________________
प्राचीन परम्परा पुनर्जीवित होनी चाहिए
___ कैसी भी स्थिति रही हो, दीक्षा-कालीन केश-लोच की परम्परा, जो अपने में एक वैराग्य-प्रधान उज्ज्वल परम्परा थी, विलुप्त हो गई। मैं अपेक्षा करता हूँ, वह फिर से जीवित होनी चाहिए। जब दीक्षार्थी सर्व-साधारण जनता के समक्ष अपने हाथों से अपना लोच करता है, तो कितनी अधिक वैराग्य भाव की उद्दीप्ति होती है, जैन-साधना कितनी महिमान्वित होती है। जैन-दीक्षा देहातीत भाव की, सहज विरक्ति की साधना है। उसके लिए महान् धृति-बल की अपेक्षा है। केश-लोच उसी धृति-बल की परीक्षा है, यह परीक्षा दीक्षा के पूर्व होनी चाहिए न !
यह क्या बात है, दीक्षा पहले हो जाती है और उसकी परीक्षा बाद में होती है। बाद में भी परीक्षा होती रहनी चाहिए, वर्ष में तीन बार और वर्षावास में तो प्रतिदिन लोच होते रहना चाहिए, कोई बात नहीं। किन्तु, दीक्षा-काल में स्वयं अपने हाथ से लोच करने की प्राथमिक परीक्षा तो अत्यन्त आवश्यक है।
क्या परम्परा प्रेमी, पुरातन परम्पराओं के अनुरागी संयमी और उत्कृष्ट आचारी मुनिराज मेरे उक्त विचार पर कुछ लक्ष्य देंगे? देंगे, तो कब?
संदर्भ :1. केसलोओ य दारुणो।
-उत्तराध्ययन, 19, 34. 2. संतता केस लोएण।
-सूत्रकृतांग 3, 13. 3. निशीथ भाष्य, 3213. 4. निशीथ भाष्य, 3173. 5. कल्पसूत्र, 9, 57.
कत्तरी-छुर-लोए वा विनियं असह गिलाणेय। -निशीथ भाष्य 3212 वित्तीयपवेणं लोयं न कारवेज्जा। असह् लोयं तरति अधियासेउ। सिरोरोगेण वामंद चक्खुणा वा लोयं असहतो धम्मं छड्डेज्जा। गिलाणस्स वालोओ न कज्जति, लोए वा करेंते गिलाणो हवेज्ज।
__ -चूर्णि 6. न लोगस्सेसणं चरे।
-आचारांग, 14,1. 7. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कंद 8. ज्ञाता सूत्र, अध्य. 8
शास्त्रीय विचार चर्चा: दीक्षाकालीन केशलोचः कहाँ गायब हो गया? 159
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org