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से ऊँचे उठे हुए साधक का यह अन्तर्नाद था, जो उपस्थित जन - समाज में वैराग्य - भावना की एक तीव्र लहर पैदा कर देता था। यह दीक्षाकालीन केश - लोच साधक स्वयं करता था, किसी अन्य से नहीं करवाता था। आज की तरह यह नाटक नहीं होता था कि नाई से सिर के बाल मुंडवा लिए, सिर्फ चोटी के रूप में दो-चार बाल रख छोड़े और दीक्षादाता गुरुजी ने जनता के समक्ष उन्हें राख की चुटकी से उखाड़ कर केश- लोच की रस्म अदा कर दी। जय-जयकार हो गया और भक्तजन - बाल - ग्रहण करने हेतु ऊपर - तले गिरने पड़ने लगे। उस युग में ऐसा दिखावा नहीं था। साधक स्वयं अपने हाथों से पंचमुष्टि लोच करता था और विवेक मूलक दृढ़ता के साथ साधना - पथ पर चल पड़ता था ।
श्रमण भगवान् महावीर दीक्षित होते समय अपने हाथों से केश-लोच करते हैं। भगवती मल्ली ( भगवान् मल्लीनाथ ) भी स्वयं केश - लुंचन करते हैं । " भगवान् ऋषभदेव और नेमिनाथ तथा अन्य तीर्थंकर भी स्वयं केश - लोच करते हैं।" तीर्थंकर ही नहीं, अन्य साधारण साधक भी ऐसा ही करते हैं। ऋषभदत्त ब्राह्मण', शिवराजर्षि परिव्राजक ", महाबलकुमार 2, मेघकुमार 3, पोटिला 14, काली' 5, सुभद्रा", राजीमति ", ? आदि अनेक भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ दीक्षा - काल में स्वयं केश - लुंचन कर के दीक्षित - प्रव्रजित होते हैं। सर्वत्र 'सयमेव' लोच करने का शब्दोल्लेख है, जिसे कोई भी जिज्ञासु आगमों में यथास्थान देख सकता है। दीक्षा - काल और नाई
दीक्षाकालीन केश- लोच की यथा प्रसंग चर्चा चलने पर कुछ साधुओं तथा श्रावकों द्वारा नाई की बात की जाती है। कहा जाता है, कि वर्तमान में नाई के द्वारा बाल कटाने की प्रथा प्राचीन युग से चली आ रही है। प्राचीन युग में भी नाई बुलाया जाता था और वह दीक्षार्थी के बालों का मुण्डन कर देता था । अतः दीक्षा - काल में केश- लोच आवश्यक नहीं है। इसके लिए मेघकुमार आदि के उदाहरण दिए जाते हैं। परन्तु, यह कथन सत्य पर आधारित नहीं है। प्राचीन युग में स्त्रियों के समान पुरुष भी सिर पर लम्बे केश रखते थे, कटवाते नहीं थे, जैसा कि आजकल भी राम - कृष्ण आदि महापुरुषों के चित्रों में देखा जा सकता है। अस्तु, दीक्षा लेते समय नाई चार अंगुल छोड़ कर लम्बे बालों को काट देता था, जिससे कि वे केश - लुंचन के योग्य स्थिति में आ जाएँ । तत्पश्चात् दीक्षार्थी
156 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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