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हत्या कर देता है। अपेक्षा है, यदि इस अपराधवृत्ति को रोकना है, तो जनसंख्या की वृद्धि को सर्वप्रथम रोकना है। अन्यथा, सब धर्म, कर्म, सरकार और उनके कानून धरे के धरे रह जाएँगे ।
परिवार में एक दिन अतीत में देवी कही जाने वाली नारी मात्र भोग्य वस्तु बन गई है और बन गई है - अनर्गल बच्चे पैदा करने की जीवित मशीन । वह देवीत्व का अपना गौरव खो चुकी है। अधिक बच्चों के कारण उसने अपना देहिक स्वास्थ्य और सौंदर्य तो खोया ही है। मन का स्वास्थ्य और सौन्दर्य भी खो चुकी है, खोती जा रही है। जैनागम ज्ञातासूत्र की 'बहुपुत्तिया ' कथा - नारी के समान अधिक बच्चों के कारण खुद गन्दी रहती है, घर गन्दा रहता है, मोहल्ले और मोहल्लों की गलियां गंदी रहती है। साधारण परिवारों में, जिनकी ही संख्या अधिक है, बच्चों को न समय पर पौष्टिक भोजन मिलता है, न बीमारी होने पर ठीक तरह चिकित्सा हो पाती है। सरकारी रिपोर्ट है, अकेले भारत में 'ए' विटामिन से सम्बन्धित भोजन के अभाव में पाँच लाख के लगभग बच्चे हर वर्ष अंधे हो जाते हैं।
ज्यों-त्यों करके कुछ बड़े हुए कि इधर-उधर घरेलू कार्यों और होटलों में नौकरी के नाम पर मजदूर बन जाते हैं। ये बाल मजदूर, कानूनी अपराध होते हुए भी लाखों की संख्या में बेरहमी के साथ दिन-रात श्रम की चक्की में पिसते जा रहे हैं, और समय से पहले दम तोड़ देते हैं और कुछ उनमें से घृणित अपराध कर्मी बन जाते हैं। मैंने देखा है, तीर्थ-स्थानों में नन्हे नन्हे बच्चे भिखारी बने हैं और चन्द पैसों के लिए गिड़गिड़ाते हुए यात्रियों के पीछे-पीछे दूर तक दौड़ते रहते हैं। ये फटेहाल बच्चे, बच्चे क्या, जीवित नर कंकाल ही नजर आते हैं। दया आती है। इस दया ने कुछ काम भी किया है। पर... पर आखिर दया की एक सीमा है व्यक्ति की परिस्थिति में। और, अब तो यह दया की धारा भी सूखती जा रही है।
जब भरण-पोषण ही ठीक नहीं है, तो शिक्षा-दीक्षा तो एक स्वप्न है। कहाँ पढ़ें, पेट की पढ़ाई पूरी हो, तो आगे कुछ और हो । कितनी ही बार भीख मांगते बच्चों से पूछा है- तुम किसी स्कूल में पढ़ते क्यों नहीं? उत्तर मिला है - बाबा, क्या पढ़ें? हमें पढ़ाई नहीं खाना चाहिए खाना ! इसका समाधान है कुछ ? इतने अधिक स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों के होते हुए भी अनक्षर, अनपढ़,
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176 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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