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________________ रहा है। इतने बड़े संघ का आकाश से उड़कर आने की बात करना तो बौद्धिक दिवालियापन के सिवा और कुछ भी नहीं है। भगवती मल्ली उन्नीसवें तीर्थंकर हैं। वे गंगा नदी से उत्तर बिहार मिथिला की हैं। दीक्षा लेते ही उसी दिन उन्हें अर्हत्-भाव प्राप्त हो चुका था। क्या उन्होंने सारा अर्हत्-जीवन मिथिला में ही गुजारा? क्योंकि मिथिला के आस-पास भी कितनी ही ऐतिहासिक नदियाँ हैं। क्या उन्हें पार नहीं किया गया? और, सबसे बड़ी बात है उनके निर्वाण की। उनका निर्वाण गंगा के इस पार दक्षिण बिहार के सम्मेत् शिखर पर्वत पर हुआ है। बताइए, गंगा को पार किए बिना वे कैसे सम्मेत्शिखर पहुंचे। प्रस्ताविक विषय काफी स्पष्ट हो चुका है, उसके लिए अब कुछ और अधिक लिखना अनावश्यक है। अपेक्षा है, दुराग्रह को छोड़कर सदाग्रह के साथ सत्य को स्वीकार करना। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार करते हुए एक बात पर और विचार कर लेते हैं। स्थानांगसूत्र और अन्य वाङ्मय में नौका द्वारा नदी संतरण के दुष्काल, रोग, राजभय एवं म्लेच्छ आक्रमण आदि कुछ कारण बताए गए हैं, जो भिक्षु की जीवन-रक्षा से संबन्धित हैं। किन्तु, भगवान् महावीर द्वारा गंगा जैसी महानदी पार करने में ऐसा कोई हेतु नहीं है-न छद्मस्थ काल में और न अरहन्त काल में। अकारण यों ही इधर-उधर घूमने के उद्देश्य से तो उन्होंने नदी पार नहीं की। हेतु तो होना ही चाहिए और, वह हेतु छद्मस्थ काल में असंग साधना रूप विहार-यात्रा और अरहन्त काल में धर्म-प्रचार ही एक मात्र हेतु प्रतिभासित होते हैं। जरा तटस्थता से विचार करेंगे, तो मेरा यह निष्कर्ष अवश्य ही अनाग्रही पाठक के मन-मस्तिष्क में अवतरित होगा। निग्रंथ भिक्षु-भिक्षुणी द्वारा नदी-संतरण अंग-साहित्य का प्रथम सूत्र आचारांग है। सर्व प्रथम नदी संतरण का उक्त आगम के अद्वितीय श्रुतस्कंध के तृतीय इयैषणा अध्ययन में उल्लेख है। वहाँ किसी विशेष कारण का उल्लेख किए बिना विहार-यात्रा में नदी आ जाए, तो उसे नौका द्वारा पार करने का वर्णन है। सागारी भक्त प्रत्याख्यानकरके भिक्षु नौका में यथास्थान बैठ जाता है। नदी की जल-धारा में यदि उसे अधिक भार भगवान् महावीर द्वारा महानदियों का संतरण 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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