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समझ कर कोई नाविक नदी में फेंक दे, तो वह पवमयाणे अर्थात् तैरकर नदी पार करे। यदि भण्डोपकरण का भार अधिक हो और उसके फलस्वरूप उसे तैरने में बाधा पड़ती हो, तो उन्हें जल-प्रवाह में उतार कर डाल दे और हल्का हो जाए। इस तरह लघुभूत होने से जलधारा में तैरना सहज हो जाता है।
यह वर्णन स्पष्ट करता है कि भिक्षु नौका द्वारा नदी पार कर सकता है? नौका द्वारा ही नहीं, प्रसंग आ जाए तो तैर कर भी पार कर सकता है। प्रश्न है, संथारा में जान-बुझकर हिंसाकारी नौका में बैठकर कैसे यात्रा की जाती है? साथ ही धारा के विशाल प्रवाह को तट तक कैसे तैरा जा सकता है? संथारा में इस प्रकार की सावध क्रिया करना, क्या ठीक है? मूल आगम में विधान तो है। समाधान है-साधक के लिए जीवन-रक्षा का प्रयत्न किया गया है। यदि जीवन-रक्षा के लिए यह सब-कुछ किया जा सकता है, तो क्या धर्म प्रचारार्थ एवं जिन-शासन की गरिमा हेतु नौका और उससे भी अल्प-हिंसक यांत्रिक-वाहनों का प्रयोग करने में क्या बाधा आती है?
प्रस्तुत प्रसंग को देखते हुए यह संथारा केवल भक्त प्रत्याख्यान रूप है अर्थात् भोजन का परित्याग। वह भी इसलिए कि प्रायः तूफान, आवर्त तथा अतिभार आदि के कारण नौकाएँ अगाध जल में डूब जाती हैं और इस दुर्घटना में प्राणान्त भी हो सकता है। अतः भक्त-प्रत्याख्यान के रूप संथारा, ग्रहण कर लिया जाता है। नौकारोहण के निषेध के अतिवादी क्रियाकाण्ड उक्त संथारे की प्रायः चर्चा किया करते हैं, उन्हें शान्त चित्त से इस पर विचार करना चाहिए।
__उक्त प्रसंग पर हमें आचार्य भद्रबाहु का आवश्यक नियुक्ति में किया गया कथन स्मृति-पथ में आ जाता है-"सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि संयम और जीवन-रक्षा के मध्य कोई द्वंद्व उपस्थित हो जाए, तो संयम की अपेक्षा जीवन की ही रक्षा करनी चाहिए"
"संजमहेउं देहो धारिज्जइ, सो कओ उ तदभावे संजम - फाइनिमित्तं, देहपरिपालणा इट्ठा ।।47॥"
उक्त प्रसंग पर एक प्रश्न विचाराधीन है। वह यह कि जब अंग-साहित्य के प्रथम अंग सूत्र आचारांग में नौका द्वारा नदी-संतरण का विस्तृत रूप से उल्लेख है, तो यहाँ महानदी और जंघा संतारिम अल्प नदी का वर्णन क्यों नहीं
70 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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