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इस
के अतिरिक्त हैं, शरीर से लगते हर झोके के साथ उनका सर्वनाश होता रहता है। हर साँस में प्राणी मर रहे हैं। व्यक्ति के अपने शरीर में भी मांस, मज्जा, रक्त, मलमूत्र आदि में भी प्रतिक्षण असंख्य प्राणी जनमते-मरते रहते हैं। प्रश्न है, स्थिति में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है ? अहिंसा का पालन कैसे हो सकता है ? जैन परम्परा इसका उत्तर द्रव्य और भाव के द्वारा देती है। यदि साधक जाग्रत है, उसके मन में अहिंसा का विवेक बोध है, हिंसा की वृत्ति या संकल्प नहीं है, तो वह बाहर में हिंसा होने पर भी अन्दर में अहिंसक ही है। यह भावशून्य द्रव्य हिंसा केवल बाह्य व्यवहार में कथनमात्र की हिंसा है, पापकर्म का बन्ध करने वाली हिंसा नहीं हैं इस प्रकार हिंसा की भावना से मुक्त मन:स्थिति में द्रव्य हिंसा होने पर भी अहिंसा धर्म का परिपालन- अक्षुण्ण है।
अहिंसा धर्म के परिपालन का एक दूसरा रूप और है। वह प्रवृत्ति में हिंसा और अहिंसा की मात्रा के आधार पर है। कल्पना कीजिए, कोई एक प्रवृत्ति है, जिसमें हिंसा की मात्रा कम है, किन्तु अहिंसा का भाग अधिक है, तो यह भी अहिंसा की साधना के क्षेत्र में आ जाता है। हिंसा और अहिंसा का केवल वर्तमान पक्ष ही नहीं, भविष्य पक्ष भी देखना आवश्यक है। यदि वर्तमान में हिंसा होती है, किन्तु उसके द्वारा भविष्य में अहिंसा की विपुल मात्रा परिलक्षित होती है, तो वह वर्तमान की हिंसा भी अहिंसा की साधक हो जाती है। इसके विपरीत यदि वर्तमान में अहिंसा अल्पमात्रा में है, किन्तु भविष्य में उससे प्रचुर मात्रा में हिंसा फूट पड़ने की स्थिति है, तो यह वर्तमान की क्षुद्र अहिंसा अहिंसा के साध ना क्षेत्र में नहीं आती है।
अहिंसा का सही रूप
गहराई से विचार करने पर हम देखते हैं कि हिंसा के दो रूप चल रहे होते हैं। एक लम्बी खूँखार हिंसा होती है और दूसरी, इस निर्दय एवं क्रूर हिंसा को रोकने के लिए एक छोटी हिंसा होती है। यहाँ यही विचारणीय है कि क्या हम दोनों को एक समान हिंसा कह सकते हैं? नहीं ! स्पष्ट है कि एक लम्बी हिंसा अर्थात् एक बहुत बड़ी हिंसा को को रोकने के लिए जो एक छोटी हिंसा होती है- भले ही इसमें प्रत्यक्षतः प्रचण्ड हिंसा क्यों न होती हो - वह हिंसा की एकान्त श्रेणी में नहीं आ सकती । कल्पना कीजिए, शरीर में एक जहरीला फोड़ा हो गया है। उस फोड़े को साफ करना है। यदि उसे साफ नहीं किया जाता है
78 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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