बोध की कोई बात नहीं, सिर्फ कर्म-क्रिया-काण्ड करते रहो। परन्तु भगवान् ने कहा-आँख बन्द करके चलने का कोई अर्थ नहीं है। चलने के पहले, कर्म-पथ पर गति करने के पूर्व स्वरूप का सम्यक्-बोध प्राप्त करो। उसके पश्चात् तुम स्वयं निर्णय करो कि क्या करना है, क्या नहीं करना है?
आचार्य कल्प महाकवि धनंजय ने जब भगवान् महावीर के नामों का वर्णन किया। तो सर्वप्रथम उनके 'सन्मति' नाम का उल्लेख किया
"सन्मतिर्महती:रो महावीरोऽन्त्य काश्यप।
नाथान्वयो वर्धमानो यत्-तीर्थमिह साम्प्रतम।।"
इसमें सबसे पहले सन्मति नाम रखा है। यहाँ छन्द भंग का तो प्रश्न नहीं था। पहले महती आदि अन्य नाम भी रख सकते थे। परन्तु वास्तव में महावीर सन्मति का देवता है। सन्-श्रेष्ठ, निर्मल और मति-बोध वाले। वस्तुतः जब तक साधक को सम्यक्-ज्ञान नहीं होता, उसकी मति सम्यक् नहीं होती, तब तक उसका कर्म भी सम्यक् नहीं हो सकता। इसलिए सम्यक्-मति का, सन्मति का सबसे पहले होना आवश्यक है।
क्योंकि दुनिया के सभी पाप, अधर्म अज्ञान एवं दुर्मति में से ही जन्म लेते हैं। अतः जब तक अज्ञान-अंधकार समाप्त नहीं होगा, सन्मति प्राप्त नहीं होगी, तब तक न तो कोई व्यक्ति सुखी हो सकेगा, न कोई परिवार, समाज एवं राष्ट्र सुखी हो सकेगा। इसलिए कहा गया है-मैं कोन हूँ? मेरी क्या शक्ति है, मैं क्या कर सकता हूँ? इसका बार-बार चिन्तन करो, अनवरत चिन्तन करो। स्वयं को जानो, समझो और अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो
184 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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