________________
हुआ था। छेद सूत्र आदि आगम साहित्य एवं उनके भाष्य साहित्य में तथा अनेक जैन कथाओं में यत्र-तत्र उल्लिखित घटनाएँ इस बात की साक्षी हैं। उस समय साधु- संघ को किन परिस्थितियों में से गुजरना होता था, साधारण सी आवश्यकताओं के लिए भी क्या - क्या करना होता था, यह सब यदि कोई प्राचीन साहित्य पढ़े, तो उसे पता लगे । यही कारण है कि मकान की व्यवस्था सहज ही अनुकूल नहीं मिलती थी। अतः उस युग में शय्यातर का महत्व काफी बढ़ा चढ़ा था । और इस सम्बन्ध में शय्यातर से आहारादि न लेने आदि के अनेक नियमोपनियम बनाये गए थे। आज की स्थिति कहाँ थी तब ? वर्षावास के योग्य क्षेत्र मिलना कठिन था, क्षेत्र मिल भी जाता तो निर्दोष मकान मिलना मुश्किल था । तब साधु, आज की तरह पहले - महीनों पहले ही कहाँ वर्षावास की विनती मानता था ? और वह विनती होती भी कहाँ थी ? साधू अपने कल्पानुसार अप्रतिबद्ध विहार करता था पवन की तरह । विहार करते-करते जहाँ भी योग्य क्षेत्र मिलता, और तब वर्षावास का समय आ जाता तो वर्षावास कर लेता । जैन अजैन का प्रश्न नहीं था, प्रश्न था अनुकूलता का । यदि आषाढ़ पूर्णिमा को योग्य क्षेत्र मिल जाता तो वहीं वर्षावास कर लेता, यदि न मिलता तो आसपास या वहीं योग्य क्षेत्र एवं मकान आदि तलाश करता, और पाँच-पाँच दिन की वृद्धि के पूर्व निर्दिष्ट क्रम से जब भी मिलता, वर्षावास कर लेता । किन्तु गृहस्थों से अपने वर्षावास करने का कुछ जिक्र न करता । जिक्र करने में दोषों की संभावना जो रहती थी। अतः वर्षावास के दो रूप बने-एक गृहि - ज्ञात और दूसरा गृहि - अज्ञात । 3 आषाढ़ पूर्णिमा से शुरु होने वाला वर्षावास प्राय: अज्ञात ही होता था । प्रायः क्यों, यों कहिए, गृहस्थों से अज्ञात ही रखा जाता था । यदि साधु तभी अपने वर्षावास की निश्चित घोषणा कर दे, और वर्षावास गृहस्थों को ज्ञात हो जाए तो गृहस्थ साधु के द्वारा अवगृहीत मकान की सार संभाल के लिए आरम्भ करेंगे, जैसा कि पहले उद्धरण दे आए हैं। दूसरी बात यह होगी कि साधु का वर्षावास जानकर गृहस्थ वर्षा होने का अनुमान करेंगे, फलतः खेत जोतने - बोने और अपने मकान को आच्छादन करने आदि के उपक्रम में आरंभ समारंभ करेंगे। 14 अतः साधु चुप रहे, कुछ न कहे। पंच पंच दिन वृद्धि के क्रम से यावत् एक महीना बीस रात्रि बीतने पर वर्षावास गृहि ज्ञात भी हो जाए तो कोई आपत्ति नहीं। क्योंकि तब वर्षाएँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, अतः गृहिज्ञात होने पर न मकान आदि से सम्बन्धित आरंभ समारंभ की संभावना रहती है, और न अपने निमित्त से सुभिक्ष आदि जानकर गृहस्थों द्वारा
130. प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org