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________________ केश- लोच से बढ़कर भी अत्यन्त घोर देह - पीड़न करते देखे गए हैं, आध्यात्मिक मूल्य क्या है? कुछ भी तो नहीं "जन- मन- रंजन धर्मनुं, मोल न एक छदाम ” क्या समाज ऐसे भिक्षुओं से अपरिचित है, जो बाहर में बराबर समय पर केश- लोच करते रहते हैं और अन्दर में मन चाहे गुलछर्रे उड़ाते हैं। साधुत्व तो क्या, नैतिक जीवन भी उनका ठीक नहीं होता । और, कुछ तो ऐसे भी हैं, जो दाढ़ी आदि का लोच श्रृंगार की दृष्टि से भी करते रहते हैं। उन्हें ठोड़ी पर बढ़े हुए बाल अच्छे नहीं लगते हैं। अतः दाढ़ी का लोच जल्दी-जल्दी किया जाता है । क्या, ऐसे लोगों का केश- लोच जैन-साधना की कोटि में आता है ? नहीं आता है। बाह्य तप केवल बाह्य नहीं है, उसका कोई भी बाह्य हेतु नहीं है। वह तो अन्तरंग - तप की अभिवृद्धि के लिए होता है - तभी वह तप है, अन्यथा नहीं " बाह्यं तपः परम दुश्वरमाचरस्त्वम् । आध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहणार्थम् || " - आचार्य समन्तभद्र मैं केश- लोच के महत्त्व को भौतिक आकांक्षाओं के निम्न स्तर पर उतारना ठीक नहीं समझता। भोजन, वस्त्र, मकान आदि कुछ सुविधाएँ मिले या न मिले, बाह्य प्रतिष्ठा, शोभा की दृष्टि से लोगों को अच्छा लगे या न लगे साध क को इस आधार पर अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय नहीं करना है। सच्चे साध क का, जो भी निर्णय होता है, वह एक मात्र आध्यात्मिक - विकास को ध्यान में रख कर होता है। धर्म - साधना की आत्मा, आत्म- रमणता है, अन्य नहीं । दीक्षाकालीन केश - लोच केश- लोच के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर और भी लम्बी चर्चा की जा सकती है। परन्तु, प्रस्तुत में मुझे केश - लोच के संदर्भ में वह चर्चा करनी है, जो अत्यावश्यक है। दुर्भाग्य से केश - लोच की वह परम्परा आज विलुप्त हो चुकी है, जो कभी साधक के जागृत वैराग्य की उज्ज्वल प्रतीक थी, देहातीत - भाव की एक निर्मल अध्यात्म - ज्योति थी । परन्तु उसका प्राचीन काल में, जब भी कोई स्त्री या पुरुष प्रव्रज्या ग्रहण करता था, मुनिधर्म की दीक्षा लेता था, तो अपना केश- लोच भी स्वयं करता था । देह - भाव शास्त्रीय विचार चर्चा : दीक्षाकालीन केशलोचः कहाँ गायब हो गया ? 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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