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साथ, उनकी अपनी दृष्टि में आपके इन नास्तिक साधुओं को प्रेम से अपने यहाँ ठहराते हैं एवं भिक्षा आदि भी देते हैं। परन्तु, आप लोग तो उन साधुओं को अपने उपाश्रयों में कहाँ ठहराते हैं? उनको तो क्या ठहराएँगे? अपने ही जैन - परम्परा के भिन्न विचार रखने वाले श्वेताम्बर - दिगम्बर मुनि तथा विचार क्रांति के पक्षधर स्थानकवासी मुनियों तक को भी नहीं ठहरने देते हैं।
मैं पूछता हूँ आपका अनेकान्त कहाँ है? वे वैष्णव आदि अन्य पक्ष उदार हैं या आप ? वे मानवतावादी हैं या आप ? मानवीय सभ्यता की कसौटी पर कौन खरा उतर रहा है? हृदय की सच्चाई से कुछ उत्तर है आपके पास ?
कुछ नहीं है, यह सब परिग्रहवाद और सम्प्रदायवाद के अहंकार का नग्न रूप है। इस बदलते युग में इन अहंकारों की आयु बहुत थोड़ी रह गई है। साधारण जन तो अपनी आँख रखता नहीं है, परन्तु मुझे आश्चर्य है, श्री एम. जे. देसाई जैसे विचारशील व्यक्ति भी जब इस तरह भिन्न विचार के और क्रान्तिशील साधु-साध्वियों को अपने अपाश्रय में न ठहरने देने का सगर्व अपने पत्र में दावा करते हैं। क्या वस्तुतः इस युग का यह शोभनीय आचरण है? आपके इस आग्रह से उनका तो अपना कुछ बनता - बिगड़ता नहीं है। स्पष्ट है, यह चोट उनके गौरव पर नहीं, आपके छोटे मन पर ही पड़ती है। अच्छी है, समय पर कुछ समझदारी से काम लिया जाए।
आगम, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि के विस्तृत अध्ययन पर से स्पष्ट है कि साधु को गाँव एवं नगर में रहना ही नहीं चाहिए। गाँव एवं नगर के बाहर वन, उद्यान (बाग), चैत्य, गुफा, देवमंदिर आदि में ठहरना उचित है। यदि अपवादवश कभी ठहरना ही हो, तो गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक ही ठहरा जा सकता है। यह विधान केवल जैन-आचार - शास्त्र का ही नहीं है, अन्य वैदिक आदि परम्परा के साधुओं के लिए उनके धर्म - शास्त्रों में ऐसा ही उल्लेख है। महर्षि पतञ्जलि, अन्य धर्म - सूत्रकारों एवं स्मृतिकारों ने स्पष्ट उल्लेख किया दूर क्यों जाएँ? जब स्वामी विवेकानन्दजी बेलगाँव में श्री हरिपद मित्र के यहाँ ठहरे थे, तब उनके द्वारा अधिक ठहरने का आग्रह करने पर 20 अक्टूबर 1892 को स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें स्पष्टतः कहा था - " सन्यासियों को नगर में तीन दिन और गाँव में एक दिन से अधिक ठहरना उचित नहीं है।" यह स्पष्टतः उल्लेख-श्री रामकृष्ण आश्रम, नागपुर - 2 से प्रकाशित "विवेकानन्दजी की कथाएँ"
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172 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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