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________________ दिशा के उग्र विचारकों ने धर्म को एक मादक अफीम करार दिया है। पाखंड और असत्य का प्रतिनिधि बता दिया है। यदि हम संतुलित होकर समझने-सोचने का प्रयत्न करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि तथाकथित धर्मग्रन्थों की मान्यता के साथ विज्ञान के अनुसंध न क्यों टकरा रहे है? इस संदर्भ में दो बातें हमें समझनी होंगी-पहली यह कि शास्त्र की परिभाषा क्या है, उसका प्रयोजन और प्रतिपाद्य क्या है? और दूसरी यह कि शास्त्र के नाम पर चले आ रहे प्रत्येक ग्रन्थ, स्मृति, पुराण और अन्य संदर्भ पुस्तकों को अक्षरशः सत्य माने या नहीं? ग्रंथ और शास्त्र में भेद है पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि शास्त्र एक बहु पवित्र एवं व्यापक शब्द है, इसकी तुलना में ग्रंथ का महत्त्व बहुत कम है। यद्यपि शब्दकोष की दृष्टि से ग्रंथ और शास्त्र को पर्यायवाची शब्द माना गया है, किंतु व्याकरण की दृष्टि से ऐसा नहीं माना जा सकता, उनके अर्थ में अवश्य ही मौलिक अंतर रहता है। शास्त्र और ग्रंथ को भी मैं इस प्रकार दो अलग-अलग शब्द मानता हूँ। शास्त्र का संबंध अंतर से है, सत्यं शिवं सुन्दरम् की साक्षात् अनुभूति से है, स्व-पर कल्याण की मति-गति-कृति से है, जबकि ग्रन्थ के साथ ऐसा नियम नहीं है। शास्त्र सत्य के साक्षात् दर्शन एवं आचरण का उपदेष्टा होता है, जबकि ग्रन्थ इस तथ्य के लिए प्रतिनियत नहीं है। शास्त्र और ग्रंथ के संबंध में यह विवेक यदि हमारी बुद्धि में जग गया तो फिर विज्ञान और अध्यात्म में, विज्ञान और धर्म में तथा विज्ञान और शास्त्र में कोई टकराहट नहीं होगी, कोई किसी को असत्य एवं सर्वनाशी सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करेगा। धर्मग्रन्थों के प्रति, चाहे वे जैन सूत्र हैं, चाहे स्मृति और पुराण हैं, आज के बुद्धिवादी वर्ग में एक उपहास की भावना बन चुकी है, और सामान्य-श्रद्धालु वर्ग में उनके प्रति अनास्था पैदा हो रही है-इसका कारण यही है कि हमने शास्त्र की मूल मर्यादाओं को नहीं समझा, ग्रंथ का अर्थ नहीं समझा और संस्कृत, प्राकृत में जो भी कोई प्राचीन कहा जानेवाला ग्रंथ मिला, उसे शास्त्र मान बैठे, भगवद्वाणी मान बैठे, और गले से खूब कसकर बाँध लिया कि यह हमारा धर्मग्रंथ है, यह ध्रुव सत्य है, इसके विपरीत जो कुछ भी कोई कहता है, वह झूठ है, गलत है। 12 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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