SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहंकार जाग उठा । महावीर क्षत्रिय कुमार है। क्षत्रिय को स्वयं वेद पढ़ने का अधिकार तो है, परन्तु जनता को सुनाने का अधिकार उसे नहीं है । वह गुरु के, ब्राह्मण के चरणों में बैठकर शिक्षा लेने का अधिकारी तो है, परन्तु गुरु के उच्च सिंहासन पर बैठ कर उपदेश देने का अधिकारी नहीं है । परन्तु, यह क्षत्रिय गुरु बन गया है और गुरु के आसन पर बैठ कर यज्ञ के विरोध में उपदेश दे रहा है, जन - मन में यज्ञ के विरोध में वातावरण तैयार कर रहा है। मैं स्वयं जाकर शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करता हूँ । गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ चल पड़ा भगवान् महावीर के समवसरण की ओर । समवसरण में प्रवेश करते ही श्रमण भगवान् महावीर ने कहा - " सागयं गोयमा!” गौतम, तुम ठीक समय पर आए हो । स्वागत है तुम्हारा। आज तो साध भी अपनी परम्परा से भिन्न परम्परा के साधु के आगमन पर भी ऐसी उदात्त भाषा का प्रयोग नहीं करते। परन्तु, भगवान् महावीर गौतम के लिए, जो अभी मिथ्यादृष्टि है, हिंसक यज्ञों का आयोजन कर रहा है। फिर भी भगवान् उसे आदर के साथ सम्बोधित करते हैं। गौतम का कुछ अहंकार तो यहीं टूट गया। ये तो मेरा नामगोत्र भी जानते हैं। । वह मन में सोचने लगा कि यह क्षत्रिय तो है, परन्तु लगता है क्षत्रियत्व से, जाति से बहुत ऊपर उठ गया है। इसके जीवन में सत्य की ज्योति है । फिर जब प्रभु की पीयूषवर्णी वाणी सुनी, तो उस पावन - निर्मल वाग्गंगा में मन का मैल ध लता गया, उसका चित्त शुद्ध होता गया । अन्तर् में ज्ञान - दीप प्रज्वलित हो गया और वहीं प्रबुद्ध हो गया गौतम । आया था अहंकार के साथ और बोध पाते ही स्वयं ही नहीं, अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ समर्पित हो गया प्रभु चरणों में। यह भी नहीं, कि अपने परिवार से मिलने और घर की व्यवस्था करने के लिए थोड़ा समय ले लूँ। आगमों में ऐसा वर्णन भी आता है, कि अनेक व्यक्तियों ने बोध प्राप्त करने के बाद कहा भगवन्, हम घर जाकर अपने माता-पिता एवं परिजनों से अनुमति लेकर पुनः आते हैं आपके चरणों में दीक्षित होने के लिए | परन्तु, गौतम ने तथा उनकी तरह क्रमशः आए अन्य दस विद्वानों ने ऐसा नहीं किया। वे अपने-अपने शिष्यों के साथ आए, शास्त्रार्थ किया और बोध प्राप्त होते ही वहीं दीक्षित हो गए। और श्रमण भगवान् महावीर ने भी यह नहीं कहा कि गौतम ! तुम और तुम्हारे पाँच सौ शिष्य श्रमण - प्रव्रज्या स्वीकार कर रहे हो, 182 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy