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________________ गिर पड़े फिर भी टांग ऊँची। कमाल है, इस दुःसाहस का। इन सबके लिए उपाश्रय के द्वार खुले हैं। जबकि इन लोगों में कुछ तो वे लोग भी है, जिनकी चारित्रहीनता की भद्र कथाएँ समाचार पत्रों के पृष्ठों तक भी पहुंच चुकी है, फिर भी वे पूज्य है, इसलिए कि वे सम्प्रदाय में हैं। सम्प्रदाय के घेरे में, बाड़े में बन्द यदि धर्म प्रचारार्थ आदि की दृष्टि से तथा युगानुरूप सामाजिक चेतना की लक्ष्यता से उपयोगी परिवर्तन के कुछ प्रयोग कर लेते हैं, तो इनकी नजरों में धर्म का सत्यानाश हो जाता है। आज के स्थानक क्या है? मल-मूत्र आदि के अशास्त्रीय परिष्ठापन के गन्दगी के केन्द्र बन रहे हैं। इसलिए बम्बई आदि महानगरों के नये बन रहे उपनगरों में अन्य लोग स्थानक-उपाश्रय नहीं बनने दे रहे हैं। चूँकि साधु-साध्वी उपाश्रयों के द्वारा गन्दगी फैलाते हैं। यह समाचार यूँ ही हवा में नहीं फैला है। बम्बई से प्रकाशित गुजराती जैन प्रकाश में आ चुका है। __और फिर, कहने को स्थानकवासी समाज जड़ पूजा का विरोधी है। परन्तु ईंट-पत्थर के बने जड़ मकान, जिसे स्थानक कहते हैं, उसकी पवित्रता में विक्षिप्त है। और यह पवित्रता, वह पवित्रता भी है, जिनमें उत्सव-प्रसंगों पर गो-मांस-भक्षी तक मांसाहारी और मद्यपायी सादर निमंत्रित किए जाते हैं तथा एक-दूसरे से बढ़कर सत्कार-सम्मान भी पाते हैं। एक बात और बता दूँ-सच्चे निर्ग्रन्थ साधुओं को तो ऐसे उपाश्रयों में ठहरना ही नहीं चाहिए। क्योंकि वे साधुओं के लिए औद्येशिक हैं। कितना ही झुठलाने का प्रयत्न किया जाए, स्पष्ट है कि साधुओं के निमित्त ही इनका निर्माण होता है और अनेक जगह तो चन्दा आदि एकत्रित कराकर साक्षत् साधु ही बनवाते हैं। सिद्धान्त-दृष्टि से ये साधु अनाचारी हैं। बात कड़वी है, किन्तु सत्य तो सत्य है। भले ही वह कड़वा हो या मीट्ठा। जैन समाज का यह दुराग्रह कभी रंग ला सकता है। विहारकाल में जैन-साधु वैष्णव आदि सम्प्रदायों के मठों, मन्दिरों आश्रमों, रामद्वारों तथा गुरुद्वारों आदि में ठहरते है। और वे ठहराते भी हैं, जबकि वे स्पष्टतः जैन-धर्म और जैन-साधुओं को नास्तिक समझते है। और आप उन्हें मिथ्या-दृष्टि मानते हैं। पारम्परिक विचार विरोध का कितना अनन्त अन्तराल है। फिर भी वे सम्मान के यह एक नया पागलपन 171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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