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उत्तर-पूज्य श्री का मेरे लिए यह संकेत ही नहीं, सन्देश है और इसका हृदय से अभिनन्दन करता हूँ। समाज सुधार के लिए मेरे प्रयत्न बहुत पहले से चालू हैं। बाल विवाह, वृद्ध विवाह, दहेज, मृत्यु भोज, पर्दा, जातिवाद, आहार शुद्धि, सामाजिक एवं धार्मिक आडम्बर आदि सामाजिक कुप्रथाओं के लिए मैंने निर्भयता के साथ अपने विचार प्रकट किए हैं, ओर अमुक अंश में उनके अच्छे परिणाम भी आए हैं। कुछ प्रसंगों पर तो मैंने सुधार के लिए स्वयं भी सक्रिय भाग लिया है, उसके लिए आलोचना भी कम नहीं हुई है। किन्तु शान्त भाव से सब कुछ सहते हुए मैंने अपने प्रयत्न चालू रखे हैं। भविष्य में इसके लिए
और भी अधिक ध्यान देने के भाव हैं। कुप्रथाएँ अधिकतर अन्ध-विश्वास के सहारे खड़ी होती हैं और मेरा यह वर्तमान प्रयत्न अन्धविश्वास को ध्वस्त करने के लिए है। इस प्रकार यह चालू चर्चा भी समाज सुधार का ही एक अंग है।
प्रश्न-आपकी यह चर्चा अब और कब तक चालू रहेगी? विपक्ष की ओर से तो अभी तक विरोध में कोई खास तर्क एवं प्रमाण उपस्थित नहीं किए जा सके हैं।
उत्तर-मैं चाहता था, चर्चा का स्तर ऊँचा उठेगा और उसमें विद्वान मुनिराज तथा गृहस्थ खुलकर भाग लेंगे। पर, ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह ठीक है कि मेरे विचारों ने जिज्ञासु जन मानस को प्रभावित किया है, कुछ तटस्थ विचारों को भी आकृष्ट किया है। इस सम्बन्ध में प्रशंसापत्रों का प्रवाह अभी तक चला आ रहा हैं परन्तु इसके साथ विरोध भी कुछ कम नहीं हुआ है। विरोध में इध र-उधर मौखिक चर्चाएँ खूब हुई है, जो केवल निन्दा का ही एक निम्नस्तरीय प्रकार है। कुछ महानुभावों ने लिखा भी है, परन्तु वह प्रमाण पुरःसर नहीं था। अधिकतर उसमें धर्म और श्रद्धा के खतरे का नारा ही मुखर था, जो आज हर संप्रदाय में बहुत सस्ता हो गया है। बार-बार एक जैसी ही बातें दुहराई जाती हैं, फलतः उत्तर में मुझे भी बार-बार पुरानी बातों को ही दुहराना पड़ता है, चर्चा की गति आगे नहीं बढ़ पाती है। अतः मैं पाठकों का अमूल्य समय व्यर्थ में नष्ट नहीं करना चाहता। इस कारण प्रस्तुत चर्चा को विराम दे रहा हूँ। भविष्य में यदि किसी विशिष्ट विद्वान् की ओर से कोई खास विचार या लेख इस सम्बन्ध में उपस्थित हुआ तो उत्तर दूँगा, अन्यथा नहीं।
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 49
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