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________________ प्रश्न-आगमों में बहुत से वर्णन केवल ज्ञेय रूप में ही किए गए हैं। उन्हें मात्र जानना है, न वे हेय हैं और न वे उपादेय हैं। ज्योतिष का वर्णन भी भगवान् ने केवल जानकारी के लिए ज्ञेय रूप में ही किया है। पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज का भी ऐसा ही कुछ अभिप्राय है। उत्तर-पूज्य श्री ही क्यों, अन्य भी बहुत से मुनिवरों का ऐसा ही कहना है। एक वरिष्ठ मुनिराज ने कहा है कि शास्त्र समुद्र हैं। समुद्र में रत्न हैं, मोती हैं, तो साथ ही कंकड़-पत्थर, मगरमच्छ भी हैं, खारा जल भी है। हमें मोती और रत्न चुन लेने चाहिए। कंकड़-पत्थर, मगरमच्छ आदि तो बस जान लें, उन्हें न उपादेय समझे और न हेय। मुझे आश्चर्य होता है इस उथले चिन्तन पर। एक ओर तो शास्त्रों को धर्मावतार भगवान् की वाणी मानना और दूसरी ओर उसे कंकड़-पत्थर तथा मगरमच्छ आदि जैसे अनुपयोगी वर्णनों का केवल ज्ञेय रूप से अस्तित्व भी स्वीकार करना, अपने में कितना परस्पर विरुद्ध एवं असंगत कथन है। पूज्य श्री ने ज्योतिष के साथ स्वर तथा स्वप्न आदि के वर्णनों को भी ज्ञेय रूप में शास्त्रीय करार दिया है। बहुत कुछ विचारने के बाद भी मुझे यह ध्यान में नहीं आता कि जिन वर्णनों से हमें कुछ लेना-देना नहीं है, जिनका प्रयोग साधकों के लिए निषिद्ध है, उनका केवल ज्ञेय रूप में अध्ययन करना, व्यर्थ ही अपना अमूल्य समय उनके चिन्तन-मनन, में व्यय करना, कहाँ की बुद्धिमत्ता है। साधक के लिए एक आत्मा ही 'स्व' है, शेष 'पर' है। पर की जानकारी 'स्व' को समझने के लिए है, भेद विज्ञान के लिए है, विरति के लिए है। देहादि जड़ तत्त्व से भिन्न चैतन्य तत्त्व को समझने के लिए ही देहादि पर को जड़ रूप में जानना है। केवल ज्ञेय के लिए सिर्फ जानकारी के लिए, जिनका उपादेय या हेय से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे पहाड़ों का, नदी-नालों का, सागरों का, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रों का, स्वप्नों का, स्वरों का ज्ञान करना साधक के लिए क्या अर्थ रखता है। आखिर ज्ञानार्जन का कोई उद्देश्य तो होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति पराये घर की बहू, बेटी आदि की जानकारी लेने के लिए घर-घर पूछता फिरे और कोई उससे पूछे कि आपका इससे क्या मतलब है और उत्तर में यदि वह यह कहे कि कुछ मतलब नहीं, यों ही जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ तो आप उसे क्या कहेंगे? यही न कहेंगे कि आप पागल हो गए हैं क्या? यों ही बिना मतलब की जानकारी से आपको क्या करना है? संस्कृत साहित्य में ऐसे 44 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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