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श्री डोशीजी के महान् अवलम्बन श्री प्रभुदास भाई भी लिखते हैं-"जैन शास्त्रों मां गमे तेटलुं मिश्रण थयुं होय, उथल-पुथल थई होय...." सम्यग्दर्शन 5/8/19691
स्वयं श्री डोशीजी भी जो अपने को शास्त्रों का बहुत बड़ा श्रद्धालु उद्घोषित करते रहते हैं, शास्त्रों के अक्षर-अक्षर को भगवद्वाणी नहीं मानते हैं। सम्यग् दर्शन, 5 सितम्बर 1969 में वे लिखते हैं-"दो भिन्न सूत्रों (उनका अभिप्राय चन्द्र-प्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति से है) के प्रारंभिक अंश के अतिरिक्त सारा विषय एक समान ही क्यों है? ... इन दोनों प्रज्ञप्तियों आदि का धार्मिक विषय से क्या सम्बन्ध है?.. जब ब्यावर में आगम संशोधन का कार्य प्रारंभ हुआ था तब स्व. श्री धीरज भाई के पत्र के उत्तर में मैंने कुछ सूत्रों का प्रकाशन नहीं करने की बात भी बताई थी।' जिनमें से प्रज्ञप्तियाँ भी थी।"
सम्यग् दर्शन, 20 सितम्बर 1969 में तो डोशीजी इस सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट हो गए हैं-"यह ठीक है कि हमारे आगम पूर्ण रूप से वैसे नहीं रहे जैसे कि गणधर महाराज द्वारा रचे गये थे। प्रथम बार लिपिबद्ध हुए तब भी उनमें संकोच हुआ और पाठ भेद भी उत्पन्न हुए। वाचनाओं में भी भेद रहा। इसके बाद विभिन्न लिपिकारों से दृष्टि दोष, असावधानी आदि से भी कहीं कुछ परिवर्तन हुए होंगे और किसी-किसी ने जानबुझ कर भी परिवर्तन किये होंगे। हो सकता है कहीं किसी आचार्य कृत-ग्रन्थ का पाठ भी किसी ने प्रकरणानुकूल मान कर जोड़ दिया हो....।"
बात-बात पर शास्त्र श्रद्धा पुकार करने वाले डोशीजी की शास्त्रों के संबंध में क्या धारणा है, यह ऊपर उन्हीं की पक्तियों में स्पष्ट है। आश्चर्य है, ये लोग किस मुँह से मेरी आलोचना करते है? जो मैं कहता हूँ, वह ही ये लोग भी तो कहते हैं। फिर निन्दा और दुष्प्रचार किस बात का? क्या इसका यह अर्थ तो नहीं कि हम कहते हैं वह तो ठीक है। और यदि वही बात कोई दूसरा कहता है तो वह गलत है। मालूम होता है-मन में सफाई नहीं है। मन में पड़ी दुराग्रह की गाँठे अभी खुली नहीं हैं।
वर्तमान की बात नहीं है। शास्त्रों में प्रक्षेप एवं परिवर्तन के सम्बन्ध में प्राचीन काल के नवांगीवृत्तिकार आचार्य अभयदेव ने भी प्रश्न व्याकरण आदि
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 39
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