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4 भगवान् महावीर ने गंगा महानदी क्यों पार की ?
भारतवर्ष की नदियों में गंगा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती एवं बंगला आदि प्रान्तीय भाषाओं का भारतीय साहित्य, गंगा की गौरवगाथाओं से भरा पड़ा है।
गंगा देवनदी है।
प्राचीन भारतीयों का विश्वास था कि गंगा देवताओं की नदी है। जैनाचार्य भी गंगा को देवताधिष्ठित नदी मानते हैं। गंगा का विशाल आकार एवं विराट् रूप ही उसकी देवत्व-प्रसिद्धि में मुख्य हेतु है। प्राचीन काल का भारतीय चिन्तन ही कुछ ऐसा था कि हर विराट् और विशालकाय प्राकृतिक पदार्थ उनकी दृष्टि में देव अथवा देवाधिष्ठित हो जाता था । हिमालय आदि उत्तुंगपर्वतों तथा महासागरों के देवत्व का रहस्य इसी भावना में निहित है।
गंगा महार्णव और समुद्ररूपिणी
अतएव गंगा एक सामान्य नदी नहीं, अपितु महानदी है। जैनागम गंगा को 'महार्णव " भी कहते हैं। 'महार्णव' का अर्थ है - महासागर। स्थानांग सूत्र के टीकाकार आचार्य अभयदेव ने इसलिए मूल के 'महार्णव' शब्द को उपमावाचक मानकर अर्थ किया है कि विशाल जलराशि के कारण वह महार्णव अर्थात् महासमुद्र जैसी है-“महार्णव इव या बहूदकत्वात्। " जैनाचार्यों ने ही नहीं, वैदिक परम्परा के पुराणों में भी गंगा को 'समुद्ररूपिणी" कहा है।
गंगा की सहायक नदियाँ
वैदिक परम्परा गंगा में नौ सौ (900) नदियों का मिलना मानती है । " जैन परम्परा की दृष्टि से चौदह हजार ( 14000 ) नदियाँ गंगा में मिलती हैं। ' उक्त नदियों में यमुना, सरयु, कोशी और मही आदि वे नदियाँ भी हैं, जो स्वयं भी आगम साहित्य में महार्णव और महानदी के नाम से सुप्रसिद्ध है।
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