SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्वत्परिषद् के आयोजन का भी एक विचार चल रहा है। यदि प्रमुख विचारक मुनिराजों एवं विद्वानों की विद्वत्परिषद् आयोजित हो सकी तो मैं उसमें यथावसर सहर्ष भाग लेने का भाव रखता हूँ। बन्द कमरे की परिषदें और चर्चाएँ, मुझे बेकार लगती हैं। जो भी चर्चा हो, सार्वजनिक हो एवं लिखित हो, और वह सर्वसाधारण की जानकारी के लिए प्रकाशित की जाए! कम से कम जिज्ञासु जनता इस पर से इतना तो समझ सके कि विचार-चर्चा का स्तर कैसा है, और वह किस दिशा में है? संदर्भ :1. यदि वह भगवद् वाणी है तो उसमें ऐसा क्या है, जो प्रकाशन के योग्य नहीं है और इस प्रकार छिपा कर उन्हें कब तक रखा जा सकता है। स्व. पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी और श्री सागरानंद सूरि आदि ने उन्हें बहुत पहले ही प्रकाशित कर दिया हैं 2. समवायांग 29 वाँ समवाय। 3. उत्तध्ययन31/19 4. आवश्यक सूत्र, श्रमण सूत्र। 5. उत्तराध्ययन 8/13 उत्तराध्ययन 15/7 6. पापोपादानानि पापश्रुतानि... यो भिक्षुयतते तत्परिहारद्वारतः। --उत्त. बृहद्वृत्ति 31/16 7. शास्त्रों को समुद्र की उपमा केवल उनके तत्त्व चिन्तन की गहराई को लक्ष्य में __ रखकर दी गई है। उसका यह अर्थ नहीं कि समुद्र के मगरमच्छ आदि का सब कूड़ा-करकट शास्त्रों में समाहित कर लें। 8. ज्ञानस्य फलं विरतिः। -आचार्य उमा स्वाति 9. सम्बन्धाभिध्येय शक्यानुष्ठानेष्ट प्रयोजनवन्तिं हि शास्त्राणि प्रेक्षावद्भिराद्रियन्ते नेतराणि। -प्रमेयकमल मार्तण्ड, पृ. 2 केवलस्य सुखोपेक्षे, शेषस्यादानहानधीः। -न्यायावतार, 28 10. प्रमेयकमल मार्तण्ड टिप्पण पृ. 2 50 "प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy