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यही चोरी, डकैती, बटमारी, जेबकटी, छीना-झपटी आदि-आदि। इसके साथ ही हत्या, खूनखराबी। साधारण से दो-चार पैसों के लिए मारा-मारी। यह मारामारी अन्यत्र ही नहीं, परिवार में भी हो चली है। अपने ही रक्त से जन्मी संतानें माता-पिता तक की हत्याएँ कर देती हैं, यह खबर आम हो गई है। देश में हर तरफ गुण्डा-तत्त्व बढ़ता जा रहा है, मनुष्य अपनी पवित्र मानवता की तिलांजलि देकर क्रूर दानव बनता जा रहा है।
धर्म परम्पराओं ने काफी समय तक पाप और पुण्य, नरक और स्वर्ग आदि के उपदेशों से मनुष्य को नियंत्रित रखा है। मर भले ही जाएँ, किन्तु अन्याय का एक दाना भी खाना हराम है, पाप है। परन्तु आज ये उपदेश कुछ अपवादों को छोड़कर अपनी गुणवत्ता एवं अर्थवत्ता की पकड़ खो चुके हैं। वे स्वयं भी माया-जाल में फंस गए हैं। धर्मगुरु, धर्मगुरु नहीं, अर्थगुरु होते जा रहे हैं। अतः स्पष्ट है, संयम की लगाम, मनुष्य के बुभुक्षित पागल मन अश्व को कैसे लग सकती है।
माना कि कुछ अधिक भोगासक्ति भी इन अनाचारों की जननी है। परन्तु यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि पहले मनुष्य बहत अधिक अपेक्षित आवश्यकता की पूर्ति हेतु कुछ छोटी-मोटी गलतियाँ करता है। फिर धीरे-धीरे वे गलतियाँ जड पकड़ लेती हैं, मनुष्य के अन्तर्विवेक को समाप्त कर देती हैं, फलत: मनुष्य संवेदनशीलता से शून्य होकर कुछ का कुछ हो जाता है। और यह सब होता है-अनियंत्रित भीड के कारण। ठीक ही लोकोक्ति है 'जो भीड में जाए, वह भाड़ में जाए।' वस्तुतः युग की जनसंख्या की बढ़ती भीड़-भाड़ ही हो गई है। भाड़ यानि जलभुनने के लिए दहकती आग।
मनुष्य आखिर मनुष्य है। वह कीटाणु तो नहीं है। जो इधर-उधर ध ल-चाटकर, गन्दगी खाकर अपनी छोटी-सी जिन्दगी पूरी कर लेगा, और मर जायेगा, या मार दिया जाएगा। अधिक संख्या में बढ़ते कीटाणुओं के संहार की भी आये दिन सरकारी और गैर सरकारी योजनाएँ बन रही हैं, अधिकता तो कीटाणुओं की भी अपेक्षित नहीं है। इसी तरह मनुष्य की जनसंख्या की अनर्गल वृद्धि से जो एक तरह कीटाणु ही होता जा रहा है, वह विषाक्त कीटाणु। आज का मनुष्य अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है। प्रलोभनों का शिकार हो रहा है। और, इस तरह निरपराध अपनी ही जाति के, अपने ही निरपराध मानव भाई की
आज की एक महती अपेक्षा : परिवार नियोजन 175
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