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शासन में प्रतिक्रमण अनियत है। दिन या रात्रि में यदि कभी अतिचार-दोष लगे, तो तत्काल उसी दोष का प्रतिक्रमण कर आचारशुद्धि कर लेते थे। यदि दोष नहीं लगा हों, तो प्रतिक्रमण नहीं करते थे, जैसा कि महावीर शासन में दोष लगे या न लगे दिन रात्रि की संधि में उभयकाल अवश्य प्रतिक्रमण करना होता है। जबकि दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं वार्षिक के रूप में प्रतिक्रमण की कोई परम्परा ही नहीं थी, तब वार्षिक प्रतिक्रमण रूप पर्युषण करने की बात स्वतः खंडित हो जाती है-“मूलं नास्ति कुतः शाखा।"
पर्युषण की अनादिकालीन परंपरा के लिए, और खास तौर पर वर्षावास के एक महीना बीस रात्रि बीतने पर भादवासुदि पंचमी के दिन की प्रतिबद्धता के लिए जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति (2 वक्षस्कार) के उस उल्लेख की चर्चा की जाती है, जो उत्सर्पिणी के द्विवतीय आरक के प्रारंभ से होने वाली सात-सात दिन की वर्षा से सम्बन्धित है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ यह आधारहीन बात कैसे प्रचारित की जाती है? जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में-पुष्कलावर्त, क्षीर, घृत, अमृत और रस-इस प्रकार पाँच वर्षाओं का ही उल्लेख है। मूल पाठ के अनुसार पाँच प्रकार की वर्षाएँ सात-सात दिन होती हैं, तो इस प्रकार वर्षा के 35 ही दिन हुए, 49 तो नहीं। बीच में सात-सात दिन के दो उघाड़ यानी वर्षा रहित मुक्त दिनों की बात कही जाती है, परन्तु इन उघाड़ों का न मूलपाठ में कोई उल्लेख है, न टीका में। वहाँ तो केवल पाँच वर्षाओं का ही वर्णन है। साथ ही इस प्राकृतिक घटना के साथ पर्युषण का कोई सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक सम्बन्ध है, ऐसा भी कुछ नहीं है। सम्बन्ध हो भी कैसे सकता है? जबकि महाविदेह में पर्युषण नहीं, 22 तीर्थंकरों के युग में पर्युषण नहीं, अकर्म भूमि युग में पर्युषण नहीं, तब केवल प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन के लिए ही यह प्राकृतिक घटना किसी एक नियम का सूत्रपात करे, भला यह साधारण बुद्धि के व्यक्ति को भी कैसे आश्वस्त कर सकती है?
चर्चा लम्बी हो रही है, अन्यथा और भी प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं। बुद्धिमान पाठक इतने पर से ही समझ सकते हैं कि पर्युषण के सम्बन्ध में सत्य स्थिति क्या है? स्पष्ट है कि पर्युषण की परम्परा अनादि नियत नहीं है। भगवान् पार्श्वनाथ के बाद भगवान् महावीर ने पर्युषण की परम्परा चालू की। कल्पसूत्र के अनुसार उन्होंने स्वयं भी पर्युषण किया, और वह फिर परम्परा के
पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 111
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