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________________ पर्युषण कब और क्यों? पर्युषण के समय जो लोच किया जाता है, वह कब करना चाहिए? यह प्रश्न गहराई से विचार करने जैसा है। बात यह है कि आजकल जो परंपरा है वह और है, और प्राचीन काल में जो परम्परा थी वह कुछ और थी। मनुष्य वर्तमान काल में जिस परंपरा का पालन करता है, वह उससे इतना चिपट जाता है कि अतीत की परंपरा को भूल जाता है। वर्तमान परंपरा को ही अनादि काल की परंपरा समझने लगता है। यदि कोई उससे भिन्न कुछ कहता है या करता है, तो वह सत्य की मूल स्थिति को समझने एवं स्वीकार करने से इन्कार कर देता है, और व्यर्थ ही लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जाता है। लोच कब करना चाहिए, इससे पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि पर्युषण कब करना चाहिए? पर्युषण के काल पर ही पर्युषण संबंधी लोच का काल आधारित है। आजकल की मान्यता के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास बीस रात्रि बीत जाने पर भादवा सुदी पंचमी को पुर्यषण (संवत्सरी) किया जाता है। परंतु यह अपवाद है, उत्सर्ग नहीं। प्राचीन काल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को होता था। पर्युषण का मूल अर्थ वर्षावास है। वर्षावास का अर्थ है-वर्षा में आवास करना, एक स्थान पर रहना। निशीथ भाष्य में पज्जोसवणा के जो आठ पर्यायवाचक नाम दिए हैं, उनमें एक 'वर्षावास' पर्याय भी है। समवायांग सूत्र के 70 वें समवाय में भी पर्युषण के लिए 'वासावासं पज्जोसवेइ' पाठ है। इस पर से स्पष्ट हो जाता है कि पर्युषण वर्षावास है। मंगसिर बदी प्रतिपदा के दिन से आठ मास विहार चर्या में भ्रमण करने के बाद चार महीने तक वर्षावास के लिए, जैनभिक्षु, आषाढ़ पूर्णिमा को एक स्थान पर ठहर जाता है। वर्षाकाल में प्रायः निरंतर घटाएँ छार्यां रहती हैं, जब तब पानी बरसता रहता है, इधर-उधर आने-जाने के पथ खराब हो जाते हैं, पथ में नदी और नाले उमड़ पड़ते हैं, हरितकाय मैदानों और मार्गों में फैल जाता है, जीवजंतु बहुत पैदा हो जाते हैं, अतः पर-विराधना एवं आत्म-विराधना से बचने के लिए वर्षाकाल में भिक्षु के लिए एकत्र वास का विधान किया गया है। वर्षा यदि जल्दी शुरू हो जाए तो पहले भी आकर ठहर सकता है, आषाढ़ पूर्णिमा को तो ठहर ही जाना चाहिए। यह पर्युषण का उत्सर्ग नियम है। पर्युषण अर्थात् संवत्सरी पर्व वार्षिक प्रतिक्रमण का दिन है। वर्ष का पर्युषण पर्व और केशलोच 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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