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भगवान महावीर द्वारा महानदियों का संतरण
आज के वैचारिक जगत् में एक प्रश्न चक्कर काट रहा है कि जैन-भिक्षु अर्थात् साधु-साध्वी को गहरे और विशाल जलराशि वाले जलाधारों अर्थात् नदियों को नौका से पार करना चाहिए या नहीं? और, कुछ कम जलवाली जंघा-संतारिम नदियों को भी पैरों से चलकर पार करना चाहिए या नहीं? इसी प्रश्न चक्र-व्यूह में से कुछ और प्रश्न भी समाधान के लिए उठ खड़े हुए हैं-कार - वायुयान आदि वाहन और यानों का भी यथाप्रसंग प्रयोग होना चाहिए या नहीं? यदि नदी संतरण का प्रश्न ठीक तरह समाधान पर पहुँच जाता है, तो अन्य प्रश्न स्वतः समाधान पा लेते हैं। क्योंकि नौका-यान आदि द्वारा नदियों को पार करना सर्वाधि क हिंसा का प्रसंग है। जलकाय के असंख्य जीवों और तद्गत निगोद के अनन्तानन्त जीवों की हिंसा तो है ही, साथ ही त्रस काय के द्वींद्रीय से लेकर पञ्चेंद्रिय जीवों की हिंसा तक का भी अवश्यंभावी सम्बन्ध है, नदियों की जल-यात्रा से।
श्रमण भगवान् महावीर से पहले के कोई आगम उपलब्ध नहीं हैं। जो कुछ भी वाङमय उपलब्ध है, वह भगवान् महावीर और तदुत्तरकालीन आचार्यों से सम्बन्धि त है। प्रश्न है, भगवान् महावीर ने दीक्षित होने के बाद के जीवन-काल में नौका का प्रयोग किया या नहीं? कुछ सज्जन कहते हैं-मूल आगम में उल्लेख नहीं है। अतः उत्तरकालीन आचार्यों द्वारा इस प्रकार के वर्णित प्रसंग हमें मान्य नहीं हैं। यदि आगमों को ही मान्य रखा जाए एकान्त रूप से, तो सैकड़ों क्रिया-काण्ड ऐसे हैं, जो आगम में कहीं नहीं हैं, किन्तु हम उन्हें मान्यता देते हैं। मुखवस्त्रिका किसलिए है और उसका क्या परिणाम है? यह किस आगम से प्रमाणित किया जाता है। जैन परम्परा का एक दिगम्बर वर्ग मुखवस्त्रिका रखता ही नहीं है। जो श्वेताम्बर वर्ग मुखवस्त्रिका रखता है, उसमें भी कुछ हाथ में रखते हैं और कुछ हमेशा मुख पर बाँधे रखते हैं। किसी की मुखवस्त्रिका लम्बी होती है, तो किसी की चौड़ी। संप्रदाय और प्रांतीय भेद से उसके भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार हैं। ये किसी आगम के आधार से प्रमाणित नहीं हैं।
62 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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