SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिस प्रकार जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसे उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अंत:करण में स्थित काम क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र तथा निर्मल बना देता है। इस प्रकार भगवान् महावीर से लेकर एक हजार से कुछ अधिक वर्ष तक के चिंतन में शास्त्र की यही एक सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत हुई कि “जिसके द्वारा आत्म-परिबोध हो, आत्मा अहिंसा एवं संयम की साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, उस तत्त्वज्ञान को शास्त्र कहा जाता है।" शास्त्र के नाम पर अब मैं जरा अपनी पिछली बात को दुहरा ढूँ। मानवता के सार्वभौम चिंतन एवं विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के कारण आज यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि इन शास्त्रों का क्या होगा? विज्ञान की बात का उत्तर क्या है, इन शास्त्रों के पास ! पहली बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि जैसी कि हमने शास्त्र की परिभाषा समझी है, वह स्वयं में एक विज्ञान है, सत्य है। तो क्या विज्ञान, विज्ञान को चुनौती दे सकता है? सत्य सत्य को चुनौती दे सकता है? नहीं ! एक सत्य दूसरे सत्य को काट नहीं सकता, यदि काटता है, तो वह सत्य ही नहीं है। फिर यह मानना चाहिए कि जिन शास्त्रों को हमारा मानवीय चिंतन, तथा प्रत्यक्ष विज्ञान चुनौती देता है, वे शास्त्र नहीं हो सकते, वे शास्त्र के नाम पर पलने वाले ग्रंथ या किताबें हैं। चाहे वे जैन आगम हैं, या श्रुति स्मृतियाँ और पुराण हैं, चाहे पिटक हैं या बाइबिल एवं कुरान हैं। मैं पुराने या नये किन्हीं भी विचारों की अंध प्रतिबद्धता स्वीकार नहीं करता। शास्त्र या श्रुति-स्मृति के नाम पर, आँख भीचकर किसी चीज को सत्य स्वीकार कर लेना मुझे सह्य नहीं है। मुझे ही क्या, किसी भी चिंतक को सह्य नहीं है। और फिर जो शास्त्र की सर्वमान्य व्यापक कसौटी है, उस पर वे खरे भी तो नहीं उतर रहे हैं। जिन धर्म शास्त्रों ने धर्म के नाम पर पशुहिंसा' एवं नरबलि का प्रचार किया,6 मानव-मानव के बीच में घृणा एवं नफरत की दीवारें खड़ी की, क्या वह सत्यद्रष्टा ऋषियों का चिंतन था? मानवजाति के ही एक अंग शूद्र के लिए कहा गया कि-वह जीवित श्मशान है। उसकी छाया से भी बचना चाहिए, तो क्या अखंड मानवीयता की अनुभूति वहाँ पर कुछ भी हुई होगी? जिस नारी ने मातृत्व का महान क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy