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________________ मानव-आहार के सम्बन्ध में सबसे पहली चर्चा है भक्ष्याऽभक्ष्य की। जो आहार दूसरे प्राणियों की हत्या करके प्राप्त किया जाता है, वह क्रूरता एवं हिंसा से जन्य मांस, मछली, अण्डा अभक्ष्य आहार है। यह बाघ, गीध आदि जंगली हिंस्र पशु-पक्षियों तथा राक्षसों का आहार माना गया है। प्रायः सभी आत्मदर्शी ध र्माचार्यों ने उक्त आहार को गर्हित, अतः अभक्ष्य बताया है। अहिंसा प्रधान धर्मों ने मांस आदि उक्त अभक्ष्य आहार की कसकर निन्दा की है, और उसे नरक गमन का हेतु कहा है। मानव अपने दन्त आदि अंगों की दृष्टि से मूलतः शाकाहारी प्राणी है, मांसाहारी नहीं। मानव-हृदय की सहज संवेदनशीलता भी ऐसी अनुकम्पा द्रवित है कि वहाँ मांसाहार कथमपि उपयुक्त नहीं हैं। अन्यत्र हमने इस पर काफी चर्चा की है, अतः प्रस्तुत में हम अपने एक बहुचर्चित विषय पर ही केन्द्रित रहना चाहते है। मांसाहार के निषेधानन्तर शाकाहार आदि की चर्चा है। शाकाहार अर्थात् मुख्यतया वनस्पति-आहार के सम्बन्ध में भी चिन्तन ने काफी स्वच्छ विचार प्रस्तुत किए हैं। लशुन, प्याज आदि कुछ ऐसी वनस्पतियाँ हैं, जो कुछ उत्तेजक हैं, मानसिक वृत्तियों को क्षुब्ध कर देनेवाली हैं, अतः तमोगुणी होने से उनका भी शास्त्रकारों ने अमुक अंश में निषेध किया है। रोगादि कारणविशेष में लशुन आदि भी विहित हैं, किन्तु स्वस्थ स्थिति में उत्सर्गरूपेण वर्जित हैं। खासकर जैन और वैष्णव परंपराएँ इनके निषेध पर काफी बल देती हैं। तमोगुण जन्य मादकता का तन और मन दोनों पर ही प्रभाव पड़ता है, अतः तमोगुणी आहार किसी भी रूप में हो, उससे बचना ही चाहिए। साधक के लिए तो विशेष रूप से वर्जित है। यही कारण है कि प्राचीन जैन-परम्परा में दुध, दही, मक्खन, घी आदि की भी विकृतियों में परिगणना है, फलतः उनका भी मुक्त भाव से अतिसेवन निषिद्ध है। "दुद्ध दही विगइओ आहारेइ अभिक्खणं....पावसमणेत्ति वुच्चई।" वनस्पति-शाकाहार के सम्बन्ध में आहार की चर्चा ने, जैन-परम्परा में आगे चलकर एक और मोड़ लिया। वह है वनस्पतिगत जीवों की संख्या का जैन-परम्परा में वनस्पति के जीवों की संख्या से तीन भेद हैं-संख्यात असंख्यात और अनन्त। प्रत्येक वनस्पति आम्र एवं जामुन आदि वृक्ष तथा घीया, तोरई आदि शाक कुछ संख्यात की गणना में आते हैं और कुछ असंख्यात की गणना में। भूमि में परिवर्धित होने वाले शकरकन्द, गाजर मूली आदि कन्दमूल अनन्त जीवों 163 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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