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________________ गौरव प्राप्त करके समग्र मानव जाति को अपने वात्सल्य से प्रीणित किया, उसके लिए यह कहना कि "न स्त्रीभ्यः कश्चिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति वै-स्त्रियों से बढ़कर अन्य कोई दुष्ट नहीं है । क्या यह धर्म का अंग हो सकता है? वर्ग-संघर्ष, जाति-विद्वेष एवं सांप्रदायिक घृणा के बीज बोने वाले ग्रंथों ने जब मानव चेतना को खंड-खंड करके यह उद्घोष किया कि "अमुक संप्रदाय वाले का स्पर्श होने पर शुद्धि के लिए-सचैलो जलमाविशेत् कपड़ों सहित ही पानी में डुबकी लगा लेनी चाहिए"-तब क्या उनमें कहीं आत्म-परिबोध की झलक थी? मैंने बताया कि ऋषि वह है, जो सत्य का साक्षात्द्रष्टा एवं चिंतक है, प्राणिमात्र के प्रति जो विराट् आध्यात्मिक चेतना की अनुभूति कर रहा है क्या उस ऋषि या श्रमण के मुख से कभी ऐसी वाणी फूट सकती है? कभी नहीं ! वेद, आगम और पिटक जहाँ एक ओर मैत्री का पवित्र उद्घोष कर रहे हैं, क्या उन्हीं के नाम पर, उन्हीं द्रष्टा ऋषि व मुनियों के मुख से मानव-विद्वेष की बात कहलाना शास्त्र का गौरव है? शास्त्रों के नाम पर जहाँ एक ओर ऐसी बेतुकी बातें कही गई, वहाँ दूसरी ओर भूगोल-खगोल के संबंध में भी बड़ी विचित्र, अनर्गल एवं असंबद्ध कल्पनाएँ खड़ी की गई हैं। पृथ्वी, समुद्र, सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्र आदि के संबंध में इतनी मनमोहक किन्तु प्रत्यक्ष बाधित बातें लिखी गई है कि जिनका आज के अनुसंधानों के साथ कोई संबंध नहीं बैठता। मैं मानता हूँ कि इस प्रकार की कुछ धारणाएँ उस युग में व्यापक रूप से प्रचलित रही होंगी, श्रुतानुश्रुत परम्परा या अनुमान के आधार पर जन समाज उन्हें एक दूसरे तक पहुँचाता आया होगा। पर क्या उन लोकप्रचलित मिथ्या धारणाओं को शास्त्र का रूप दिया जा सकता है? शास्त्र का उनके साथ क्या संबंध है? मध्यकाल के किसी विद्वान ने संस्कृत या प्राकृत ग्रंथ के रूप में कुछ भी लिख दिया, या पुराने शास्त्रों में अपनी ओर से कुछ नया प्रक्षिप्त कर दिया और किसी कारण उसने वहाँ अपना नाम प्रकट नहीं किया, तो क्या वह शास्त्र हो गया? उसे धर्मशास्त्र मान लेना चाहिए? उसे भगवान् या ऋषियों की वाणी मानकर शिरोधार्य कर लेना चाहिए? उत्तरकालीन संकलन वैदिक साहित्य का इतिहास पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उत्तरकाल में कितने बड़े-बड़े धर्मग्रन्थों की रचनाएँ हुईं। स्मृतियाँ, पुराण, महाभारत 18 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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