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वह स्पष्ट सूचना देता है कि केश लोच आषाढ़ पूर्णिमा के दिन से ही प्रतिदिन प्रारंभ कर देना चाहिए। यदि अशक्त भिक्षु लोच न कर सके तो उसे क्षुरमुंडन आदि ही करा लेना चाहिए। अपवाद स्थिति को छोड़कर आषाढ़ पूर्णिमा के प्रतिक्रमण से पहले शिर पर बाल, किसी भी हालत में नहीं रहने चाहिए। यदि कोई रखता है तो वह निशीथ सूत्र के अनुसार गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
वर्तमान परंपरा उपर्युक्त प्राचीन परंपरा के सर्वथा विपरीत है। अब तो वर्षा के भरे पूरे महीने (श्रावण और भादवा) शिर पर सघन बालों को रखे हुए ही बीत जाते हैं, वर्षा का पानी बालों में पड़ता रहता है और अप्काय आदि की विराधना चालू रहती है, और उक्त दोषों के कारण निशीथ सूत्रानुसार प्रायश्चित्त का प्रसंग उपस्थित रहता है और जब वर्षा का मौसम समाप्त होने को होता है, तब लोच किया जाता है। कितनी बड़ी असंगति है इसमें ! वर्तमान परंपरा तो पर्युषण सम्बन्धी लोच के मूल उद्देश्य एवं आधार को ही समाप्त कर देती है। जब प्राचीन ग्रन्थों की परंपरा के अनुसार लोच का हेतु ही नहीं रहा, तब असमय में लोच करने का क्या अर्थ रह जाता है? देशकालानुसार बदलती हुई छोटी-मोटी नगण्य बातों के विरोध में शास्त्र तथा प्राचीन परंपरा के नाम पर क्षुब्ध होने वाले हमारे परम्परा भीरु मुनिराजों को चाहिए कि वे पक्षातीत हृदय से उपर्युक्त शास्त्रविहित प्राचीन परंपरा को अपनाएँ, और अपनी चिरागत भूल का शास्त्रमर्यादा के प्रकाश में उचित संशोधन करें। लोच न करने पर क्या साधुता नहीं रहती?
साधना के दो रूप हैं-एक निश्चय और दूसरा व्यवहार। निश्चय अन्तर् की स्थिति है और वह वीतरागता और समभाव। मूल साधन यही है। व्यवहार बाहर के नियमोपनियम हैं, संघीय व्यवस्थाएँ हैं। निश्चय नहीं बदलता, व्यवहार बदलता रहता है। व्यवहार का आधार देश है, काल है, व्यक्ति है और व्यक्ति की परिस्थिति है। देश, काल आदि शाश्वत नहीं हैं, बदलते रहते हैं। और जब ये बदलते हैं, तो इनके आधार पर गठित व्यवहार भी बदल जाता है। लोच निश्चय नहीं, व्यवहार है। यह अमुक स्थितियों में की गई संघीय व्यवस्था बहुत प्राचीन है। सबके लिए परिपालन करने योग्य है। परन्तु किसी साधक की शारीरिक स्थिति अनुकूल नहीं है, वह लोच या क्षुरमुंडन आदि कराने की भी स्थिति में
___150 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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