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मानव चेतना को विकसित, निर्भय वह निर्द्वन्द्व बनाने की दृष्टि अध्यात्म के पास है। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों का कब, कैसे, कितना और किसलिए उपयोग करना चाहिए, इसका निर्णय अध्यात्म देता है, वह भौतिक प्रगति को विवेक की आँख देता है-फिर कैसे कोई विज्ञान और अध्यात्म को विरोधी मान सकता है?
हमारा प्रस्तुत जीवन केवल आत्ममुखी होकर नहीं टिक सकता, और न केवल बहिर्मुखी ही रह सकता है। जीवन की दो धाराएँ हैं, एक बहिरंग, दूसरी अंतरंग। दोनों धाराओं को साथ लेकर चलना, यही तो जीवन की अखंडता है। बहिरंग जीवन में विशृंखलता नहीं आये, द्वंद्व नहीं आये, इसके लिए अंतरंग जीवन की दृष्टि अपेक्षित है। अंतरंग जीवन आहार-विहार आदि के रूप में बहिरंग से, शरीर आदि से, सर्वथा निरपेक्ष रहकर चल नहीं सकता, इसलिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। भौतिक और आध्यात्मिक सर्वथा निरपेक्ष दो अलग-अलग खंड नहीं हो सकते, बल्कि दोनों को अमुक स्थिति एवं मात्रा में साथ लेकर ही चला जा सकता है, तभी जीवन सुंदर, उपयोगी एवं सुखी रह सकता है। इस दृष्टि से मैं सोचता हूँ तो लगता है-अध्यात्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान दोनों ही जीवन के अंग हैं, फिर इनमें विरोध और द्वंद्व की बात क्या रह जाती है? यही आज का मुख्य प्रश्न है ! शास्त्र बनाम ग्रन्थ
जैसा मैंने आपसे कहा-भौतिक विज्ञान के कुछ भूगोल-खगोल संबंधी अनुसंधानों के कारण धर्मग्रन्थों की कुछ मान्यताएँ आज टकरा रही हैं, वे असत्य सिद्ध हो रही हैं, और उन ग्रंथों पर विश्वास करने वाला वर्ग लड़खड़ा रहा है, अनास्था से जूझ रहा है। सैकड़ों वर्षों से चले आये ग्रन्थों और उनके प्रमाणों को एक क्षण में कैसे अस्वीकार कर लें और कैसे विज्ञान के प्रत्यक्ष सिद्ध तथ्यों को झुठलाने का दुस्साहस कर लें। बस, यह वैचारिक प्रतिद्वंद्विता का संघर्ष ही आज धार्मिक मानस में उथल-पुथल मचाए जा रहा है। जहाँ-जहाँ परंपरागत वैचारिक प्रतिबद्धता, तर्कहीन विश्वासों की जड़ता विजयी हो रही है, वहाँ-वहाँ विज्ञान को असत्य, भ्रामक और सर्वनाशी कहने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं है। मैं समझता हूँ, इसी भ्रांति के कारण विज्ञान को धर्म का विरोधी एवं प्रतिद्वंद्वी मान लिया गया है और धार्मिकों की इसी अंधप्रतिबद्धता एवं नफरत के उत्तर में नई
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 11
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