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________________ नहीं है, या अन्य कोई विशिष्ट कारण है, तो लोच नहीं भी किया जा सकता है। उक्त अपवाद की स्थिति में अन्तरंग की साधुता, जो वीतराग भावना पर आधारित है, नष्ट नहीं हो जाती। यह नहीं कि लोच न करने पर साधु अपने छठे गुण स्थान आदि की साधुत्व-भूमिका से नीचे गिर जाए। मुनि दीक्षा से पहले लोच करना आवश्यक है प्रचलित संघीय व्यवस्था में। परन्तु भरत चक्रवर्ती और माता मरुदेवी आदि जब गुणस्थानों की विकास भूमिका पर अग्रसर हुए तो उन्हें बिना लोच किए ही साधुत्व की भूमिका प्राप्त हुई और केवलज्ञान भी प्राप्त हुआ। बाहुबली एक वर्ष तक ध्यान में खड़े रहे, उन्होंने पर्युषण काल में या अन्य काल में कहाँ लोच किया? भगवान महावीर आदि जब ध्यानमुद्रा में होते थे, तो कहाँ लोच करते थे? स्थूलभद्र के युग में सिंह गुफावासी आदि मुनि, जो वर्षावास ध्यानावस्थित रहे, उन्होंने कब लोच किया? भगवान् ऋषभदेव ने जब दीक्षा ली तो पंचमुष्टि लोच की जगह चतुर्मुष्टिः लोच किया और मस्तक पर एक खासी अच्छी लम्बी शिखा रहने दी। यह कैसे हुआ? यदि लोच का रूप ऐकान्तिक एकरूपता का ही होता तो भगवान् ऐसा नहीं कर सकते थे। कल्पसूत्र में वह उल्लेख आज भी उपलब्ध है-'सयमेव चउमुट्ठियं लोयं करेइ-9 ऋषभ चरित्राधिकार। भगवान् महावीर ने पंचमुष्टि के रूप में पूर्ण केश लोच किया है, जबकि भगवान् ऋषभदेव ने पूर्ण केश लोच नहीं किया। यह भेद स्पष्ट बताता है कि लोच का सम्बन्ध जितना बदलती हुई संघीय व्यवस्था से है, उतना आध्यात्मिक सनातन साधना से नहीं। अतः परिस्थिति विशेष में यदि कोई लोच नहीं कर सकता है तो इस का यह अर्थ नहीं कि वह साधुत्व भाव से भ्रष्ट हो जाता है। जो दर्शन गृहस्थ जीवन में भी भावविशुद्धि का प्रकर्ष होते ही कैवल्य एवं निर्वाण होने की स्थापना करता है, बन्धन मुक्त होने की बात कहता है, वह यह कैसे कह सकता है कि लोच के बिना धर्म नहीं हो सकता, आत्मविशुद्धि नहीं हो सकती। साधुत्व नहीं रह सकता। जैनधर्म में भाव महान् है, द्रव्य नहीं, अंतरंग महान् है, बहिरंग नहीं। संघ परंपरा की दृष्टि से लोच का महत्त्व है। यदि कोई विशिष्ट कारण न हो तो वह समय पर अवश्य करणीय है। कब और किस स्थिति में करणीय है, और क्यों करणीय है? कब और किस परिस्थिति में अकरणीय है? इस पर प्रस्तुत लेख में तटस्थ दृष्टि से विचार चर्चा उपस्थित की गई है। आशा है, सुधी जन इस पर अनाग्रह भाव से मुक्त चिन्तन पर्युषण और केशलोच 151 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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