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________________ करना चाहिए। अतः लोच न करने पर एक तो परंपरा पालन न करने का दोष होता है। दूसरे यूका-जूं आदि प्राणियों की हिंसा हो सकती है। नाई अपने उस्तरा, कैंची और हाथ आदि कच्चे सचित्त जल से धोएगा तो यह पश्चात्कर्म दोष भी हो सकता है। असमर्थ के लिए अपवाद __अब प्रश्न असमर्थ का रह जाता है। प्राचीन परंपरा का जैन साहित्य इस संबंध में स्पष्ट है। वह एक ही डंडे से सबको नहीं हाँकता है। साधक एक व्यक्ति है। साधना का मूल स्रोत व्यक्ति के अपने अंदर में होता है। बाह्याचार तो केवल एक मर्यादा है, और वह अंतर्जीवन के परिपोषण एवं संवर्धन के लिए है। यदि बाह्याचार अंदर की मूल साधना का परिपोषण एवं संवर्द्धन करता है तो वह ठीक है, अन्यथा उसका कुछ मूल्य नहीं रहता है। जो आचार किसी विशेष परिस्थिति के कारण अंदर में सहर्ष स्वीकृत नहीं है, बाहर के दबाव आदि के कारण मन मार कर किया जाता है, शारीरिक स्थिति इन्कार करती है, किन्तु लोक-लज्जा आदि इकरार के लिए जोर जबर्दस्ती करते हैं, तो वह साधक के उत्थान का हेतु न होकर पतन का ही हेतु होता है। यही कारण है कि जैन धर्म की प्रज्ञाप्रधान परम्परा ने साधना के इन जटिल प्रश्नों पर अपने को बहुत सतर्क एवं जागृत रखा है। जैन परंपरा का आदर्श अहिंसा है, हिंसा नहीं। असमर्थ व्यक्ति पर समर्थ व्यक्ति के जैसे क्रियाकाण्ड का दबाव डालना, जैन दृष्टि में अहिंसा नहीं, हिंसा है - धर्म नहीं, अधर्म है। अतएव जैन दर्शन ने उत्सर्ग और अपवाद की एक लंबी चर्चा की है। प्रत्येक क्रियाकांड को साधना तुला के इन दो पलड़ों से तोला है। जीवन की सामान्य स्थिति उत्सर्ग है और विशेष परिस्थिति अपवाद है। जो धर्म व्यक्ति की सामान्य एवं विशेष स्थिति का विवेक नहीं रखता, आँख बंद कर सबको एक ही हाथ से धकेलता रहता है, वह कैसा धर्माचार, कैसा शासन? अतएव केशलोच के संबंध में कहा गया है कि समर्थ को अवश्य लोच करना चाहिए। क्योंकि लोच न होने पर शिर के सघन केश इधर-उधर आते-जाते वर्षा में भींग सकते हैं, उससे अप्काय की विराधना-हिंसा होने की संभावना है। पानी के संसर्ग से मैल होने के कारण जूं आदि जीव पैदा हो सकते हैं, और खुजलाने पर उनकी हिंसा हो सकती है, खुजलोने से शिर में नखक्षत भी हो 140 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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