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कृषि आदि आरंभ करने की ही कोई स्थिति रहती है। यह सब काम बहुत पहले ही कर लिए गए होते हैं, अतः गृहस्थ के द्वारा संयम में स्वनिमित्तजन्य किसी भी दोष का काई प्रसंग नहीं आता। कितना अधिक संयम के प्रति सूक्ष्म लक्ष्य था तब के साधु को। आज यह स्थिति कहाँ है? अब तो वह अज्ञात ज्ञात हो जाता है, चौमास लगने से पहले ही दूर-दूर तक सुप्रसिद्ध हो जाता है। अखबारों में छप जाता है। चौमास की मंजूरी के लिए महीनों पहले ही बसों पर बसें और कारों पर कारें जो दौड़ती हैं। क्या इस स्थिति में कुछ अज्ञात रहता है? क्या सब व्यवस्थाएँ पहले से नहीं होती? क्या पहले से व्यवस्था के लिए लम्बे-चौड़े चन्दे चिठे नहीं किए जाते? फिर भी आज के संयमी निर्निमित्तक निर्दोष वर्षावास की कल्पना मन में लिए बैठे हैं तो यह आत्मवंचना नहीं तो क्या है? अतीत को वर्तमान की आँख से देखने वालों को तभी तो वह पर्युषण की विशुद्ध व्यवस्था, जिसका मैंने स्पष्टीकरण किया है, विचित्र सी लगती है। पर सत्य तो सत्य है। उसका अपना एक स्वरूप है। उसे कौन किस आँख से देखता है, इससे उसे क्या लेना देना है।
हाँ तो अपवाद उत्सर्ग केसे हो गया, इसकी चर्चा है। आषाढ़ पूर्णिमा का गृहि-अज्ञात पर्युषण अंततः वर्षा के 50 दिन बीतने पर गृहिज्ञात हो जाता है, अतः उस दिन की प्रसिद्धि स्वतः सिद्ध हो जाती है। उस युग की स्थिति के अनुसार, जैसी कि इतिहास से प्रमाणित है, अनुकूल मकान आदि प्रायः मिलते ही न थे, अतः अपवाद की दृष्टि से अपनाया जाने वाला यह भाद्रपद कालीन पर्युषण अधि क संख्या में होता रहा, और इस कारण अपवाद ही उत्सर्ग हो गया। और यह स्थिति भी आई कि साधु समाज का गृहस्थ समाज से अधिकाधिक संपर्क बढ़ता गया, श्रावक संघ व्यवस्थित रूप में काम करने लगे, साधु की सेवा का बहुत कुछ दायित्व गृहस्थों ने अपने ऊपर ले लिया, परिणामस्वरूप पर्युषण के दो खंड हो गए। अज्ञात जैसा कोई भेद रहा ही नहीं। पंच पंच दिन वृद्धि के पर्व दिन भी धीरे- धीरे लुप्त हो गए। बस पर्युषण के दो ही दिन रह गए, एक आषाढ़ पूर्णिमा
और दूसरा भादवा सुदी पंचमी। फलतः पर्युषण से संबंधित क्रियाकांड के भी दो भाग हो गए। वर्षाकाल में निवास रूप पर्युषण मूल रूप में आषाढ़ पूर्णिमा को बना रहा, और उसी से संबंधित केश लोच, पर्युषण कल्पसूत्र का वाचन तथा वार्षिक आलोचना-प्रतिक्रमण आदि पहले से ही गृहज्ञात के रूप में प्रसिद्धि पाए
पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 131
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