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निशीथ भाष्य आदि प्राचीन - से - प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है । " केश- लोच : तब और अब
मूल आगम साहित्य में केश - लोच का वर्णन है, परन्तु वह कब और कितनी बार करना चाहिए, ऐसा विधान रूप में कोई उल्लेख नहीं है। वर्ष में तीन बार, दो बार एवं एक बार तथा वर्षावास में प्रतिदिन आदि लोच करने का यह सब वर्णन प्राचीन भाष्यों, चूर्णि एवं टीकाओं में है। लोच करने का विधि रूप से वर्णन सिर्फ कल्पसूत्र में है । वर्षा काल में प्रतिदिन तथा वर्ष में तीन बार लोच करने की परम्परा कब और क्यों लुप्त हुई ? यह विचारणीय है। तरुण भिक्षु के लिए तो वर्ष में तीन बार और वर्षाकाल में प्रतिदिन लोच करना अनिवार्य रहा है। आज के तरुण एवं समर्थ भिक्षु, ऐसा क्यों नहीं करते? क्या वे सभी सुखशीलया हो गए हैं? इसका समुचित उत्तर है किसी आगमाभ्यासी के पास ? केश- लोच की परम्परा बदलती-बदलती आज कहाँ और किस रूप में पहुँच गई है, यह किसी से छुपा नहीं है ? वृद्ध और अशक्त भिक्षुओं की केश- लोच सम्बन्धी छूट का, आज के तरुण और समर्थ भिक्षु भी किस प्रकार प्राचीन परम्परा - विरुद्ध खुला उपयोग कर रहे हैं? यह सबके सामने है। इसके लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा है क्या ?
केश- लोच : भौतिक हेतुवाद पर आधारित नहीं है
केश- लोच जैन - साधना की एक अध्यात्म - भावना प्रधान स्वयं प्रेरित क्रिया है। वह साधक की आन्तरिक तितिक्षा का एक उत्कृष्ट मान दण्ड है। वह अन्तर्-विवेक के प्रकाश में सहज भाव से करने जैसी साधना है । वह जनता में प्रतिष्ठा पाने या साधु संस्था की शोभा बढ़ाने आदि भौतिक वासनाओं की पूर्ति हेतु नहीं है। आत्म- रश्मि ( मासिक पत्र) 20 अगस्त 1970 का यह कथन तो बहुत नीचे स्तर का है - " समाज से भोजन, वस्त्र, मकान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करता है, तब उसे ( साधु को ) केश- लोच की प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। " केश - लोच के लिए यह लोकैषणा का हेतुवाद जैन धर्म से मेल नहीं खाता।6 यह जो जैन-साधना के मूल्य को बिल्कुल गिरा देता है। जो उक्त दृष्टि से बिना अन्तर्-जागरण के लोचादि बाह्यक्रिया करता है, वह साधु ही नहीं है । साधक की अन्तरात्मा जगे, वह देह - बुद्धि के निम्न स्तर से उँचा उठे, तभी उक्त क्रिया-काण्डों की सार्थकता है। अन्यथा लोकैषणा के चक्कर में तो कुछ साधक
• 154 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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