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वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयम्।" आदि के द्वारा स्पष्ट किया है और स्थानांग की टीका में 'एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्ततिदिनानि.....वसनं' के द्वारा जघन्य वर्षावास 70 दिन का बताकर अपवाद स्थिति का उल्लेख किया है। स्थानांग सूत्र के गुजराथी तथा हिन्दी टब्बों में भी यही वर्णन है।
मैं यहाँ अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहता। इतने पर से ही विचारशील पाठक समझ सकते है कि पर्युषण की वास्तविक स्थिति क्या है? वह कब करना चाहिए और क्यों करना चाहिए? समान्यतः वह आषाढ़ पूर्णिमा को होना चाहिए। यह उत्सर्ग है। यदि वर्षा में रहने के योग्य उचित क्षेत्र व मकान आदि की व्यवस्था न हो, जैसा कि पहले स्पष्टीकरण कर आए हैं, तब पाँच-पाँच दिन की वृद्धि करते हुए अन्त में एक महीना बीस रात्रि के बाद पर्युषण करना, वर्षावास की निश्चित स्थापना करना, आवश्यक है। यह अपवाद है। पाठक देख सकते हैं, यह प्राचीन परम्परा कुछ समय से किस प्रकार उलट गई है। आज अपवाद उत्सर्ग हो गया है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पर्युषण की बात चौका देने वाली है। जिसने कभी प्राचीन साहित्य का तटस्थ अध्ययन नहीं किया है वह तो यह सब पढ़कर बौखला ही जाएगा, क्योंकि उसे यह पता नहीं कि हम पहले क्या करते थे? और उस शुद्ध परम्परा को छोड़कर अब क्या कर रहे हैं? यही कारण है कि आज जब कभी चातुर्मास में श्रावण या भादवे का महीना बढता है, तो संघ में तूफान आ जाता है। अपनी-अपनी परम्परा की प्रचलित मान्यताओं को लेकर एक बेतुका शोर मचने लगता है और अपने को शास्त्र मर्यादा के अनुकूल तथा दूसरों को उसके प्रतिकूल बताने की होड़ लग जाती है। बहुतों का तो धर्म ही खतरे में पड़ जाता है। संघ संगठन की दृष्टि से यदि कोई एक मान्यता प्रस्तावित हो जाती है तो उसे भी तोड़ने को तैयार हो जाते हैं, और इसके लिए कहते हैं कि यदि हमने अपनी पुरानी शास्त्रीय परम्परा के अनुसार पुर्यषण नहीं किया तो हम भगवान की आज्ञा के विराधक हो जाएँगे, हमें प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ेगा।
मैं उन सब महानुभावों के समक्ष एक नम्र निवेदन करना चाहता हूँ कि आप भूल में हैं। यदि आप बदलती हुई नयी परम्पराओं को मानने के लिए तैयार नहीं हैं, केवल प्राचीन परम्पराओं के ही पक्षधर हैं, तो प्राचीन परंपरा आप सबके लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान करती है। बात जरा कड़वी है, पर सत्य के लिए सिद्धान्त की मूल स्थिति को तो स्पष्ट करना ही होगा।
पर्युषण और केशलोच 147
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