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________________ श्री देवर्द्धि गणी बहुत बाद के आचार्य हैं, वे कोई विशिष्ट ज्ञानी नहीं थे, जो भूल न कर सके हों। अन्य आचार्य भी, जो उपांग आदि के निर्माता हैं, वे भी छद्मस्थ थे, अपने आस-पास की प्रचलित मान्यताओं से प्रभावित थे। तब यह कैसे दावा किया जा सकता है कि उनसे कोई भूल हो नहीं सकती। उपासक दशा सूत्र के अनुसार जब चार ज्ञान और चौदह पूर्व के धर्ता गौतम जैसे महान् गणधर आनन्द श्रावक के यहाँ भूल कर सकते हैं। भूल के लिए सत्यता का हठ पकड़ सकते हैं, तो फिर देवर्द्धि जैसे आचार्यों की तो बात ही क्या है? सत्य सत्य है, उसे मुँहफट होकर झुठलाते रहने से कोई लाभ नहीं है। हम पीछे के छद्मस्थ आचार्यों को व्यर्थ ही शास्त्र-मोह में आकर सर्वज्ञ न बनाएँ! वर्तमान आगमों में अनेक असंगत, जैन परम्परा के विरुद्ध तथा अश्लील उल्लेख हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि इनका अक्षर-अक्षर भगवान् का कहा हुआ नहीं है। भगवान् का तो वही कहा हुआ है, जो आध्यात्मिक जीवन के विकास का उपदेश है, जिसमें वीतराग साधना का स्वर है। इसके अतिरिक्त इधर-उधर के भौतिक वर्णन, भोगविलास के उल्लेख वीतराग का कहा हुआ बताना, वीतराग का अपमान है। श्रद्धेय समर्थमलजी महाराज ने चन्द्र-प्रज्ञप्ति के मांस-प्रकरण को जोध पुर-चर्चा के समय प्रक्षिप्त माना था। 32 सूत्रों में केवल वही एक पाठ प्रक्षिप्त है या और भी हैं, स्पष्ट हाँ या ना में बहुश्रुतजी को सार्वजनिक रूप से उद्घोषित कर देना चाहिए। पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने भी जिनवाणी पत्रिका में लिखा है कि "अर्ध मागधी या संस्कृत भाषा में होने मात्र से कोई शास्त्र आप्त वाणी या वीतराग वचन नहीं हो सकते, सत् शास्त्र ही मानव की इस निष्ठा का पात्र बन सकता है-मई, 1969। शास्त्र की कई एक बातें समझ के परे हों और यह भी संभव है कि कुछ प्रत्यक्ष के विरुद्ध भी प्रतीत हों। .... मानव जाति ने विश्व के विविध परिवर्तन देखे हैं। शास्त्रीय पुस्तकों में भी परिवर्तन आया हो, यह संभव है-जुलाई, 19691 अक्षर-अक्षर का एकान्त आग्रह हमें भी नहीं है, न किसी अन्य आगम प्रेमियों को। हम मानते हैं कि शास्त्रों में कुछ प्रक्षेप भी हुआ है और परिवर्तन भी-सितम्बर, 1969।" उनके अपने ही शब्दों में शास्त्र और परम्परा के समर्थक पूज्य श्री भी इस प्रकार अमुक अंशों में मेरे ही विचार-पथ के राही हैं। मैं इस पथ का अकेला यात्री कहा हूँ। 38 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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